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सोमवार, अगस्त 30, 2010

ज्‍योतिष एक आशा है!- डॉ उमेश पुरी 'ज्ञानेश्‍वर'



     ज्योतिष का संदेश प्रभावशाली और स्पष्ट है कि ज्‍योतिष एक आशा है उनके लिए जो जीवन के लक्ष्‍य को पाने के लिए इसका सहयोग लेना चाहते हैं। ज्‍योतिष्‍ा सबके जीवन का मार्गदर्शन देकर व्यावहारिक सहायता करता है। ज्योतिष भारत तक ही सीमित नहीं है, आज विश्‍वव्‍यापी है। यदि आप कहते हैं कि ज्‍योतिष एक कपडा है तो वह निश्चित रूप से कर्म के धागे में बुना है। यदि आप नकारात्‍मक हैं तो आप बुरे कर्म या कुकर्मों में लिप्‍त हो सकते हैं, जिसका परिणाम दु:खद है। यदि आप सकारात्‍मक हैं तो आप सुकर्म या अच्‍छे रचनात्‍मक कर्मों में लिप्‍त हो सकते हैं जिसका परिणाम सुखद है। कर्म की अवधारणा से तात्‍पर्य यह है कि हम अपने कार्यों के लिए जिम्मेदार रहें। जैसा हम बोएंगे वैसा हमें काटना होगा। भाग्‍य कर्मों का ही प्रतिफल है। एक जीवन यात्रा की पूर्णता पर सुकर्म की राशि अधिक है तो अगली जीवन यात्रा में भाग्‍यशाली होंगे और यदि कुकर्म की राशि अधिक है तो अगली जीवन यात्रा में दुर्भाग्‍य आपका पीछा नहीं छोडेगा।  वस्‍तुत: भाग्य हमारे कर्मों का परिणाम है। 
     कर्म संबंधी ऋण को चुकाकर आप उपचारात्मक प्रक्रियाओं के बल पर आने वाली बाधाओं एवं लाभहानि से बच सकते हैं। इसके लिए आपको किसी योग्‍य ज्‍योतिषी की शरण में जाना होगा। वही बता सकता है कि आप किन कार्मिक ऋणों से प्रभावित हैं और उनका उपाय या निवारण क्‍या है। उपाय द्वारा दृढ़ संकल्प और ऊर्जा में वृद्धि हो जाने से आप सही मार्ग एवं कर्म करने को प्रशस्‍त होते हैं जिसके फलस्‍वरूप आप उन्‍नति एवं सफलता के संग प्रसन्‍नचित्‍त होते हैं। ईश्‍वर पर आस्‍था का दृष्टिकोण भी लोगों को सहिष्णुता और धैर्य बढ़ाने के लिए होता है जोकि भक्‍त या साधक के विश्‍वास एवं आस्‍था पर निर्भर है कि वह कितना प्रभावित होकर सहिष्‍णुता एवं धैर्य उपलिब्‍ध रूप में पाता है। इसकी कोई अन्तिम सीमा नहीं है, यह सब भक्‍त व साधक के समर्पण पर निर्भर है। 
     आपके सभी कार्य भलीभांति चल रहे हैं और आपके समक्ष किसी प्रकार की बाधा नहीं है तो आप व्‍यस्‍त हैं और आपको कभी भी किसी ज्‍योतिषी का स्‍मरण नहीं होगा। जब आप परेशान हैं, तनाव में हैं, आपके कार्य नहीं बन रहे हैं तब आप ज्‍योतिषी के दर पर भटकते मिलेंगे।  यहां आपका व्‍यवहार उसी प्रकार का है जैसा आप ईश्‍वर संग करते हैं, कहने का तात्‍पर्य यह है कि सुख में प्रभु का स्‍मरण भी नहीं होता है और दु:ख आने पर प्रभु दिनरात याद आने लगते हैं। ज्‍योतिष कोई चमत्‍कार नहीं है जो आपको चुटिकियों में कुछ भी दिला दे। वह तो आपके कर्मों के लेखेजोखे की बैंलसशीट में सौभाग्‍य एवं दुर्भाग्‍य के रूप में जो आपको मिला है, उसको पढकर संकेत मात्र देता है। इस संकेतों को समझकर आप किस प्रकार योजनाएं बनाकर सक्रिय होते हैं कि आप लाभ एवं उन्‍नति की स्थिति में होते हैं और हानि एवं अवनति को पास फटकने ही नहीं देते हैं। यहां आप भाग्‍य के दिए संकेतों को दैवज्ञ या ज्‍योतिषी के द्वारा समझकर एक प्रबन्‍धक की भांति सुयोजना बनाते हैं और परिणाम सदैव सकारात्‍मक ही पाते हैं।
    ज्‍योतिष भविष्य के लिए आशा की एक किरण मात्र है जो आपको आशावादी बनाती है, एक स्‍वर्णिम भविष्‍य के लिए। ज्योतिष का ज्ञाता ही ज्‍योतिषी है, जोकि सांसारिक एवं आध्‍यात्मिक रूप से सफल होने के लिए एक उत्‍तम साधन जुटाने के लिए एक अच्‍छे सहायक के रूप में सबके लिए उपहार सदृश है। बात इतनी सी है कि इस शास्‍त्र का उपयोग हम किस रूप में कर रहे हैं।

शनिवार, अगस्त 28, 2010

टैरो कार्ड से भविष्य कैसे जाने?-डॉ कथूरिया शिवानी (भाग-22)



टैरो कार्ड से भविष्य कैसे जाने के अन्तर्गत माइनर अर्काना के 56 कार्डस्‌ की चर्चा करेंगे। सर्वप्रथम छड़ियां के 14 कार्डों की चर्चा करेंगे जोकि पृच्छक की महत्त्वकांक्षा और विचारों को दर्शाते हैं जोकि भविष्य में बड़ा परिवर्तन लाने वाले हैं। कार्डस के इस समूह में 14 कार्डस होते हैं। इसमें से दस छड़ी तक, छड़ी का पेज के एवं शूरवीर की छड़ी का कार्डस्‌ आदि की चर्चा अंक 81 तक कर चुके हैं। अब रानी की छड़ी(Queen  of wands)के कार्ड की चर्चा करेंगे।
रानी की छड़ी का कार्ड
इस कार्ड में अंकित रानी खुले दिल की, योग्य, गर्ममिजाज एवं मजबूत औरत है। कभी-कभी वह स्थिर राशि सिंह से जुड़ जाती है। यह कार्ड रचनात्मक ऊर्जा के साथ-साथ स्थायी एवं उत्पादक उन्नति देती है। उसे रानी के सिंहासन पर बैठना है। उसके बाएं हाथ में सूरजमुखी का फूल और दाएं हाथ में एक छड़ी पकड़े हुए है। ये उसके बड़प्पन एवं शासक होने के प्रतीक हैं। उसके पैरों के पास एक काली बिल्ली बैठी है। 
चूल्हा और घर की रानी के रूप में उसकी भूमिका सराहनीय है। कहने का तात्पर्य यह है कि छड़ी की रानी एक ऊर्जावान, सक्षम औरत, एक प्यारी पत्नी और माता के अतिरिक्त व्यापारिक औरत है। वह बहिर्मुखी, उदार एवं सनुभूति रखने वाली है। उसे जीवन व प्रकृति से प्यार है। मूलतः वह भली-भांति घर चला सकती है। उसे सभी प्यार करते हैं। शत्रु के लिए वह शेरनी सदृश है। 
यह कार्ड साहस, प्रेरणा, परिपक्वता, अनुकूलता, सक्रियता, सर्जक, आकर्षक, गर्मी, सहायता, गाईड को दर्शाता है। 
कार्ड रीडिंग में यह कार्ड आए तो उसके दोनों अर्थ बतलाते हैं। 
सीधा कार्ड आए तो अर्थ यह है कि आप हंसमुख, आकर्षक एवं प्रिय व्यक्तित्व के स्वामी हैं।  आप परिपक्व हैं और घर की देखभाल कर सकते हैं। किसी योजना के पूर्ण होने का संकेत देता है। 

उल्टा कार्ड आए तो अर्थ यह है कि आप चंचल और ईर्ष्यालु हैं, आप धोखे से कुछ भी प्राप्त कर सकते हैं। आप क्रूर, दुर्भावना रखने वाले एवं दूसरों को परेशान देखकर खुश होते हैं। आप अपने हठ से दूसरों को हानि पहुंचाते हैं। 

उपाय के लिए यह करें। रानी की छड़ी, लियो स्पल किट उपाय के लिए ले लें। एक लाल कपड़े पर इस किट की सारी सामाग्री निर्देशानुसार निर्धारित करें। यह सब करने से पूर्व छड़ी की रानी को स्थापित करें। बाद में निर्देशासार सारी साधना या रस्म पूर्ण कर लें। 
इसके लिए आप अपना पूरा ध्यान अपनी कामनाओं या कार्यों पर लगाएं जो पूरा करने चाहते हैं। यदि आप एकाग्र नहीं कर पा रहे हैं तो एक स्थान पर बैठकर तीन गहरी सांस लेकर छोड़ें। मन-मस्तिष्क एकाग्र करें। 
बाद में यह सब चौराहे या मलबे पर छोड़ दें। सकारात्मक रहने पर कार्य बन जाएगा और नकारात्मक प्रभाव भी कम हो जाएगा। कहने का तात्पर्य यह है कि इसके पूर्ण प्रभाव के लिए श्रद्धा व विश्वास चाहिए।
अगले अंक में अन्य कार्डों की चर्चा करेंगे जिससे आप कार्ड रीडिंग करने में प्रवीण हो सकें। किसी प्रकार की कठिनाई आने पर या अधिक ज्ञान हेतु लेखिका की बेबसाइट पर सर्फ कर सकते हैं, जिसका पता है-http//www. the magickal moon.com.(क्रमशः) 

गुरुवार, अगस्त 26, 2010

ग्रहों का शिक्षा पर पड़ता प्रभाव : एक अनुभूत चिन्तन -रामहरी शर्मा



यह जान लें कि जन्मकुंडली के भावों एवं ग्रहों की विशिष्ट स्थितियों का हम सबके जीवन पर निश्चित प्रभाव पड़ता है। हमारा व्यक्तित्व, स्वास्थ्य, शिक्षा, व्यवसाय, धन आदि सभी कुछ ग्रहों से प्रभावित होता है। बाल्यकाल से युवावस्था तक विद्यार्जन के लिए किए गए सभी प्रयासों का निर्धारण कुंडली में स्थित सूर्यादि ग्रह करते हैं। व्यक्ति की किसी भी प्रकार की  शिक्षा की ओर रुचि या अरुचि इन्ही ग्रहों के प्रभाव से होती है। इस लेख में मैं अपनी बाल्यकाल से युवावस्था तक प्राप्त समस्त शिक्षा प्राप्ति तक विभिन्न ग्रहों व परिस्थितियों का विश्लेषण करूंगा। मैं एक ज्योतिषी हूं और कोई भी ज्योतिषी अपनी कुंडली का विश्लेषण अधिक अच्छे ढंग से कर सकता है। 
मेरा जन्म 2.7.1965 में 4 बजे प्रातः में मथुरा में हुआ है। इस जातक की कुण्डली एवं नवांश कुण्डली इस प्रकार है- 

