टीबी को राजयक्ष्मा या यक्ष्मा कहते हैं। यह त्रिदोषण व्याधि है जो अधिकतर युवावस्था में होती है। यह चार कारणों से होता है-
1. वेगरोध-वात, मल, मूत्रा आदि अधारणीय वेगों को रोकने के कारण।
2. क्षय-अति मैथुन, अनशन, रक्तस्राव आदि शारीरिक एवं ईर्ष्या, शोक, भय आदि मानसिक क्षीणता लाने वाले कारणों के कारण।
3. साहस-शरीर की शक्ति से अधिक कार्य करने के कारण।
4. विषमाशन-विरुद्ध रीति से आहार का सेवन करने के कारण।
बुखार को हड्डी तोड़ बुखार भी कहते हैं। इस बुखार में अस्थियों, उनकी सन्धियों में तीव्र वेदना एवं बुखार होता है। इनमें से क्षय व साहस से साक्षात तथा वेगरोध व विषमाशन से स्रोत वरोध होकर धातुक्षय से राजयक्ष्मा उत्पन्न होता है।
मूलतः इसकी उत्पत्ति अनुलोम क्षय से अर्थात् कफ प्रधान वात आदि दोषों से रसवाहनियों के स्रोतों के अवरोध से उत्पन्न क्षय से निरन्तर रस व रक्त क्षीणता वश मांस व धातु क्षीणता होती है और अनुलोम क्षय हो जाता है। अति मैथुन से होने वाला क्षय प्रतिलोम क्षय होता है। इसमें शुक्र धातु का क्षय होने से वायु का प्रकोप हो जाता है और पूर्ववर्ती धातुओं का क्षय हो जाता है जिस कारण यह रोग होता है।
पाश्चात्य चिकित्सा शास्त्र में सर्वप्रथम Thephilus Ponetus(1628-89) us Tubercle Bacillus ने की फेफड़े में उपस्थित बताया। तभी से इसे टी.बी. के नाम से जान गया।
रोग के लक्षण
इस रोग के आक्रमण पर निम्न लक्षण मिलते हैं-पुराने रोग में कन्धे व पार्श्व में पीडा, हाथ-पैरों में जलन तथा ज्वर रूपी तीन लक्षण अधिक दिनों तक मिलते हैं। शरीर सूखता जा रहा हो तो सांयकालीन ज्वर या रक्त की उल्टी होती है। शरीर का लगातार सूखना, वजन का बराबर कम होना हो तो भी इस रोग का अनुमान करना चाहिए। खाना-पीना ठीक होने पर भी वजन घटना, बिना परिश्रम के थक जाना, शाम को ज्वर चढ़ जाना, नाड़ी का घटना-बढ़ना, अकारण बार-बार जुकाम, रात्रिा में पसीना आना, मांस खाना व मैथुन की लगातार इच्छा, स्त्रिायों में रजोरोध होना आदि इस रोग के लक्षण हैं। भोज ने खांसी, बुखार, रक्तपित्त तीन लक्षण और सुश्रत ने छह लक्षण माने हैं-ज्वर, अरुचि, श्वास, कास, रक्तष्ठीवन, स्वरभेद। चरक ने 11 लक्षण माने हैं-वात प्रकोप के तीन कन्धों तथा पार्श्व में जलन, पित्त प्रकोप से तीन ज्वर, अतिसार तथा रक्तष्ठीवन तथा कफ प्रकोप से अरुचि, श्वास, कास, शिरशूल व कफछर्दन अर्थात् कफ भर जाना। इन कारणों से टीबी का रोग है जानना चाहिए। पाश्चात्य विज्ञान कहता है कि
1. रोगी को कास व कफष्ठिवन रहता है।
2. श्लेष्मा के साथरक्त कम या अधिक मात्रा में मुख से आता है।
3. पार्श्व एवं वक्ष में शूल रहता है।
4. श्वास लेने में कठिनाई होती है। रात्रि स्वेद होता है, भूख कम लगती है, रक्त भार कम रहता है।
प्रयोगशाला में परीक्षण से भी इस रोग को जाना जाता है।Sputum Test से रोग का सही निर्णय नहीं होता है और परीक्षण भी कई बार करने पड़ते हैं। रक्त परीक्षण में WBC, lymphocyte, ESR बढ़ जाता है। कल्चर कफ और एक्सरे से भी इसको ज्ञात किया जाता है।
रोग की चिकित्सा
सर्वप्रथम आहार-विहार का ध्यान रखना चाहिए। लघु आहार दें। सन्तुलित भोजन सम्यक मात्रा में दें। काली बकरी का दूध पिलायें और उसके मांस का सेवन करें। विहार के रूप में रुचिकर आनन्दपूर्ण वातावरण में रहें। अधिक श्रम न करें, खुली हवा और धूप युक्त वातावरण में रहें। औषधि प्रयोग इस प्रकार है-
1. औषधि के रूप में बसन्तमालती रस 120मिग्रा., श्रृंगाराभ्र 240मिग्रा.प्रवालपिष्टी 240मिग्रा., सितोपलादि चूर्ण 1ग्राम दिन में तीन बार शहद से लें।
2. द्राक्षारिष्ट 20मिली. दिन में दो बार भोजन के बाद समान भाग जल के साथ लें।
3. मृगश्रृंग भस्म120मिग्रा.,प्रवालभस्म120मिग्रा. और च्वयनप्राश 12ग्राम प्रातः व रात्रिा में बकरी के दूध के साथ लें।
4. महाचन्दादि व लाक्ष्णदि तेल की मालिश करें।
5. ज्वर तेज हो तो शुद्ध नर सार आधाग्राम, अमृतारिष्ट 20 मिली. व सितापलादि चूर्ण 12ग्राम शहद में मिलाकर चाटें।
6. यदि रक्त भी आए तो बसन्तमालती रस 120 मिली., रक्तपित्त कुल कन्दन रस 120 मिली. लाक्ष्णदि चूर्ण 1 ग्राम, सितोपलादि चूर्ण दिन में तीन बार शहद के साथ लें।
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