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मंगलवार, अगस्त 17, 2010

कर्मयोगी



अपांसि यस्मिन्नधि संदधुर्गिरस्तस्मिन्त्सुन्मानि यजमान आ चके।-ऋग्वेद 3/3
ज्ञानियों न जिसमें कर्म स्थापित किए, उसी में यज्ञ करने वाला सुखों को ढूंढता है।
जहां पर कर्म(यज्ञ) है वहां पर सुख है। आलस्य में जीवन का नाश है कर्म करने में ही जीवन का सच्चा सुख है। ज्ञानी अपने यज्ञ में ही सुख की तलाश करता है। कर्मयोगी बनें क्योंकि कर्म करने वाला निज कर्मों की प्रकृति के अनुरूप फल को अवश्य पाता है, इसलिए फल की चिन्ता के बिना ही कर्मरत्‌ रहना चाहिए। 
कार्य से करके प्रीति, सुख को वरो। आलस्य त्याग करके दुःख को हरो॥

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