प्रत्येक व्यक्ति कैसी शिक्षा पाएगा और उसकी रुचि किस विषय में होगी, इस सबका चयन जन्मकालीन ग्रहों से होता है। मेरी रुचि आर्ट विषयों में प्रारम्भ से थी जोकि जन्म कुंडली से स्पष्ट है। पंचमेश बुध चन्द्र एवं शुक्र के साथ तीसरे भाव में स्थित है। सोने में सुहागा यह है कि गुरु का लग्न भाव में स्थित होना, जोकि कला में रुचि देता है। आर्ट विषयों से हाईस्कूल परीक्षा 1980 में उत्तीर्ण की। मेरे पिताजी को कुछ लोगों ने सुझाव दिया कि आपके पुत्रा को विज्ञान विषयों से पढ़ना चाहिए। तब मेरे पिताजी ने पुनः विज्ञान विषयों से मेरा प्रवेश 1982 में करा दिया तो यह प्रक्रिया 1986 में बी.एस.-सी. तक जारी रही। इसके पीछे कारण शुक्र महादशा में सूर्य, चन्द्र, मंगल, राहु का अन्तर एवं गोचर में शनि का पंचम भाव में होना। अतः स्पष्ट है कि सूर्य, चन्द्र, मंगल, शनि व राहु व पंचम बुध  विज्ञान के कारक हैं। राहु बाधाकारक होने के कारण इसने स्नातक परीक्षा पास कराने के बाद रोक लगा दी। सन्‌ 1986 में वायुसेना में प्रवेश के बाद राहु अन्तर्दशा व मंगल प्रत्यन्तर में एविएशन इंजीनियरिंग में बी.टेक. करने में सफल रहा क्योंकि राहु व मंगल तकनीकी शिक्षा दिलाते हैं। सन्‌ 1992 में मेरा फिर से कला विषयों की ओर रुझान हुआ। 1992 से 1994 तक बी.ए. किया तब शनि की अन्तर्दशा चल रही थी, शनि कुंडली में बली होकर दशम में स्थित है। शनि अंग्रेजी कारक है तो 1996 तक अंग्रजी से एम.ए. करने तक यह जारी रहा। सन्‌ 1997 से 2000 तक तीन साल तक शिक्षा स्थगित रही, तब सूर्य में राहु की अन्तर्दशा चल रही थी। राहु के बाद जब गुरु की अन्तर्दशा प्रारम्भ हुई तो मैं संस्कृत से एम.ए. करने में सफल रहा। मेरी शिक्षा के विषय में एक रोचक तथ्य यहै है कि गुरु की पंचम दृष्टि पंचम पर होने के कारण मेरी रुचि शिक्षक बनने की रही। इसी कारण मैंने 1998 में बी.एड. में प्रवेश लिया, परन्तु छोटे भाई का विवाह होने के कारण मैं परीक्षा देने से वंचित रहा। इस समय सूर्य में सूर्य में राहु प्रत्यर्न्दशा थी। पर गुरु का प्रभाव मुझे फिर भी प्रेरित करता रहा और एक बार फिर मैंने 2008 में प्रवेश लिया और प्रथम वर्ष 72प्रतिशत से उत्तीर्ण कर लिया और दूसरे वर्ष की परीक्षा भी ठीक रही पर बंगलौर विश्वविद्यालय ने 41 विद्यालयों का परिणाम अनियमिताओं के चलते रोक लिया और एक बार फिर बी.एड. परीक्षा में असफलता का मुख देखना पड़ा। कारण स्पष्ट है कि चन्द्रमा में शनि की अन्तर्दशा का चलना।  मेरी उपर्युक्त शिक्षा प्राप्ति की यात्रा से यह स्पष्ट होता है कि समय-समय पर विभिन्न प्रकार के ग्रह अपनी महादशा, अन्तर्दशा एवं प्रत्यन्तर दशा में अलग-अलग ढंग से प्रेरित करते हैं और शिक्षा का क्षेत्रा कैसे बदलता रहता है। शिक्षा में कैसे बाधाएं आती हैं। निष्कर्षतः मैं यह कह सकता हूं कि किसी भी कुंडली से शिक्षा कैसी और किस विषय की होगी, यह सब अध्ययन करके जान सकते हैं।

बुधवार, अगस्त 25, 2010

समय का प्रबन्धन करें!



आप किसी से भी बात करने का प्रयास करेंगे तो आपको महसूस होगा कि वे सब बहुत व्यस्त हैं। किसी से काम की बात करेंगे तो उत्तर मिलेगा-अभी नहीं, अभी समय नहीं है। यह अच्छी बात है कि सभी व्यस्त रहें, कोई खाली न रहे। लोग दिनभर भागते रहते हैं और सायं तक हंसने-खेलने का समय तक नहीं है। कार्य फिर भी अधूरे हैं और हर समय समय की कमी रहती है। समयानुरूप प्रतिदिन सफल और सुखी होना है तो इसका सरल उपाय है-समय का प्रबन्धन। अपने समय का प्रबन्धन करना ही सफल होने का सरल सूत्र है। एक सप्ताह में जो भी कार्य आपको करने हैं उसकी समय-सूची बना लें। यह सूची आपकी मार्गदर्शिका होगी। आपको तो इस सूची के अनुरूप अपने कार्यों को करना है। इसमें लक्ष्य की पूर्ति और समय बचाने का पूर्ण प्रयास भी करना है। सही बात तो यह है कि हम लोग अनजाने में समय व्यर्थ करते रहते हैं। इसका अनुमान आपको होने लगेगा जब आप इस सूची के अनुरूप प्रयास करेंगे। यह समझ लें कि बीता समय कभी वापिस नहीं आता है। हमें यह ध्यान रखना है कि दिन भर के 24 घंटे या 1440मिनट किसी भी प्रकार से व्यर्थ न जाएं। सभी को दिन-रात में 24घंटे ही मिलते हैं। आज मनोरंजन के रोग ने समय के महत्व को इतना घटा दिया है कि जीवन के शेष ध्येय गौण लगने लगे हैं। सभी हर समय सुविधा और मनोरंजन चाते हैं, जबकि सफल जीवन के लिए ये दोनों ही सबसे बड़ी बाधाएं हैं।  समय के प्रबन्धन से तात्पर्य यह है कि महत्वहीन कार्यों में समय न गंवाना और जो करना है उसको समयानुरूप लक्ष्य के अनुसार करना। मूलतः हमे वही करना, सुनना, पढ़ना और देखना चाहिए जो लक्ष्य की पूर्ति में सहायक हो। ऐसा करने पर समय कम नहीं रहेगा और सदैव आपके पास बचा रहेगा।
ऐसे में आप समय के प्रबन्धन से आसानी से सफलता की सीढ़ियां चढ़ सकेंगे। प्रत्येक सफल व्यक्ति की सफलता का रहस्य सफलता का प्रबन्धन ही है।

सोमवार, अगस्त 23, 2010

विद्वान



अदित्सन्तं दापयति प्रजानन्‌। -यजुर्वेद 9.24
विद्वान अदाता को दान देने के लिए प्रेरित करते है।
जो बुद्धिमान है वही विद्वान है। विद्वान सदैव प्रेरक का कार्य करते हैं और कुकर्म में रत रहने वालों को भी सुकर्म करने की प्रेरणा देते रहते हैं। अदाता दानी नहीं होता है और विद्वान सदैव दानी होता है, उसे दान देने के सदुपयोग का भान है। इसलिए वह अदाता को भी दान की प्रेरणा देकर समाज का हित करता है।
 विद्वान की प्रेरणा सबने मानी। अदाता का चित भी बने दानी॥

शनिवार, अगस्त 21, 2010

टैरो कार्ड से भविष्य कैसे जानें-डॉ.कथूरिया शिवानी(भाग-21)



टैरो कार्ड से भविष्य कैसे जाने के अन्तर्गत माइनर अर्काना के 56 कार्डस्‌ की चर्चा करेंगे। सर्वप्रथम छड़ियां के 14 कार्डों की चर्चा करेंगे जोकि पृच्छक की महत्त्वकांक्षा और विचारों को दर्शाते हैं जोकि भविष्य में बड़ा परिवर्तन लाने वाले हैं। कार्डस के इस समूह में 14 कार्डस होते हैं। इसमें से दस छड़ी तक एवं छड़ी के पेज के कार्डस्‌ की चर्चा अंक 79 तक कर चुके हैं। अब शूरवीर की छड़ी(Knight of wands)के कार्ड की चर्चा करेंगे।
शूरवीर की छड़ी का कार्ड
इस कार्ड में घोड़े पर एक शूरवीर है जिसके हाथ में छड़ी है। इसमें आक्रामकता व अत्यधिक आवेग परिलक्षित होता है। आप उत्सुक एवं ऊर्जावान्‌ है, धैर्य की कमी है, जल्द गर्म हो जाते है। आपमें साहस की भावना है। गर्व से आगे बढ़ने की भावना है। युवा लोगों की सोच या प्रश्न के भाव को दर्शाता है। यह कार्ड अधीर, जीवंत, तर्क, आक्रामकता, आशावाद, अन्वेषण, आवेग, बेचैनी, साहस, आवेश, ऊर्जा, लचीला अन्तर्ज्ञान, अति उत्साह या गुस्सा को दर्शाता है। 
कार्ड रीडिंग में यह कार्ड आए तो उसके दोनों अर्थ बतलाते हैं। 
सीधा कार्ड आए तो अर्थ यह है कि आप अत्यधिक आक्रामक एवं आवेगी हैं। आप जल्दी गर्म हो जाते हैं और आपमें धैर्य नहीं है। आप उत्सुक एवं ऊर्जावान्‌ है। आप दूसरों को आकर्षित करने में समर्थ हैं। कोई महत्वपूर्ण कदम उठाने के लिए तैयार हैं। आपमें रचनात्मक आवेग है या आध्यात्मिकता को सीख सकते हैं। गतिशील ऊर्जा आपको प्रेरणा देती है कुछ नया करने की। आप स्थान बदल सकते हैं, घर या देश भी बदल सकते हैं।

उल्टा कार्ड आए तो अर्थ यह है कि आप भावुक, आवेगी, अति क्रोधी हैं। अधिक उत्साह भी आपके लिए हानिकारक हो सकता है। वादविवाद  के कारण परेशानी में फंस सकते हैं। संकीर्ण मानसिकता के कारण कार्यों में देरी हो सकती है। यात्राा में देरी हो सकती है। रिश्ते खराब हो सकते हैं। आप अपनी परिस्थितियों को बदलने में असमर्थ पाएंगे। आप नियम व कानून आदि तक भूल जाते हैं। दुस्साहस व आवेग में कुछ ऐसा कर बैठते हैं जो आपको पूर्णतः हानि देता है। आप ऐसा न करें जो कि आपने पहले कभी नहीं किया, वरना आपको गतिशील ऊर्जा लाभ देती, पर यहां हानि हो सकती है।

