जंगल में एक आकर्षक भवन था। एक साधु ने उसे देखा और सोचा, कितना सुन्दर स्थान है। यहां बैठकर ईश्वर का ध्यान करूंगा।
एक चोर ने उस भवन को देखा और सोचा, वाह यह तो बहुत अच्छी जगह है। चोरी का सारा सामान यहीं लाकर छिपांऊगा।
एक जुआरी ने देखा और सोचा, अपने साथियों को यहां लाकर उनके साथ जुआ खेलूंगा।
साधू, चोर और जुआरी का अलग-अलग दृष्टिकोण होने के कारण एक ही भवन को प्रत्येक ने अलग-अलग रूप से देखा।
जैसा दृष्टिकोण बनाओगे, वैसा ही अन्तःकरण बनेगा। अगर तुम चाहते हो कि तुम्हारा अन्तःकरण अच्छा हो तो दृष्टिकोण भी अच्छा बनाओ। दृष्टिकोण से अच्छा-बुरा प्रकट होता है। भावना शुद्ध ही होनी चाहिए तभी महत्ता बनती है। दृष्टिकोण व भावना को लेकर ही किसी कवि ने कहा भी है-
सब जग ईश्वर रूप है, भलो बुरो नहीं कोय।
जैसी जाकी भावना, तैसा ही फल होय॥
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