आन्त्रिक ज्वर को मंथर ज्वर, मोतीझरा, मौक्तिक ज्वर या टायफाइड फीवर भी कहते हैं। इसमें ऐसा बुखार होता है जो सात, दस या बारह दिन तक बिना उतरे बना रहता है, प्लीहा वृद्धि, त्वचा पर छोटी-छोटी लाल रंग की पीडिकायें, पेट दर्द, अफारा आदि लक्षण रहते हैं। इसमें छोटी आंत में सूजन व घाव भी हो जाते हैं।
रोग क्यों होता है?
यह रोग Bacilus-Typhosus के कारण उत्पन्न होता है। इस ज्वर से पीड़ित रोगी के मल-मूत्र में इसके कीटाणु रहते हैं। ये कीटाणु जल या खाद्य पदार्थों में पहुंचकर अन्य व्यक्ति को भी इस रोग से संक्रमित करने का खतरा पैदा कर देते हैं। ये कीटाणु मल में अधिकतम पन्द्रह दिन तक जीवित रह सकते हैं। अमाशय में स्थित अम्ल से ये कीटाणु मर जाते हैं परन्तु जब इसका वेग अधिक होता है तब ये अम्ल से भी नहीं मर पाते और कृमि संख्या में बढ़कर ज्वर एवं छोटी आंत में सूजन व घाव उत्पन्न कर देते हैं। साथ-साथ एक प्रकार का विष का उत्सर्ग भी करते हैं जिससे ज्वर आदि के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं।
रोग के लक्षण
इस रोग के लक्षण इस प्रकार हैं-
1. ज्वर क्रमशः बढ़ता है। ज्वर बिना शीत के आता है। प्रथम सप्ताह में ज्वर प्रतिदिन बढ़ता है। इसमें ज्वर कभी भी पूरा नहीं उतरता है। प्रातःकाल में ज्वर घटता है और सायंकाल में बढ़ता है। दूसरे सप्ताह में ज्वर स्थिर रहता है। यह बुखार 104 फारनहाईट तक बढ़कर उतरता है और पुनः 104 पर पहुंच जाता है। तीसरे सप्ताह में ज्वर धीरे-धीरे उतरता है। यदि ज्वर न घटे तो रोगी की स्थिति चिन्ताजनक बन जाती है और रोना, कंप, अनियन्त्रित मल मूत्र त्याग, मूत्रावरोध, विषमयता आदि उपद्रव हो जाते हैं। आधुनिक काल में Chloromycetin की गोली देकर ज्वर को प्रथम सप्ताह में ही ठीक कर लिया जाता है।
2. श्वास और नाड़ी की गति का अनुपात बदल जाता है। एक डिग्री बुखर बढ़ने पर नाड़ी की गति में 10 की वृद्धि हो जाती है। श्वसन की गति में 4 की वृद्धि का सामान्य नियम है। इस बुखार में नाड़ी की गति तापमान के अनुपातानुसार नहीं बढ़ती है।
3. जीभ गन्दी, रूक्ष, सफेद तथा अग्रभाग एवं प्रान्त भाग लाल रंग का हो जाता है।
4. प्रायः 7से12दिन में त्वचा पर गुलाबी दाने निकलते हैं जोकि छाती के आसपास दिखाई पड़ते हैं और स्वतः मिट जाते हैं।
5. अफारा, यकृत प्लीहा वृद्धि, दुर्बलता, सिरदर्द आदि लक्षण दिखाई पड़ते हैं।
6. रक्त परीक्षण कराने पर श्वेतकणों (Leucocytes) की संख्या प्राकृत से भी कम मिलती है और Lymphocytes की संख्या अनुपात से अधिक हो जाती है। दूसरे सप्ताह में Widol Test में यह रोग पूर्णतः ठीक मिलता है।
7. 5-7 प्रतिशत रोगियों में तीसरे या चौथे सप्ताह में रक्तस्राव होता है। आन्त्रगत रक्त-वाहनियों के फटने के कारण यह रक्तस्राव होता है। 4 प्रतिशत रोगियों में आंत के फटने का उपद्रव मिल सकता है।
8. इस रोग के प्रभाव से कभी-कभी फेफड़ों में मवाद भी पड़ जाता है। गर्भिणी का गर्भपात भी इस रोग के कारण हो जाता है। अतिसार, अफारा, पित्ताशय में सूजन व शय्या व्रण भी हो जाते हैं।
रोग की चिकित्सा
रोगी को स्वच्छ हवादार कमरे में रखें। शारीरिक व मानसिक रूप से पूर्ण आराम दें। लघु व पौष्टिक आहार देना चाहिए। दूध व मौसम्मी का रस दें। त्रिभुवन कीर्तिरस, लक्ष्मीविलास रस, सूत शेखर रस, शंख, गोदन्ती का मिश्रण करके देना चाहिए। टायफाइड का निदान होने पर उसे तुरन्त रोकने का उपाय करना चाहिए व क्लोरोमाइसटीन वैद्य की सलाह पर लेनी चाहिए।
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