उपाय के लिए यह करें। शांति की मोमबत्ती को सोमवार की प्रातः जलाएं। 
इसके लिए आप अपना पूरा ध्यान अपनी कामनाओं या कार्यों पर लगाएं जो पूरा करने चाहते हैं। यदि आप एकाग्र नहीं कर पा रहे हैं तो एक स्थान पर बैठकर तीन गहरी सांस लेकर छोड़ें। मन-मस्तिष्क एकाग्र करें। 
इच्छाओं पर ध्यान केन्द्रित करके मोमबत्ती जला दें।  मोमबत्ती पूरी जलने दें या  स्निफर से बुझा दें। 
हाथ से या फूंक मारकर कदापि न बुझाएं। 
सकारात्मक रहने पर कार्य बन जाएगा और नकारात्मक प्रभाव भी कम हो जाएगा।
अगले अंक में अन्य कार्डों की चर्चा करेंगे जिससे आप कार्ड रीडिंग करने में प्रवीण हो सकें। अधिक ज्ञान हेतु लेखिका की बेबसाइट पर सर्फ कर सकते हैं, जिसका पता है-http//www. the magickal moon.com. (क्रमशः)

शुक्रवार, अगस्त 20, 2010

पांच दोहे


आस रखता जो किसी से वो बने नहीं समर्थ।
राग रंग   में   डूबकर,  जीवन   जाता  व्‍यर्थ।।1।।
राग द्वेष  से  जो  बचा,  बन  गया  वो निर्झर।
कुछ  पाने  के  लिए रहो न किसी पर निर्भर।।2।।
मन की  बात कहो पर राज को समझो राज।
जीवन  में  सफलता  के लिए अनुपम साज।।3।।
राग द्वेष  औ'  मोह  तो   हैं   मनुज   के  दोष।
जब मिले न इनसे मुक्ति तो फिर कैसा रोष।।4।।
कभी  नहीं  अलापना  चाहिए  अपना  राग।
सुनता  न फिर कोई बात, समझ कर काग।।5।।

गुरुवार, अगस्त 19, 2010

गृह क्लेश मुक्ति का अनुभूत मन्त्र




उत्तराभिमुख आसन पर बैठ जाएं। यह प्रयोग रात्रि नौ बजे के उपरान्त और साढ़े ग्यारह बजे से पूर्व करना है। धूप व दीपक जलाकर 33 दिनों तक बिना नागा पांच माला प्रतिदिन करें। प्रयोग के उपरान्त तर्पण करें और ब्राह्मण को भोजन कराएं। दीपावली की रात्रि में 165 माला का जाप व एक माला का हवन करके सिद्ध करें और बाद में लिखकर देने से गृहक्लेश से मुक्ति मिलती है। मन्त्र इस प्रकार है-
ऊं दमयन्ती-नलाम्यां तु नमस्कारं करोम्यहम्‌। अभिवादो भवेदत्र कलिदोष प्रशान्तिदः॥
ऐकमत्यं भवेदेषां ब्राह्मणानां   पृथ्सग्‌धियाम्‌। निर्वैरता च जायेत संवादाग्ने प्रसीद में॥

बुधवार, अगस्त 18, 2010

श्रावणी कर्म-व्रतानन्द स्वामी



     श्रावणी कर्म का विशेष महत्व है। विप्रों को इस दिन सरोवर या नदी किनारे जाकर शास्त्रानुसार श्रावणी कर्म करना चाहिए।  पंचगव्य अर्थात्‌ गाय का दूध, गाय का घी, गाय का दही, गोबर एवं गोमूत्र पान करके शरीर को शुद्ध करके हवन करना उपाकर्म है। इसके उपरान्त जल के सम्मुख बैठकर सूर्य को प्रशस्ति करके अरुन्धती सहित सातों ऋषियों की अर्चना करके दही तथा सत्तू की आहुति देनी चाहिए। इसे उत्सर्जन कहते हैं। इसी दिन यज्ञोपवीत के पूजन का विधान है। पुराना यज्ञोपवीत उतार करके नया धारण करन इस दिन की श्रेष्ठता है। इस दिन उपनयन संस्कार करके विद्यार्थियों को गुरुकल या विद्यालय में विद्या या ज्ञानार्जन के लिए भेजा जाता है। यह कर्म श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को आरम्भ होता है।
    इस प्रकार श्रावणी के पहले दिन अध्ययन का श्रीगणेश होता है।  इस दिन रक्षाबन्धन भी होता है।
    इस दिन बहनें भाईयों रक्षासूत्र बांधकर तिलक करती हैं। राखी का वास्तविक अर्थ है कि हे भाई! जब तक मेरी बलिष्ठ कलाई में रक्त की अन्तिम बूंद भी है तब तक मेरी आपातकालीन स्थिति में सुरक्षा का दायित्व तुझ पर है।

मंगलवार, अगस्त 17, 2010

कर्मयोगी



अपांसि यस्मिन्नधि संदधुर्गिरस्तस्मिन्त्सुन्मानि यजमान आ चके।-ऋग्वेद 3/3
ज्ञानियों न जिसमें कर्म स्थापित किए, उसी में यज्ञ करने वाला सुखों को ढूंढता है।
जहां पर कर्म(यज्ञ) है वहां पर सुख है। आलस्य में जीवन का नाश है कर्म करने में ही जीवन का सच्चा सुख है। ज्ञानी अपने यज्ञ में ही सुख की तलाश करता है। कर्मयोगी बनें क्योंकि कर्म करने वाला निज कर्मों की प्रकृति के अनुरूप फल को अवश्य पाता है, इसलिए फल की चिन्ता के बिना ही कर्मरत्‌ रहना चाहिए। 
कार्य से करके प्रीति, सुख को वरो। आलस्य त्याग करके दुःख को हरो॥

सोमवार, अगस्त 16, 2010

विवेकी



नीर-क्षीर को अलग-अलग करने की सामर्थ्य जब आ जाती है तो मनुष्य विवेकी बन जाता है। विवेकी कीचड़ में पड़े रत्न को अग्राह्य न करके ग्रहण कर लेते हैं।-ज्ञानेश्वर

विवेक



1. पराक्रम के पार्श्व में छिपा प्रमुख लक्षण विवेक है। -शेक्सपियर
2. भौतिक बन्धन से मुक्त होने का उपाय है पूर्ण विवेक से काम लेना।-विनोबा भावे
3. विवेक सत्य संग मिलता है। -गेटे
4. उपासना के द्वारा विवेक उत्पन्न होता है, विवेकी होने से क्षणिक वस्तुओं से शोक और आनन्द ये दोनों नहीं होते हैं।-स्वामी दयानन्द सरस्वती
5. उड़ने की अपेक्षा जब हम झुकते हैं, तब विवेक के अधिक निकट होते हैं।-बर्ड्‌सवर्थ
6. अपने विवेक को अपना शिक्षक बनाओ। शब्दों का कर्म से और धर्म का शब्दों से मेल कराओ।-शेक्सपीयर
7. हंस दूध को निकाल लेता है और उसमें मिले हुए पानी को छोड़ देता है।-कालिदास
 8. गुण विवेकी के पास होते हैं।-ज्ञानेश्वर

शनिवार, अगस्त 14, 2010

माता-पिता



स्वस्ति मात्र उत पित्रो नो अस्तु॥ अथर्ववेद 1.31.4
हमारे माता और पिता के लिये सुख हो।
प्रातःकाल जब सोकर उठो तो सर्वप्रथम अपने माता-पिता को नमस्कार करो और उनका आशीर्वाद लो। ऐसे ही रात्रि के समय सोने से पूर्व करो। कभी भूलकर भी ऐसा कार्य न करो कि जिससे माता-पिता को दुःख या क्लेश हो। माता-पिता को सर्वाधिक सुख व आनन्द निज  सन्तान की कीर्ति से होता है।
माता-पिता को दोगे सुख। कभी न होगा तुमको दुःख॥

शुक्रवार, अगस्त 13, 2010

उत्तम गृह और ज्योतिष योग-डॉ. उमेश पुरी 'ज्ञानेश्वर' ( भाग एक )



