मनुष्य का भाग्य जन्म लेते ही निर्धारित हो जाता है। ग्रह-दशा के परिवर्तन के साथ-साथ उनका भाग्य भी परिवर्तित होता रहता है। मनुष्य का जीवन भाग्य और वास्तु से प्रभावित होता है। दोनों का प्रभाव 50-50 प्रतिशत है। मनुष्य अपने भाग्य को तो बदल नहीं सकता परन्तु वास्तु की सहायता से निज प्रयत्नों को सफलता तक अवश्य पहुँचा सकता है।
यदि मनुष्य का भाग्य उत्तम है और वास्तु दूषित है तो प्रयासों का परिणाय 50 प्रतिशत ही मिलेगा। यदि वास्तुदोष भी दूर हो जाए तो शत-प्रतिशत प्रयास सफल हो सकते हैं।
यदि भाग्य निर्बल है और वास्तु दोष भी है तो सफलता मिलनी असंभव है। यदि वास्तु दोष दूर कर लें तो प्रयास 50 प्रतिशत सफल हो सकते हैं, जबकि भाग्य तो बदला नहीं जा सकता है।
वास्तु और ज्योतिष का सनातन सम्बन्ध है। यदि भवन वास्तु दोष युक्त हो और भाग्य भी निर्बल हो तो उसमें रहना कदापि उचित नहीं है क्योंकि उसमें रहने वाला व्यक्ति दुःखी, अशान्त और कंगाल हो सकता है।
यहां उन ज्योतिष योगों की चर्चा करेंगे जिनको अपनी जन्मकुण्डली में देखकर आप यह निश्चय कर सकेंगे कि भूमि प्राप्ति व भवन निर्माण का योग आपके भाग्य में है या नहीं। मनुष्य जीवन का सौभाग्य एवं सार्थकता उत्तम भवन निर्माण करना है। मनुष्य जीवन के पुरुषार्थ, पराक्रम एवं अस्तित्त्व की सर्वप्रथम पहचान उसके भवन से होती है।
जनसंख्या वृद्धि के कारण सभी भवन के स्वामी बन सकें यह संभव नहीं है। एक चौथाई जनसंख्या तो आवास विकास परिषद् द्वारा निर्मित घरों में रह रही है। कुछ भवनों के स्वामी सुखी व समृद्ध हैं तो कुछ के निर्धन एवं दुःखी। ऐसी जटिल परिस्थितियों में भवन-निर्माण संबंधी योगों पर ज्योतिषात्मक चिन्तन करना जटिल है। लेकिन फिर भी हम यहाँ इसकी चर्चा करेंगे।
भूमि व भवन संबंधी मुख्य ज्योतिष ज्ञान
भूमि का कारक ग्रह मंगल है। जन्मपत्री का चौथा भाव भूमि एवं भवन से सम्बन्ध रखता है। उत्तम भवन की प्राप्ति के लिए चतुर्थश (चौथे भाव का स्वामी) की केन्द्र-त्रिकोण में स्थित होना अनिवार्य है।
यदि चौथे भाव का स्वामी उच्च, मूल त्रिकोण, स्वग्रही, उच्चाभिलाषी, मित्रक्षेत्री, शुभ ग्रहों से युत या दृष्ट हो तो निश्चित रूप से भवन का सुख मिलता है।
जन्मपत्री में मंगल की स्थिति भी सुदृढ़ होनी चाहिए। चौथे भाव पर शुभाशुभ ग्रहों की दृष्टि, युति व प्रभाव का भी विश्लेषण करना होगा। चतुर्थ व चतुर्थेश का बली होना आवश्यक है तो लग्न व लग्नेश का सुदृढ़ होना भी अत्यावश्यक है। साथ-साथ दशमेश, नवमेश, व लाभेश का सहयोग भी आवश्यक है।
भवन प्राप्ति के ज्योतिष योग
अब यहाँ पर विभिन्न ज्योतिष योगों की चर्चा करेंगे जिन्हें आप अपनी जन्मकुण्डली में खोजकर यह जान सकेंगे कि भवन निर्माण या प्राप्ति का योग आपके भाग्य में है या नहीं।
स्व पराक्रम से निर्मित भवन प्राप्ति का योग
जन्मकुण्डली के चौथे भाव का स्वामी (चतुर्थेश) किसी शुभ ग्रह के साथ युति करके 1, 4, 5, 7, 9, 10वें भाव में हो तो ऐसे व्यक्ति को स्वश्रम से निर्मित उत्तम सुख-सुविधाओं से युक्त भवन प्राप्त होता है।
जन्मकुण्डली के चौथे भाव का स्वामी (चतुर्थेश) पहले (लग्न) भाव में हो और पहले (लग्न) भाव का स्वामी (लग्नेश) चौथे भाव में हो तो भी ऐसा व्यक्ति स्व पराक्रम व पुरुषार्थ से अपना घर (भवन) बनाता है।
बंगले का योग
जन्मकुण्डली के चौथे भाव में चन्द्र और शुक्र की युति हो या चौथे भाव में कोई उच्च राशिगत (उच्च राशि में स्थित ग्रह) हो, चौथे भाव का स्वामी केन्द्र-त्रिाकोण (1, 4, 5, 7, 9, 10वें) भाव में हो तो ऐसे व्यक्ति के पास अपना बंगला या महलनुमा भवन होता है जिसमें कलात्मक बगीचा व जलाशय होता है।
आकर्षक एवं सुन्दर भवन का योग
जन्मकुण्डली के चौथे भाव का स्वामी (चतुर्थेश) एवं दसवें भाव का स्वामी (दशमेश) चन्द्रमा और शनि से युत हो तो ऐसे व्यक्ति का भवन दूजों से अलग, सुन्दर आकर्षक एवं नूतन साज-सज्जा से युक्त होता है।
अनायास दूजों द्वारा निर्मित भवन प्राप्ति का योग
जन्मकुण्डली के चौथे भाव का स्वामी (चतुर्थेश) एवं पहले (लग्न) भाव का स्वामी (लग्नेश) चौथे भाव में हो तो ऐसे व्यक्ति को अचानक भवन की प्राप्ति होती है जोकि दूजों द्वारा निर्मित होता है।
एक से अधिक भवनों का योग
जन्मकुण्डली के चौथे भाव में या चौथे भाव का स्वामी चर राशि (मेष, कर्क, तुला, मकर) में हो और चौथे भाव का स्वामी शुभ ग्रहों से युत या दृष्ट हो तो ऐसा व्यक्ति अनेक भवनों में रहता है और उसे अनेक भवन बदलने पड़ते हैं। यदि चर की जगह स्थिर राशि (वृष, सिंह, वृश्चिक, कुंभ) हो तो व्यक्ति के पास स्थायी भवन होते हैं।
जन्मकुण्डली के चौथे भाव का स्वामी (चतुर्थेश) बली हो तथा लग्न (पहले) का स्वामी, चौथे भाव का स्वामी, दूसरे भाव का स्वामी इन तीनों में से जितने ग्रह केन्द्र-त्रिकोण (1, 4, 5, 7, 9, 10) भाव में हो उतने भवन होते हैं।
भवन, वाहन व नौकर प्राप्ति का योग
जन्मकुण्डली में नौवें भाव का स्वामी दूसरे भाव में और दूसरे भाव का स्वामी नौवें भाव में स्थित हो अर्थात् परिवर्तन योग हो तो ऐसे व्यक्ति का भाग्योदय बारहवें वर्ष में होता है और 32वें वर्ष के उपरान्त उसे वाहन, भवन और नौकर का सुख मिलता है।(क्रमशः)
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