मनुष्य का भाग्य जन्म लेते ही निर्धारित हो जाता है। ग्रह-दशा के परिवर्तन के साथ-साथ उनका भाग्य भी परिवर्तित होता रहता है। मनुष्य का जीवन भाग्य और वास्तु से प्रभावित होता है। दोनों का प्रभाव 50-50 प्रतिशत है। मनुष्य अपने भाग्य को तो बदल नहीं सकता परन्तु वास्तु की सहायता से निज प्रयत्नों को सफलता तक अवश्य पहुँचा सकता है। 
यदि मनुष्य का भाग्य उत्तम है और वास्तु दूषित है तो प्रयासों का परिणाय 50 प्रतिशत ही मिलेगा। यदि वास्तुदोष भी दूर हो जाए तो शत-प्रतिशत प्रयास सफल हो सकते हैं। 
यदि भाग्य निर्बल है और वास्तु दोष भी है तो सफलता मिलनी असंभव है। यदि वास्तु दोष दूर कर लें तो प्रयास 50 प्रतिशत सफल हो सकते हैं, जबकि भाग्य तो बदला नहीं जा सकता है।
वास्तु और ज्योतिष का सनातन सम्बन्ध है। यदि भवन वास्तु दोष युक्त हो और भाग्य भी निर्बल हो तो उसमें रहना कदापि उचित नहीं है क्योंकि उसमें रहने वाला व्यक्ति दुःखी, अशान्त और कंगाल हो सकता है।
यहां उन ज्योतिष योगों की चर्चा करेंगे जिनको अपनी जन्मकुण्डली में देखकर आप यह निश्चय कर सकेंगे कि भूमि प्राप्ति व भवन निर्माण का योग आपके भाग्य में है या नहीं। मनुष्य जीवन का सौभाग्य एवं सार्थकता उत्तम भवन निर्माण करना है। मनुष्य जीवन के पुरुषार्थ, पराक्रम एवं अस्तित्त्व की सर्वप्रथम पहचान उसके भवन से होती है।
जनसंख्या वृद्धि के कारण सभी भवन के स्वामी बन सकें यह संभव नहीं है। एक चौथाई जनसंख्या तो आवास विकास परिषद् द्वारा निर्मित घरों में रह रही है। कुछ भवनों के स्वामी सुखी व समृद्ध हैं तो कुछ के निर्धन एवं दुःखी। ऐसी जटिल परिस्थितियों में भवन-निर्माण संबंधी योगों पर ज्योतिषात्मक  चिन्तन करना जटिल है। लेकिन फिर भी हम यहाँ इसकी चर्चा करेंगे।
भूमि व भवन संबंधी मुख्य ज्योतिष ज्ञान
भूमि का कारक ग्रह मंगल है। जन्मपत्री का चौथा भाव भूमि एवं भवन से सम्बन्ध रखता है। उत्तम भवन की प्राप्ति के लिए चतुर्थश (चौथे भाव का स्वामी) की केन्द्र-त्रिकोण में स्थित होना अनिवार्य है।
यदि चौथे भाव का स्वामी उच्च, मूल त्रिकोण, स्वग्रही, उच्चाभिलाषी, मित्रक्षेत्री, शुभ ग्रहों से युत या दृष्ट हो तो निश्चित रूप से भवन का सुख मिलता है। 
जन्मपत्री में मंगल की स्थिति भी सुदृढ़ होनी चाहिए। चौथे भाव पर शुभाशुभ ग्रहों की दृष्टि, युति व प्रभाव का भी विश्लेषण करना होगा। चतुर्थ व चतुर्थेश का बली होना आवश्यक है तो लग्न व लग्नेश का सुदृढ़ होना भी अत्यावश्यक है। साथ-साथ दशमेश, नवमेश, व लाभेश का सहयोग भी आवश्यक है।
भवन प्राप्ति के ज्योतिष योग
अब यहाँ पर विभिन्न ज्योतिष योगों की चर्चा करेंगे जिन्हें आप अपनी जन्मकुण्डली में खोजकर यह जान सकेंगे कि भवन निर्माण या प्राप्ति का योग आपके भाग्य में है या नहीं।
स्व पराक्रम से निर्मित भवन प्राप्ति का योग
जन्मकुण्डली के चौथे भाव का स्वामी (चतुर्थेश) किसी शुभ ग्रह के साथ युति करके 1, 4, 5, 7, 9, 10वें भाव में हो तो ऐसे व्यक्ति को स्वश्रम से निर्मित उत्तम सुख-सुविधाओं से युक्त भवन प्राप्त होता है।
जन्मकुण्डली के चौथे भाव का स्वामी (चतुर्थेश) पहले (लग्न) भाव में हो और पहले (लग्न) भाव का स्वामी (लग्नेश) चौथे भाव में हो तो भी ऐसा व्यक्ति स्व पराक्रम व पुरुषार्थ से अपना घर (भवन) बनाता है।
बंगले का योग
जन्मकुण्डली के चौथे भाव में चन्द्र और शुक्र की युति हो या चौथे भाव में कोई उच्च राशिगत (उच्च राशि में स्थित ग्रह) हो, चौथे भाव का स्वामी केन्द्र-त्रिाकोण (1, 4, 5, 7, 9, 10वें) भाव में हो तो ऐसे व्यक्ति के पास अपना बंगला या महलनुमा भवन होता है जिसमें कलात्मक बगीचा व जलाशय होता है।
आकर्षक एवं सुन्दर भवन का योग
जन्मकुण्डली के चौथे भाव का स्वामी (चतुर्थेश) एवं दसवें भाव का स्वामी (दशमेश) चन्द्रमा और शनि से युत हो तो ऐसे व्यक्ति का भवन दूजों से अलग, सुन्दर आकर्षक एवं नूतन साज-सज्जा से युक्त होता है।
अनायास दूजों द्वारा निर्मित भवन प्राप्ति का योग
जन्मकुण्डली के चौथे भाव का स्वामी (चतुर्थेश) एवं पहले (लग्न) भाव का स्वामी (लग्नेश) चौथे भाव में हो तो ऐसे व्यक्ति को अचानक भवन की प्राप्ति होती है जोकि दूजों द्वारा निर्मित होता है।
एक से अधिक भवनों का योग
जन्मकुण्डली के चौथे भाव में या चौथे भाव का स्वामी चर राशि (मेष, कर्क, तुला, मकर) में हो और चौथे भाव का स्वामी शुभ ग्रहों से युत या दृष्ट हो तो ऐसा व्यक्ति अनेक भवनों में रहता है और उसे अनेक भवन बदलने पड़ते हैं। यदि चर की जगह स्थिर राशि (वृष, सिंह, वृश्चिक, कुंभ) हो तो व्यक्ति के पास स्थायी भवन होते हैं। 
जन्मकुण्डली के चौथे भाव का स्वामी (चतुर्थेश) बली हो तथा लग्न (पहले) का स्वामी, चौथे भाव का स्वामी, दूसरे भाव का स्वामी इन तीनों में से जितने ग्रह केन्द्र-त्रिकोण (1, 4, 5, 7, 9, 10) भाव में हो उतने भवन होते हैं।
भवन, वाहन व नौकर प्राप्ति का योग
जन्मकुण्डली में नौवें भाव का स्वामी दूसरे भाव में और दूसरे भाव का स्वामी नौवें भाव में स्थित हो अर्थात्‌ परिवर्तन योग हो तो ऐसे व्यक्ति का भाग्योदय बारहवें वर्ष में होता है और 32वें वर्ष के उपरान्त उसे वाहन, भवन और नौकर का सुख मिलता है।(क्रमशः)
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बुधवार, अगस्त 11, 2010

सेवा-ज्ञानेश्वर



एक तपस्वी के दो शिष्य थे।  दोनों ईश्वर भक्त थे। ईश्वर उपासना के उपरान्त वे दोनों आश्रम में आए रोगियों, दीन-दुखियों व पीड़ितों की सेवा करने में सहायता करते थे। एक दिन की बात है कि जब उपासना का समय चल रहा था और ऐसे में एक पीड़ित जिसको बहुत कष्ट हो रहा था, आश्रम में आ पहुंचा।
गुरु ने उसको देखा तो उन्होंने अपनी सहायता के लिए अपने शिष्यों को बुला भेजा।
    शिष्यों ने कहला भेजा-'उपासना समाप्त होते ही आ जाएंगे।'
    गुरु जी ने दुबारा बुलावा भेजा।
    इस बार शिष्य आ गए। लेकिन उन्हें अचानक बुलाए जाने का रोष एवं अधैर्य उनके चेहरे से प्रकट हो रहा था।
गुरु जी ने उनकी ओर उन्मुख होकर कहा-'मैंने तुम दोनों को इस व्यक्ति की सेवा के लिए बुलाया था। ये बेचारा कष्ट में है।'
शिष्यों के चेहरे से अधैर्य व रोष समाप्त नहीं हुआ तो गुरु जी बोले-'वत्स! प्रार्थनाएं तो देवता भी कर सकते हैं। किन्तु अकिंचनों की सहायता तो मनुष्य ही कर सकते हैं। सेवा प्रार्थना से अधिक ऊंची है क्योंकि देवता सेवा नहीं कर सकते है। अकिंचनों की सेवा ही ईश्वर की सच्ची उपासना है।

मंगलवार, अगस्त 10, 2010

टायफाइड रोग व निदान-डॉ. सत्‍येन्‍द्र तोमर



आन्त्रिक ज्वर को मंथर ज्वर, मोतीझरा, मौक्तिक ज्वर या टायफाइड फीवर भी कहते हैं। इसमें ऐसा बुखार होता है जो सात, दस या बारह दिन तक बिना उतरे बना रहता है, प्लीहा वृद्धि, त्वचा पर छोटी-छोटी लाल रंग की पीडिकायें, पेट दर्द, अफारा आदि लक्षण रहते हैं। इसमें छोटी आंत में सूजन व घाव भी हो जाते हैं।
रोग क्यों होता है?
यह रोग Bacilus-Typhosus के कारण उत्पन्न होता है। इस ज्वर से पीड़ित रोगी के मल-मूत्र में इसके कीटाणु रहते हैं। ये कीटाणु जल या खाद्य पदार्थों में पहुंचकर अन्य व्यक्ति को भी इस रोग से संक्रमित करने का खतरा पैदा कर देते हैं। ये कीटाणु मल में अधिकतम पन्द्रह दिन तक जीवित रह सकते हैं। अमाशय में स्थित अम्ल से ये कीटाणु मर जाते हैं परन्तु जब इसका वेग अधिक होता है तब ये अम्ल से भी नहीं मर पाते और कृमि संख्या में बढ़कर ज्वर एवं छोटी आंत में सूजन व घाव उत्पन्न कर देते हैं। साथ-साथ एक प्रकार का विष का उत्सर्ग भी करते हैं जिससे ज्वर आदि के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं।
रोग के लक्षण
इस रोग के लक्षण इस प्रकार हैं-
1. ज्वर क्रमशः बढ़ता है। ज्वर बिना शीत के आता है। प्रथम सप्ताह में ज्वर प्रतिदिन बढ़ता है। इसमें ज्वर कभी भी पूरा नहीं उतरता है। प्रातःकाल में ज्वर घटता है और सायंकाल में बढ़ता है। दूसरे सप्ताह में ज्वर स्थिर रहता है। यह बुखार 104 फारनहाईट तक बढ़कर उतरता है और पुनः 104 पर पहुंच जाता है। तीसरे सप्ताह में ज्वर धीरे-धीरे उतरता है। यदि ज्वर न घटे तो रोगी की स्थिति चिन्ताजनक बन जाती है और रोना, कंप, अनियन्त्रित मल मूत्र त्याग, मूत्रावरोध, विषमयता आदि उपद्रव हो जाते हैं। आधुनिक काल में Chloromycetin की गोली देकर ज्वर को प्रथम सप्ताह में ही ठीक कर लिया जाता है। 
2. श्वास और नाड़ी की गति का अनुपात बदल जाता है। एक डिग्री बुखर बढ़ने पर नाड़ी की गति में 10 की वृद्धि हो जाती है। श्वसन की गति में 4 की वृद्धि का सामान्य नियम है। इस बुखार में नाड़ी की गति तापमान के अनुपातानुसार नहीं बढ़ती है। 
3. जीभ गन्दी, रूक्ष, सफेद तथा अग्रभाग एवं प्रान्त भाग लाल रंग का हो जाता है।
4. प्रायः 7से12दिन में त्वचा पर गुलाबी दाने निकलते हैं जोकि छाती के आसपास दिखाई पड़ते हैं और स्वतः मिट जाते हैं।
5. अफारा, यकृत प्लीहा वृद्धि, दुर्बलता, सिरदर्द आदि लक्षण दिखाई पड़ते हैं।
6. रक्त परीक्षण कराने पर श्वेतकणों (Leucocytes) की संख्या प्राकृत से भी कम मिलती है और Lymphocytes की संख्या अनुपात  से अधिक हो जाती है। दूसरे सप्ताह में Widol Test में यह रोग पूर्णतः ठीक मिलता है।  
7. 5-7 प्रतिशत रोगियों में तीसरे या चौथे सप्ताह में रक्तस्राव होता है। आन्त्रगत रक्त-वाहनियों के फटने के कारण यह रक्तस्राव होता है। 4 प्रतिशत रोगियों में आंत के फटने का उपद्रव मिल सकता है।
8. इस रोग के प्रभाव से कभी-कभी फेफड़ों में मवाद भी पड़ जाता है। गर्भिणी का गर्भपात भी इस रोग के कारण हो जाता है। अतिसार, अफारा, पित्ताशय में सूजन व शय्‌या व्रण भी हो जाते हैं।
रोग की चिकित्सा
रोगी को स्वच्छ हवादार कमरे में रखें। शारीरिक व मानसिक रूप से पूर्ण आराम दें। लघु व पौष्टिक आहार देना चाहिए। दूध व मौसम्मी का रस दें। त्रिभुवन कीर्तिरस, लक्ष्मीविलास रस, सूत शेखर रस, शंख, गोदन्ती का मिश्रण करके देना चाहिए। टायफाइड का निदान होने पर उसे तुरन्त रोकने का उपाय करना चाहिए व क्लोरोमाइसटीन वैद्य की सलाह पर लेनी चाहिए।

भाव-ज्ञानेश्वर



'सदैव अमृतमयी चिन्तन करने से विष भी अमृत हो जाता है और सदा मित्र भाव से चिन्तन करने से शत्रु भी मित्र हो जाता है। भावना के अनुरूप फल की प्राप्ति होती है।'

सोमवार, अगस्त 09, 2010

भावना



1. काम से अधिक काम के पीछे की भावना का महत्व होता है। जो काम शुद्ध हृदय से होता है, वह देखने में छोटा भले ही हो परन्तु उसका फल बड़ा ही महत्वपूर्ण होता है। बड़े से बड़ा कार्य अगर हीन आदर्श लेकर किया जाए तो उसकी कोई बड़ी कीमत नहीं हो सकती है।-राजेन्द्र प्रसाद
2. जहां जैसी हमारी मानसिक भावना रहती है, वहां परमेश्वर हमारे लिए उसी रूप में प्रकट हो जाते हैं।-विनोबा भावे
3. जिन्हके रही भावना जैसी। प्रभु मूरति देखी तिन तैसी॥ -तुलसीदास
4. मन्त्र, तीर्थ, ब्राह्मण, देवता, ज्योतिषी, औषध, और गुरु में जैसी भावना होती है, वैसी ही सिद्धि मिलती है।-पंचतन्त्र
 5. भावना मार भी सकती है, जिला भी सकती है।-कहावत

दृष्टिकोण -सत्यज्ञ



जंगल में एक आकर्षक भवन था। एक साधु ने उसे देखा और सोचा, कितना सुन्दर स्थान है। यहां बैठकर ईश्वर का ध्यान करूंगा।
   एक चोर ने उस भवन को देखा और सोचा, वाह यह तो बहुत अच्छी जगह है। चोरी का सारा सामान यहीं लाकर छिपांऊगा।
एक जुआरी ने देखा और सोचा, अपने साथियों को यहां लाकर उनके साथ जुआ खेलूंगा।
साधू, चोर और जुआरी का अलग-अलग दृष्टिकोण होने के कारण एक ही भवन को प्रत्येक ने अलग-अलग रूप से देखा। 
जैसा दृष्टिकोण बनाओगे, वैसा ही अन्तःकरण बनेगा। अगर तुम चाहते हो कि तुम्हारा अन्तःकरण अच्छा हो तो दृष्टिकोण भी अच्छा बनाओ। दृष्टिकोण से अच्छा-बुरा प्रकट होता है। भावना शुद्ध ही होनी चाहिए तभी महत्ता बनती है। दृष्टिकोण व भावना को लेकर ही किसी कवि ने कहा भी है-
सब जग ईश्वर रूप है, भलो बुरो नहीं कोय।
जैसी  जाकी  भावना, तैसा  ही  फल होय॥   

रविवार, अगस्त 08, 2010

गोचर विचार में नक्षत्र फल कैसे विचारें?-सत्यज्ञ




    गोचर विचार करते समय जन्मराशि या जन्मलग्न से द्वादश भावों में सूर्यादि नौ ग्रहों के परिभ्रमण को दृष्टिग्रत रखकर ही फलादेश किया जाता है। यदि सूक्ष्म गोचर फलादेश कहना है तो जन्म नक्षत्र से गोचर वश ग्रहों का 27 नक्षत्रों में भ्रमण को भी ध्यान में रखना होगा।
जन्म नक्षत्र पर कोई ग्रह आने से वह नक्षत्र प्रथम कहलाता है, उससे अगले पर जाने से दूसरा, दूसरे से अगले नक्षत्र पर जाने से तीसरा आदि कहा जाता है। इसी प्रकार 27 नक्षत्रों पर क्रमशः जानना चाहिए। अब यहाँ पर 27 नक्षत्रों पर सूर्यादि नौ ग्रहों के परिभ्रमण से जो प्रभाव पड़ता है उसे उपयोगार्थ दे रहे हैं।
सूर्य ग्रह का नक्षत्र-फल
सूर्य ग्रह जन्म नक्षत्र से 1 पर नाश, 2रे से 5वें तक धनलाभ, 6ठे से 9वें तक कार्यसिद्धि, 10वें से 13वें तक धनलाभ, 14वें से 19वें तक भोगोपभोग के साधनों में वृद्धि, 20वें से 23वें तक शारीरिक कष्ट, 24वें से 25वें तक लाभकारी एवं 26वें व 27वें नक्षत्र में मृत्यु भय कराता है।
चन्द्र ग्रह का नक्षत्र-फल
जन्म नक्षत्र से चन्द्र 1ले व 2रे हो तो भयभीत करता है, 3रे व 6ठे हो तो प्रसन्नचित व सकुशल रखता है, 7वें व 8वें पर हो तो विरोधियों पर विजय दिलाता है, 9वें व 10वें पर हो तो आर्थिक सम्पन्नता, 11वें से 15वें तक मनोविनोद के कार्यों में संलग्न कराता है, 16वें से 18वें तक वाद-विवाद, झगड़ा या मारपीट कराता है एवं 19वें से 27वें तक धनलाभ कारक है।
मंगल ग्रह का नक्षत्र फल
जन्म नक्षत्र से मंगल ग्रह 1ले व 2रे नक्षत्र पर होने से दुर्घटना कराता है, 3रे से 8वें होने पर वाद-विवाद एवं कलह कराता है, 9वें से 11वें होने पर कार्य में सफलता दिलाता है, 12वें से 15वें होने पर धनहानि कराता है, 16वें से 17वें होने पर आर्थिक लाभ होता है, 18वें से 21वें तक होने पर मन में भय व्याप्त रहता है, 22वें से 25वें तक होने पर सुख में वृद्धि होती है एवं 26वें व 27वें नक्षत्र पर होने से यात्रा योग बनता है।
बुध, गुरु एवं शुक्र ग्रह का नक्षत्र-फल
जन्म नक्षत्र से बुध, गुरु एवं शुक्र ग्रह 1ले से 3रे नक्षत्र पर होने से चिन्ताकारक, 4थे से 6ठे होने पर आर्थिक लाभ, 7वें से 12वें होने पर अनिष्टकारी, 13वें से 17वें होने पर आर्थिक सम्पन्नता, 18वें से 19वें होने पर कष्टकारी एवं 20वें से 27वें होने पर यश और लाभ में वृद्धि होती है।
शनि, राहु एवं केतु ग्रह का नक्षत्र-फल
जन्म नक्षत्र से शनि, राहु एवं केतु 1ले होने पर कष्टकारी, 2रे से 5वें होने पर सुखकारी, 6ठे से 8वें होने पर यात्रा कारक, 9वें से 11वें होने पर सर्व प्रकार से हानि एवं कष्ट, 12वें से 15वें होने पर सर्व प्रकार से उन्नति, 16वें से 20वें होने पर भोगोपभोग के साधन बढ़ते हैं, 21वें से 25वें होने पर सर्व कार्यसिद्धि होती है और 26वें व 27वें होने पर राज्य भय या शत्रु भय रहता है।

शनिवार, अगस्त 07, 2010

शंख रहस्य -व्रतानन्द स्वामी



    शंख का हमारी पूजा से निकट का सम्बन्ध है। कहा जाता है कि शंख का स्पर्श पाकर जल गंगाजल के सदृश पवित्र हो जाता है। मन्दिर में शंख में जल भरकर भगवान की आरती की जाती है। आरती के बाद शंख का जल भक्तों पर छिड़का जाता है जिससे वे प्रसन्न होते हैं।
उड़ीसा में जगन्नाथपुरी शंख-क्षेत्र कहा जाता है क्योंकि इसका भौगोलिक आकार शंख सदृश है। शंख की उत्पत्ति संबंधी पुराणों में एक कथा वर्णित है। सुदामा नामक एक कृष्ण भक्त पार्षद राधा के शाप से शंखचूड़ दानवराज होकर दक्ष के वंश में जन्मा। अन्त में विष्णु ने इस दानव का वध किया। शंखचूड़ के वध के पश्चात्‌ सागर में बिखरी उसकी अस्थियों से शंख का जन्म हुआ और उसकी आत्मा राधा के शाप से मुक्त होकर गोलोक वृंदावन में श्रीकृष्ण के पास चली गई। 
विज्ञान के अनुसार शंख समुद्र में पाए जाने वाले एक प्रकार के घोंघे का खोल है जिसे वह अपनी सुरक्षा के लिए बनाता है। 
शंख के उदर के आधार पर इसके दो भेद हैं-दक्षिणावृत्त और वामवृत्तका।

शंख का उदर दक्षिण दिशा की ओर हो तो दक्षिणावृत्त और जिसका उदर बायीं ओर खुलता हो तो वह वामावृत्त शंख है। 
    दक्षिणावृत्त शंख घर में होने पर लक्ष्मी का घर में वास रहता है। 
    जो भगवान्‌ कृष्ण को शंख में फूल, जल और अक्षत रखकर मुझे अर्ध्य देता है, उसको अनन्त पुण्य की प्राप्ति होती है। 
    शंख में जल भरकर ऊं नमोनारायण का उच्चारण करते हुए भगवान्‌ को स्नान कराने से पापों का नाश होता है।

शुक्रवार, अगस्त 06, 2010

अम्लपित्त रोग में यौगिक चिकित्सा-राजीव शंकर माथुर



अम्लपित्त का रोग आम हो गया है। इस रोग के रोगी को छाती में जलन व खट्टी डकारें आती हैं। कई बार मुहँ में खट्टा पानी आ जाता है। इस रोग को दूर करने में कुंजल क्रिया रामबाण है। पुराने अम्लपित्त में कुछ को पतले दस्त, उल्टी या कब्ज हो जाता है। उनकी जीभ का स्वाद ठीक नहीं रहता है। पेट फूला रहता है।
इस रोग का मूल कारण अधिक मिर्च-मसालेदार व तला भुना भोजन, मिठाई, मैदे की बनी वस्तुएं, मांस आदि खाना है। फ्रिज में रखा कई दिनों का भोजन खाना, बार-बार खाते रहना, बिना भूख के भोजन खाना, अनियमित भोजन खाने की आदत होना,  भोजन का समय नियत न होना और अति ठंडा भोजन खाना है। जब भोजन नहीं पचता है तो अम्लीय विष शरीर के पाचन तन्त्राों को हानि पहुंचाता है। बार-बार खाने की आदत से पाचक रस  बार-बार निकलता है। गैस्ट्रिक जूस अधिक निकलने से अर्थात्‌ अधिक अम्ल बनने से संग्रहणी व अल्सर जैसे भयंकर रोग हो जाते हैं। अतः इन सब कारणों से बचने का प्रयास करना चाहिए।
पेट में गुड़गुड़ाहट, बेचैनी, घबराहट, छाती में जलन आदि लक्षणों से युक्त अनेक रोगी खान-पान के परिवर्तन से ठीक हो जाते हैं। इसके लिए इन नियमों को अपनाना चाहिए-
1. दिन में एक बार भोजन करें। भोजन से पूर्व सलाद खाएं। भोजन में रोटी और उबली सब्जी खाएं। अनानास का रस पीएं। भोजन से 10-15 मिनट पूर्व एक कप गुनगुना पानी पीना चाहिए।
2. पश्चिमोत्तानासन, पवनमुक्तासन, योग मुद्रा, मयूरासन तथा सर्वांगासन  आदि आसनों को चार-पांच बार करें।
3. सरसों का तेल पैरों के तलवों पर मलें।
4. मूंग दो भाग, चावल एक भाग मिलाकर खिचड़ी बनाकर पौदीने की चटनी से खाएं।
5. सौंफ को पानी में पकाकर ठंडा करके छान कर थोड़ा-थोड़ा पीएं।
6. आड़ू, खरबूजा, ककड़ी की सब्जी, खीरे का रायता भोजन में लें।
7. रेशेदार आहार अधिक खाएं।
8. दूसरी बार भोजन तब तक नहीं करना चाहिए जब तक कि पहला भोजन पच नहीं जाए। एक भोजन से दूसरे भोजन के मध्य कुछ न खाएं या बार-बार न खाएं। 
9. भोजन समय पर खाएं उसकी अनियमितता से बचें। जो समय निश्चित है उसी समय खाएं। भूख लग नहीं रही है तो भी खाएं और कम खाएं। 
10. सलाद का अधिक प्रयोग करें। 
11. भोजन में एक समय केवल फल का सेवन करें। 
12. चिकनाई कम खाएं। 
13. दाल, मिर्च, खटाई का परहेज करें। खट्टी चीजें व दूध का प्रयोग बन्द कर दें।
14. पौदीने की चाय लें।
15. भोजन के उपरान्त वज्रासन में दस मिनट तक बैठने का अभ्यास करें।
16. नारियल पानी, गाजर का रस या चौलाई का रस लें।
17. बिना नमक डाले गुनगुने पानी से एक महीना लगातार कुंजल क्रिया करें।
इससे अम्लपित्त रोग से मुक्ति मिलती है।

गुरुवार, अगस्त 05, 2010

डेंगू रोग व निदान -डॉ. सत्येन्द्र तोमर



डेंगू बुखार को हड्डी तोड़ बुखार भी कहते हैं। इस बुखार में अस्थियों, उनकी सन्धियों में तीव्र वेदना एवं बुखार होता है। यह स्टेगोमिया फेसियाटा नामक मच्छर के काटने से मनुष्य के शरीर में कीटाणुओं का संक्रमण होन से दण्डक ज्वर होता है।
इन कीटाणुओं का प्रभाव रस, रक्त, लसीका, यकृत, प्लीहा तथा लसिका ग्रन्थियों पर पड़ता है।
रोग के लक्षण
इस रोग के आक्रमण पर निम्न लक्षण मिलते हैं-
1. ज्वर कुछ घंटों में ही 104 फारनहॉईट तक चढ़ जाता है।
2. इसमें ज्वर चढ़ता है और उतर जाता है, परन्तु पुनः चढ़ जाता है।
3. प्रायः सात दिन में ज्वर ठीक हो जाता है।
4. हाथ, पैर, सिर, कमर तथा आंखों में तीव्र पीड़ा होती है।
5. शरीर पर छोटे व गुलाबी रंग के दानें हो जाते हैं तथा अपने आप शान्त हो जाते हैं।
6. नाड़ी मन्द चलती है।
7. दुर्बलता, निद्रा नाश, क्षुधा नाश आदि लक्षण भी पाये जाते हैं।
8. यह रोग आसाम, बंगाल, मद्रास तथा मुंबई में अधिक पाया जाता है।
रोग की चिकित्सा
इस रोग के लक्षण जब मिल जाएं तो इस प्रकार औषधि सेवन करना चाहिए-
1. विषम ज्वरान्तक लौह, त्रिभुवन कीर्ति रस, शुष्ठी, श्रृंग, शतावरी, आरोग्यवर्धिनी के सेवन से लाभ होता है।
2. चन्द्र प्रभावटी, आम पाचनवटी तथा गुग्गुल का प्रयोग भी कर सकते हैं।
3. रोगी को पूर्ण आराम तथा लघु व पौष्टिक आहार देना चाहिए।
4. हिंगुलेश्वर रस 120मिग्रा. और शुष्ठी चूर्ण 360ग्राम मिलाकर दिन में चार बार गर्म पानी से देना चाहिए।

बुधवार, अगस्त 04, 2010

पिरामिड ऊर्जा कितनी लाभदायक -डॉ. उमेश पुरी 'ज्ञानेश्वर'



पिरामिड की चर्चा अधिकाशंतः सुनने में आती है। आजकल पायरा वास्तु का प्रचलन भी हो गया है। पिरामिड क्या है और इसका क्या उपयोग है, यह विचार मन रह-रहकर उठता है। यह जानने के लिए ही पिरामिड की चर्चा करते हैं और यह बताने का प्रयास करेंगे कि आप जान सकें कि इसका क्या लाभ है।
भारतीय ऋषि-मुनियों ने यह सिद्ध किया कि एक सरल या मामूली आकार या ज्यामिति रचना अपने भिन्न केन्द्रों से ऊर्जा तथा प्रकाश का प्रसार करती है। अब चाहे वह एक त्रिभुज, वर्ग, पंचभुज या षष्ठभुज हो। इसी आधार पर यन्त्र बनाए गए। कहते हैं कि सर्वाधिक ऊर्जा एक त्रिभुज तथा उसके केन्द्रों से उपजती है। इसी कारण त्रिभुज को शक्ति का स्रोत माना गया।
पिरामिड का शाब्दिक अर्थ है पिरा (Pyra)  एवं मिड (Mid) में संधि विच्छेद कर इसका अर्थ दिया है त्रिकोणाकार ऐसी वस्तु, जिसके मध्य में ऊर्जा के स्रोत का निर्माण होता है। मिस्रवासी पिरामिडों को ईसा पूर्व 2600 वर्ष पुराना मानते हैं। मिश्र वासियों ने इस शक्ति को पिरामिड के रूप में प्रयोग में लाकर लाभ उठाया और शवों को ममी के रूप में इसमें कई सौ वर्षों तक सुरक्षित रखा।
पिरामिड के भीतर ऊर्जा क्षेत्र 
पिरामिड 'आकाश तत्व' के अंतर्गत आकाश ऊर्जा (Space Energy)में आता है और इसीलिए इसका  घर में आकाश तत्व को बढ़ाने के लिए इसको उपयोग में लिया जाता है। 
पिरामिड कभी ठोस नहीं होता। पिरामिड तो पृथ्वी पर भार हैं। उनका कोई महत्व नहीं। ऐसे तो बड़े-बड़े तिकोने पर्वत पृथ्वी पर खडे हैं। उनमें कोई चमत्कार नहीं। पिरामिड का असली संबंध तो अंदर के रिक्त स्थान (Space) आकाश तत्व एवं उसमें प्रवाहित होने वाली ऊर्जा से है। फिर पिरामिड ज्यामितीय सिद्धांतों एवं वास्तु सिद्धांतों पर खरे उतरने चाहिएं। तभी उनमें चमत्कारी शक्ति आएगी।
पिरामिड के अंदर गहन शक्ति का अनुभव होता है। पिरामिड की ऊर्जा, भूगर्भ के चारों कोनों की चार भुजा से उर्वगामी होती है तथा पिरामिड का शक्ति बिंदु ऊपरी नोक की ओर बढ़ता है। उधर सूर्य की ऊर्जा पिरामिड की ऊपरी नोक से नीचे की ओर उतरती है। इस प्रकार से पिरामिड ऊर्जा भूगर्भ एवं ऊपर आकाश द्वारा दोनों ओर से संपादित होती है।
पिरामिड के चार त्रिभुज चहुं ओर ऊर्जा का प्रसार करते हैं।  वर्गाकार नींव भी ऊर्जा का प्रसार करती है। पिरामिड की बनावट के कारण सूर्य प्रकाश या कोई भी प्रकाश उसके धरातल पर पड़कर उसके आरपार हो जाता है। पृथ्वी के धरातल पर अपना बल है और वहां पृथ्वी का चुम्बकीय क्षेत्रा भी है।
 यदि पिरामिड में मंत्र प्रतिष्ठित लक्ष्मी यंत्र स्थापित किया जाए और उसे तिजोरी, गल्ले के ऊपर रखा जाए तो चमत्कारी रूप से धन की वृद्धि होती है। यदि यह कूर्मपृष्ठीय या मेरूपृष्ठीय हो, तो शत-प्रतिशत काम करता है। 
असली पिरामिड बड़े-बड़े पत्थरों से मृत शरीर को सुरक्षित और फ्रिज रखने के लिए बनाये जाते हैं। ये एक प्रकार से आवासीय मकान की तरह होते हैं। पर छोटे पिरामिड यंत्र भारतीय पद्धति से मंत्र एवं तंत्र शक्ति के माध्यम से बनाये जाते हैं। ये मन्त्रों  से प्राण प्रतिष्ठित होते हैं। अतः ये छोटे होते हुए भी चमत्कारी शक्ति से ओतप्रोत और बड़े प्रभावशाली होते हैं। ये पिरामिड प्रायः धातु के होते हैं।  
कागज और प्लास्टिक के पिरामिड चैतन्य शक्ति से युक्त नहीं हो सकते। लकड़ी के पिरामिड भी काम में लिए जा सकते हैं? परतुं शास्त्र सम्मत पवित्र वृक्षों की लकड़ियां ही पिरामिड हेतु उपयोग में लायी जा सकती है, निंदित वृक्ष नहीं।  मिश्र में लकड़ी के पिरामिड नहीं बनाए जाते थे। इसका कारण यह है कि वहां संपूर्ण रेगिस्तान है। वर्षा होती ही नहीं। अतः वृक्षों की बाहुल्यता है ही नहीं। आज भी वहां का 97 प्रतिशत भूभाग रेगिस्तान है। लकड़ी का आयुष्य धातु की तुलना में नगण्य है। फिर लकड़ी सड़ जाती है। इसमें कीड़े लग जाते हैं। इसमें कीडे लगने से इसका चूर्ण बन जाता है। अतः लकड़ी के पिरामिडों का विकृत होने का खतरा बना रहता है। लकड़ी वर्षा ऋतु एवं सूर्य की प्रचंड गर्मी दोनों को धारण करने में ज्यादा सक्षम नहीं होती। फिर यह कुसंचालक (Non-conductor of Electricity) होती है। अतः इसकी नोक (Pyramid top) से सूर्य की ऊर्जा रश्मियां शीघ्रता से पिरामिड के भीतरी भाग में प्रवेश नहीं कर पाती, जबकि धातु एवं पत्थर सूर्य की ऊर्जा रश्मियों के सुसंचालक होते हैं। 
पिरामड वस्तुओं को खराब होने से बचाता है। इसके लिए वस्तु को विभिन्न आकार के पिरामिड के भीतर रखना पड़ता है। पिरामिड के भीतर जल की बोतल रखकर उस जल का प्रयोग विभिन्न रोगों को दूर करने में किया जाता है। यह जल पीने से शरीर नीरोगी होता है और चित्त में एकाग्रता आती है।
पिरामिड युक्त आकृति में बैठने पर शरीर स्वस्थ रहता है। इसमें बैठकर ध्यान लगाने से मन एकाग्र होता है और शान्ति मिलती है। अष्टधातु का पिरामिड अधिक लाभदायक है। आयुर्वेदिक, एक्यूप्रेशर या अन्य कोई योग, ध्यान लगाने में पिरामिड उसमें बाधक नहीं है। 

मंगलवार, अगस्त 03, 2010

नेति और उसके लाभ -राजीव शंकर माथुर



मानव रूपी यन्त्र को क्रियाशील बनाए रखने के लिए इसकी सफाई व शोधन आवश्यक है। शरीर रूपी यन्त्र का बाह्य शोधन स्नान द्वारा हो जाता है। अन्तःशोधन के लिए अनेक क्रिया करनी पड़ती हैं। नासिका द्वारा श्वास लिया जाता है जोकि प्राण के लिए आवश्यक है। नासिका प्राण मार्ग है और इसके शोधन  के लिए नेति नामक क्रिया करनी पड़ती है। इसके करने से नजला-जुकाम, कफ, साननोसाइटिस, चेहरे के पक्षाघात, अनिद्रा, मस्तिष्क में जाने वाले रक्त में ऑक्सीजन के प्रभाव की चर्चा करेंगे। इस शोधन के बाद प्राणायाम, ध्यान एवं समाधि में विघ्‍न कम होते हैं। मन पर नियन्त्रण होता है। 
जिन लोगों की नाक की किसी भी प्रकार की शल्य क्रिया हो चुकी है उन्हें रबर नेति, सूत्र नेति, दुग्ध नेति एवं घृत नेति से यथा सम्भव बचना चाहिए। ऐसे लोगों के लिए तेल नेति एवं जल नेति अत्यन्त लाभदायक है।
नेति पांच प्रकार की होती है-तेल नेति, सूत्र या रबर नेति, जल नेति, घृत नेति एवं दुग्ध नेति।
तेल नेति 
सौ ग्राम शुद्ध सरसों का तेल लें। उसमें दो चने के दाने के बराबर मात्रा में शुद्ध नमक डालकर भली-भांति गर्म करें। जब तेल की झार निकल जाए तब उसे ठंडा करें। अब इस तेल को कपडछान कर लें। इसे छने हुए तेल को किसी साफ ड्रॉपर वाली शीशी में भर कर रख लें। रात्रि में सोने से पूर्व इस तेल की सात बूंदें बायीं नासिका में और फिर दायीं नासिका में डालें। ऐसा करने के लिए कुर्सी पर बैठकर गर्दन यथा सम्भव पीछे की ओर कर लें। यदि ऐसा करने में कोई समस्या हो तो बिना तकिए के सीधे लेटकर भी तेल नेति कर सकते हैं। तेल के नाक में प्रवेश करते ही अन्दर का सम्स्त जमा हुआ कफ मुख में आ जाएगा उसे थूकते जाएं। पांच-दस मिनट में आपकी दोनों ओर की नासा छिद्र खुल कर साफ लो जाएंगे और आप हल्का महसूस करेंगे।
सूत्र या रबर नेति 
किसी भी योग केन्द्र से बनी बनायी सूत्र नेति प्राप्त कर लें। सूत्र नेति न मिले तो किसी भी सर्जिकल दुकान से 4या 5 नम्बर की कैथेटर टयूब भी ले सकते हैं। लाभ दोनों का बराबर मिलता है। एक कटोरी गर्म पानी में सूत्र या रबर को धो लें। बाद में कागासन में बैठकर मुख को यथा सम्भव ऊपर उठाकर जो स्वर चल रहा हो उस नासा छिद्र में धीरे-धीरे रबर या सूत्र अन्दर की ओर डालें। जब यह कंठ में आ जाए तो तर्जनी व मध्यमा के सहयोग से   मुख से बाहर लाएं। अब नेति के दोनों सिरों को दोनों हाथों से पकड़ कर 10-15 बार ऊपर-नीचे खीचें। इस प्रकार नेति चलाने से नासा मार्ग में घर्षण उत्पन्न  होने से इस मार्ग की सफाई होती है। अब मुख मार्ग से सूत्र या रबड़ को धीरे-धीरे खींचकर बाहर निकाल लें। इस क्रिया को दूसरे नासा छिद्र में दोहराएं। यह क्रिया नित्य नियम से करनी चाहिए। दस दिन के अभ्यास के बाद दोनों नासाछिद्रों में एक साथ करके अधिक लाभ प्राप्त कर सकते हैं। बाद में तेल नेति का तेल सात-सात बूंदें नासा छिद्रों में डालने से अधिक लाभ मिलता है।
जल नेति
इसके लिए आधा लीटर पानी टोटीदार लोटे में ले लें। इसमें दो चुटकी सेंधा नमक युक्त गुनगुना पानी लें जोकि सह सकें। अब कागासन में बैठकर लोटे को हथेली पर रख लें। जो स्वर चल रहा हो उसी हाथ लोटा रखकर नासारन्ध्र में टोटीं लगायें। दायीं ओर टोटी लगायी है तो बायीं ओर सिर झुका लेंगे तो बायीं नासा छिद्र से जल निकलने लगेगा। इससे वायु मार्ग की भली-भांति सफाई हो जाती है। जल नेति के उपरान्त भस्त्रिाका अवश्य करें। इसे करने के लिए सीधे खड़े होकर सिर नीचे झुकाकर एक नासा छिद्र को बन्द कर लें और दूसरे से तेज आवाज के साथ वायु बाहर निकालें। ऐसा करने से समस्त जल बाहर निकल जाएगा। उक्त क्रिया को दोनों नासा छिद्रों से पांच बार दोहराएं। इसके करने से मस्तिष्क के सभी दोष दूर हो जाते हैं। सिर का दर्द और अनिद्रा रोग से मुक्ति मिलती है। बुद्धि तीव्र होती है। बालों का झड़ना व पकना कम होता है। नाक के फोड़े व बढ़ा मांस कम होता है। नेत्र ज्योति बढ़ती है। नेत्र विकारों से मुक्ति मिलती है। कान बहना, कम सुनना आदि कर्ण विकारों से भी मुक्ति मिलती है।
दुग्ध नेति
इस करने के लिए उबाला हुआ दूध ठंडा करके  छान लें। इसके पश्चात जल नेति के समान लोटे में डालकर दुग्ध नेति की जाती है। दुग्ध नेति के उपरान्त भस्त्रिका करना अत्यन्त आवश्यक है। इसके लाभ भी जल नेति के समान ही हैं। 
घृत नेति
इसके लिए गाय के दूध का घी ले लें और यदि न मिले तो भैंस के दूध का घी भी प्रयोग किया जा सकता है। घी को गुनगुना गर्म कर लें एवं तेल नेति के समान सात बूंदें दोनों नासाछिद्रों में डालें। इसके लाभ भी तेल  नेति के समान ही हैं।

सोमवार, अगस्त 02, 2010

टीबी रोग व निदान -डॉ. सत्येन्द्र तोमर



टीबी को राजयक्ष्मा या यक्ष्मा कहते हैं। यह त्रिदोषण व्याधि है जो अधिकतर युवावस्था में होती है। यह चार कारणों से होता है-
1. वेगरोध-वात, मल, मूत्रा आदि अधारणीय वेगों को रोकने के कारण। 
2. क्षय-अति मैथुन, अनशन, रक्तस्राव आदि शारीरिक एवं ईर्ष्या, शोक, भय आदि मानसिक क्षीणता लाने वाले कारणों के कारण। 
3. साहस-शरीर की शक्ति से अधिक कार्य करने के कारण।                        
4. विषमाशन-विरुद्ध रीति से आहार का सेवन करने के कारण।
बुखार को हड्डी तोड़ बुखार भी कहते हैं। इस बुखार में अस्थियों, उनकी सन्धियों में तीव्र वेदना एवं बुखार होता है। इनमें से क्षय व साहस से साक्षात तथा वेगरोध व विषमाशन से स्रोत वरोध होकर धातुक्षय से राजयक्ष्मा उत्पन्न होता है।
मूलतः इसकी उत्पत्ति अनुलोम क्षय से अर्थात्‌ कफ प्रधान वात आदि दोषों से रसवाहनियों के स्रोतों के अवरोध से उत्पन्न क्षय से निरन्तर रस व रक्त क्षीणता वश मांस व धातु क्षीणता होती है और अनुलोम क्षय हो जाता है। अति मैथुन से होने वाला क्षय प्रतिलोम क्षय होता है। इसमें शुक्र धातु का क्षय होने से वायु का प्रकोप हो जाता है और पूर्ववर्ती धातुओं का क्षय हो जाता है जिस कारण यह रोग होता है। 
पाश्चात्य चिकित्सा शास्त्र में सर्वप्रथम Thephilus Ponetus(1628-89) us Tubercle Bacillus ने की फेफड़े में उपस्थित बताया। तभी से इसे टी.बी. के नाम से जान गया।
रोग के लक्षण
इस रोग के आक्रमण पर निम्न लक्षण मिलते हैं-पुराने रोग में कन्धे व पार्श्व में पीडा, हाथ-पैरों में जलन तथा ज्वर रूपी तीन लक्षण अधिक दिनों तक मिलते हैं। शरीर सूखता जा रहा हो तो सांयकालीन ज्वर या रक्त की उल्टी होती है। शरीर का लगातार सूखना, वजन का बराबर कम होना हो तो भी इस रोग का अनुमान करना चाहिए। खाना-पीना ठीक होने पर भी वजन घटना, बिना परिश्रम के थक जाना,  शाम को ज्वर चढ़ जाना, नाड़ी का घटना-बढ़ना, अकारण बार-बार जुकाम, रात्रिा में पसीना आना, मांस खाना व मैथुन की लगातार इच्छा, स्त्रिायों में रजोरोध होना आदि इस रोग के लक्षण हैं। भोज ने खांसी, बुखार, रक्तपित्त तीन लक्षण और सुश्रत ने छह लक्षण माने हैं-ज्वर, अरुचि, श्वास, कास, रक्तष्ठीवन, स्वरभेद। चरक ने 11 लक्षण माने हैं-वात प्रकोप के तीन कन्धों तथा पार्श्व में जलन, पित्त प्रकोप से तीन ज्वर, अतिसार तथा रक्तष्ठीवन तथा कफ प्रकोप से अरुचि, श्वास, कास, शिरशूल व कफछर्दन अर्थात्‌ कफ भर जाना। इन कारणों से टीबी का रोग है जानना चाहिए। पाश्चात्य विज्ञान कहता है कि
 1. रोगी को कास व कफष्ठिवन रहता है। 
 2. श्लेष्मा के साथरक्त कम या अधिक मात्रा में मुख से आता है।
 3. पार्श्व एवं वक्ष में शूल रहता है। 
 4. श्वास लेने में कठिनाई होती है। रात्रि स्वेद होता है, भूख कम लगती है, रक्त भार कम रहता है।
प्रयोगशाला में परीक्षण से भी इस रोग को जाना जाता है।Sputum Test  से रोग का सही निर्णय नहीं होता है और परीक्षण भी कई बार करने पड़ते हैं। रक्त परीक्षण में WBC, lymphocyte, ESR बढ़ जाता है। कल्चर कफ  और एक्सरे से भी इसको ज्ञात किया जाता है।  
रोग की चिकित्सा
सर्वप्रथम आहार-विहार का ध्यान रखना चाहिए। लघु आहार दें। सन्तुलित भोजन सम्यक मात्रा में दें। काली बकरी का दूध पिलायें और उसके मांस का सेवन करें। विहार के रूप में रुचिकर आनन्दपूर्ण वातावरण में रहें। अधिक श्रम न करें, खुली हवा और धूप युक्त वातावरण में रहें। औषधि प्रयोग इस प्रकार है-
1. औषधि के रूप में बसन्तमालती रस 120मिग्रा., श्रृंगाराभ्र 240मिग्रा.प्रवालपिष्टी 240मिग्रा., सितोपलादि चूर्ण 1ग्राम दिन में तीन बार शहद से लें। 
2. द्राक्षारिष्ट 20मिली. दिन में दो बार भोजन के बाद समान भाग जल के साथ लें।
3. मृगश्रृंग भस्म120मिग्रा.,प्रवालभस्म120मिग्रा. और च्वयनप्राश 12ग्राम प्रातः व रात्रिा में बकरी के दूध के साथ लें।
4. महाचन्दादि व लाक्ष्णदि तेल की मालिश करें। 
5. ज्वर तेज हो तो शुद्ध नर सार आधाग्राम, अमृतारिष्ट 20 मिली. व सितापलादि चूर्ण 12ग्राम शहद में मिलाकर चाटें। 
6. यदि रक्त भी आए तो बसन्तमालती रस 120 मिली., रक्तपित्त कुल कन्दन रस 120 मिली. लाक्ष्णदि चूर्ण 1 ग्राम, सितोपलादि चूर्ण दिन में तीन बार शहद के साथ लें। 

रविवार, अगस्त 01, 2010

मांगलिक चिन्ह स्वास्तिक पं. दयानन्द शास्त्री



पुरातन वैदिक सनातन संस्कृति का परम मंगलकारी प्रतीक चिन्ह स्वास्तिक अपने आप में विलक्षण है। इसे हमारे सभी व्रत, पर्व, त्यौहार, पूजा एवं हर मांगलिक अवसर पर कुंकुम से अंकित किया जाता है। यह मांगलिक चिन्ह अनादि काल से सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है। 
स्वस्तिक का अर्थ 
इसका सामान्य अर्थ शुभ, मंगल एवं कल्याण करने वाला है। स्वास्तिक शब्द सु और अस धातु से बना है, सु का अर्थ है शुभ, मंगल और कल्याणकारी, अस का अर्थ है अस्तित्व में रहना। यह पूर्णतः कल्याणकारी  भावना को दर्शाता है। देवताओं के चहुं ओर घूमने वाले आभामंडल का चिन्ह ही स्वास्तिक होने के कारण वे देवताओं की शक्ति का प्रतीक होने के कारण इसे शास्त्रों में शुभ एवं कल्याणकारी माना गया है।
स्वस्तिक की प्राचीनता 
स्वास्तिक का प्रयोग अनेक धर्म में किया जाता है। जैन व बौद्ध सम्प्रदाय व अन्य धर्मों में प्रायः लाल, पीले एवं श्वेत रंग से अंकित स्वास्तिक का प्रयोग होता रहा है। सिन्धू घाटी सभ्यता की खुदाई में ऐसे चिन्ह व अवशेष प्राप्त हुए हैं जिनसे यह प्रमाणित हो जाता है कि लगभग 2-3 हजार वर्ष पूर्व में भी मानव सम्भ्यता अपने भवनों में इस मंगलकारी चिन्ह का प्रयोग करती थी। द्वितीय विश्व युद्ध के समय एडोल्फी हिटलर ने उल्टे स्वास्तिक का चिन्ह अपनी  सेना के प्रतीक रूप में शामिल किया था। सभी सैनिकों की वर्दी एवं टोपी पर यह उल्टा स्वास्तिक चिन्ह अंकित था। उल्टा स्वास्तिक ही उसकी बर्बादी का कारण बना। उसके शासन का नाश हुआ एवं भारी तबाही के साथ युद्ध में उसकी हार हुई। 
स्वास्तिक का प्रयोग शुद्ध, पवित्र एवं सही ढंग से  उचित स्थान पर करना चाहिए। शौचालय एवं गन्दे स्थानों पर इसका प्रयोग वर्जित है। ऐसा करने वाले की बुद्धि एवं विवेक समाप्त हो जाता है। दरिद्रता, तनाव एवं रोग एवं क्लेश में वृद्धि होती है। स्वास्तिक की आकृति श्रीगणेश की प्रतीक है और विष्णु जी एवं सूर्यदेव का आसन मानी जाती है। इसे भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान प्राप्त है। प्रत्येक मंगल व शुभ कार्य में इसे शामिल किया जाता है। इसका प्रयोग रसोईघर, तिजोरी, स्टोर, प्रवेशद्वार, मकान, दुकान, पूजास्थल एवं कार्यालय में किया जाता है। यह तनाव, रोग, क्लेश, निर्धनता एवं शत्रुता से मुक्ति दिलाता है।
स्वस्तिक रंग लाल क्यों?
भारतीय संस्कृति में लाल रंग का सर्वाधिक महत्व है और मांगलिक कार्यों में इसका प्रयोग सिन्दूर, रोली या कुंकुम के रूप में किया जाता है। सभी देवताओं की प्रतिमा पर रोली का टीका लगाया जाता है। लाल रंग शौर्य एवं विजय का प्रतीक है। लाल टीका तेजस्विता, पराक्रम, गौरव और यश का प्रतीक माना गया है। लाल रंग प्रेम, रोमांच व साहस को दर्शाता है। यह रंग लोगों के शारीरिक व मानसिक स्तर को शीघ्र प्रभावित करता है। यह रंग शक्तिशाली व मौलिक है। यह रंग मंगल ग्रह का है जो स्वयं ही साहस, पराक्रम, बल व शक्ति का प्रतीक है। यह सजीवता का प्रतीक है और हमारे शरीर में व्याप्त होकर प्राण शक्ति का पोषक है। मूलतः यह रंग ऊर्जा, शक्ति, स्फूर्ति एवं महत्वकांक्षा का प्रतीक है। नारी के जीवन में इसका विशेष स्थान है और उसके सुहाग चिन्ह व श्रृंगार में सर्वाधिक प्रयुक्त होता है। स्त्राी के मांग का सिन्दूर, माथे की बिन्दी, हाथों की चूड़ियां, पांव का आलता, महावर, करवाचौथ की साड़ी, शादी का जोड़ा एवं प्रेमिका को दिया लाल गुलाब आदि सभी लाल रंग की महत्ता है। नाभि स्थित मणिपुर चक्र का पर्याय भी लाल रंग है। शरीर में लाल रंग की कमी से अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। लाल रंग से ही केसरिया, गुलाबी, मैहरुन और अन्य रंग बनाए जाते हैं। इन सब तथ्यों से प्रमाणित होता है कि स्वास्तिक लाल रंग से ही अंकित किया जाना चाहिए या बनाना चाहिए। 
स्वस्तिक का उपयोग
स्वास्तिक बनाने के लिए धन चिन्ह बनाकर उसकी चारों भुजाओं के कोने से समकोण बनाने वाली एक रेखा दाहिनी ओर खींचने से स्वास्तिक बन जाता है। रेखा खींचने का कार्य ऊपरी भुजा से प्रारम्भ करना चाहिए। इसमें दक्षिणवर्त्ती गति होती है। सदैव कुंकुम, सिन्दूर व अष्टगंध से ही अंकित करना चाहिए।  वैज्ञानिक हार्टमेण्ट अनसर्ट ने आवेएंटिना नामक यन्त्र द्वारा लाल कुंकुम से अंकित स्वास्तिक की सकारात्मक ऊर्जा को 100000 बोविस यूनिट में नापा है। ऊं (70000 बोविस) चिन्ह से भी अधिक सकारात्मक ऊर्जा स्वास्तिक में है। ऊं एवं स्वास्तिक का सामूहिक प्रयोग नकारात्मक ऊर्जा को शीघ्रता से दूर करता है।
भवन, कार्यालय, दूकान या फैक्ट्री या कार्य स्थल के मुख्य द्वार के दोनों ओर स्वास्तिक अंकित करने से सकारात्मक ऊर्जा बढ़ती है। पूजा स्थल, तिजोरी, कैश बॉक्स, अलमारी में भी स्वास्तिक स्थापित करना चाहिए। स्वास्तिक को धन-देवी लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। इसकी चारों दिशाओं के अधिपति देवताओं, अग्नि, इन्द्र, वरूण एवं सोम की पहूजा हेतु एवं सप्तऋषियों के आशीर्वाद को प्राप्त करने में प्रयोग किया जाता है। इसके अपमान व गलत प्रयोग से बचना चाहिए। स्वास्तिक के प्रयोग से धनवृद्धि, गृहशान्ति, रोग निवारण, वास्तुदोष निवारण, भौतिक कामनाओं की पूर्ति, तनाव, अनिद्रा व चिन्ता से मुक्ति भी दिलाता है। जातक की कुण्डली बनाते समय या कोई शुभ कार्य करते समय सर्वप्रथम स्वास्तिक को ही अंकित किया जाता है। ज्योतिष में इस मांगलिक चिन्ह को प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, सफलता व उन्नति का प्रतीक माना गया है। मुख्य द्वार पर 6.5 इंच का स्वास्तिक बनाकर लगाने से  से अनेक प्रकार के वास्तु दोष दूर हो जाते हैं। हल्दी से अंकित स्वास्तिक शत्रु शमन करता है। स्वास्तिक 27नक्षत्रों का सन्तुलित करके सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करता है। यह चिन्ह नकारात्मक ऊर्जा का सकारात्मक ऊर्जा में परिवर्तित करता है। इसका भरपूर प्रयोग अमंगल व बाधाओं से मुक्ति दिलाता है।(ज्योतिष निकेतन सन्देश अंक 29 से साभार) 

पत्राचार पाठ्यक्रम

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ज्योतिष निकेतन सन्देश
(गूढ़ विद्याओं का गूढ़ार्थ बताने वाला हिन्दी मासिक)
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