सफलता से तात्पर्य धन एकत्र करना नहीं है। इसी प्रकार लेखक बन जाना, बड़ा पद पा लेना, प्रसिद्ध अभिनेता या स्टार बनना, बड़ी नौकरी पा लेना, नेता या मन्त्री बन जाना, प्रसिद्ध खिलाड़ी बनकर वाहवाही लूटना और नई खोज कर लेना आदि नहीं है। सफलता लक्ष्य को पा लेना भर नहीं है, यह उससे ऊपर है। ऐसे असंख्य लोग है जो धन अर्जन या एकत्र करने के लिए अपने सभी आराम, आमोद-प्रमोद आदि सभी प्राथमिक कार्यों को त्याज्य देते हैं और उनका लक्ष्य ढेर सा धन एकत्र करना होता है।
बहुत लोग ऐसे होते हैं जो अपना साध्य या मंजिल तो पा लेते हैं पर वहां तक पहुंचते-पहुंचते सभी अपनों को खो बैठते हैं और सफलता के सर्वोच्च शिखर पर वे होते हैं मात्र अकेले और उनका ऐसे में जीवन के प्रति उनका उत्साह समाप्त हो चुका होता है। अपने-अपने क्षेत्र में सफलता पाने वालों को सदैव यह मलाल रहता है कि ख्याति, सत्ता और सम्पत्ति हेतु निज सुख की उन्होंने बलि दी है।
ऐसा नहीं होता यदि हम जीवन में बड़ी सफलता को पाने के लिए जो प्रयास कर रहे हैं उस मार्ग में यदि छोटी-छोटी सफलताओं को भी पाने का अवसर देते रहें। यहां छोटी-छोटी सफलताओं से तात्पर्य यह है कि परिवार, मित्रों एवं सहकर्मियों व सहयोगियों से प्रेम, स्नेह व आदर बनाए रखने से है। मित्रों की संख्या भी बढ़ानी चाहिए। यह जान लें कि मित्र धन देने से ही नहीं बल्कि दूजों की प्रशंसा करके, उपहार देकर या उनका प्रोत्साहन या उनको प्रेरणा देकर भी बनाए जाते हैं। सुख सहित सफलता पाने के लिए सफलता के विस्तार के साथ मित्रों की संख्या भी बढ़ानी चाहिए। यदि आप अपनी सफलता मिल-बांटकर ग्रहण करना सीख लें तो आपको कभी अकेलापन महसूस नहीं होगा और आप मित्रों से मिलने वाले आनन्द को पा सकेंगे। यदि आप सफल होकर भी अकेले हैं तो आपने अपने आसपास रहने वालों के मध्य की खाइयों को पाटने के लिए पुल बनाने की अपेक्षा दीवारें खड़ी कर लीं हैं। ऐसा इस लिए भी होता है कि मित्र तो हम बना लेते हैं पर उसे निभाना नहीं जानते या निभाना नहीं चाहते हैं।
सही मायने में हम धन को सुख का कारण समझ लेते हैं। जबकि ऐसा नहीं है, धन तो परेशानी का कारण बन जाता है, धन आते ही असन्तोष एवं शत्रु बढ़ जाते हैं, अपने ही पराए बन जाते हैं, यदि आप उनका ध्यान नहीं रखते हैं तो। धन कमाने की चिन्ता और धन आने के बाद उसे संभालने की चिन्ता एक दूजे में लिप्त रहती है। धन को सुख का कारण समझना अनुचित है। मूलत: दु:ख का कारण लोभ, चिन्ता, ईर्ष्या और सन्देह हैं। जबकि सुख का मूल कारण है-सन्तोष एवं उदारता।
सुख उदार एवं सन्तोषी होने से बढ़ता है। यह जान लें कि असन्तोष व्यक्ति को कहीं का नहीं रखता, उसका सबकुछ नष्ट कर देता है। सन्तोषी सदैव देकर खुश रहता है और जो मिलता है उसे ईश्वर का आभार समझकर प्रसन्न रहता है। असन्तोषी लोग महत्त्वकांक्षी एवं लोभी होते हैं, उन्हें जो मिल जाता है उसे गिनते नहीं और जो नहीं मिलता उसे पाने की होड़ में पागलों की तरह जुटे रहते हैं।
सफल होने की राह में जब आप अपने हमराही ईश्वर, दया, परोपकार एवं उदारता को बनाएंगे तो आपे असन्तोषी एवं उद्विग्न नहीं होंगे क्योंकि तब आपको फल की चिन्ता नहीं होगी, आप तो कर्मपथ के दीवाने होंगे।
सफलता सदैव देश, काल और स्थान की परिस्थितियों पर निर्भर करती है, जबकि सुख सर्वथा आप पर निर्भर करता है। यदि फिर भी आपकी सोच कुछ ओर हो तो सदैव इस बात को ध्यान रखें-जीवन में भौतिक स्तर इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना की मानसिक-स्तर। सफलता सिर्फ भौतिक स्तर उठाती है जबकि सन्तोष से मानसिक-स्तर उठता है। इसलिए हमारा यह कहना है कि सफलता से अधिक सुख को प्राथमिक समझें!
बहुत लोग ऐसे होते हैं जो अपना साध्य या मंजिल तो पा लेते हैं पर वहां तक पहुंचते-पहुंचते सभी अपनों को खो बैठते हैं और सफलता के सर्वोच्च शिखर पर वे होते हैं मात्र अकेले और उनका ऐसे में जीवन के प्रति उनका उत्साह समाप्त हो चुका होता है। अपने-अपने क्षेत्र में सफलता पाने वालों को सदैव यह मलाल रहता है कि ख्याति, सत्ता और सम्पत्ति हेतु निज सुख की उन्होंने बलि दी है।
ऐसा नहीं होता यदि हम जीवन में बड़ी सफलता को पाने के लिए जो प्रयास कर रहे हैं उस मार्ग में यदि छोटी-छोटी सफलताओं को भी पाने का अवसर देते रहें। यहां छोटी-छोटी सफलताओं से तात्पर्य यह है कि परिवार, मित्रों एवं सहकर्मियों व सहयोगियों से प्रेम, स्नेह व आदर बनाए रखने से है। मित्रों की संख्या भी बढ़ानी चाहिए। यह जान लें कि मित्र धन देने से ही नहीं बल्कि दूजों की प्रशंसा करके, उपहार देकर या उनका प्रोत्साहन या उनको प्रेरणा देकर भी बनाए जाते हैं। सुख सहित सफलता पाने के लिए सफलता के विस्तार के साथ मित्रों की संख्या भी बढ़ानी चाहिए। यदि आप अपनी सफलता मिल-बांटकर ग्रहण करना सीख लें तो आपको कभी अकेलापन महसूस नहीं होगा और आप मित्रों से मिलने वाले आनन्द को पा सकेंगे। यदि आप सफल होकर भी अकेले हैं तो आपने अपने आसपास रहने वालों के मध्य की खाइयों को पाटने के लिए पुल बनाने की अपेक्षा दीवारें खड़ी कर लीं हैं। ऐसा इस लिए भी होता है कि मित्र तो हम बना लेते हैं पर उसे निभाना नहीं जानते या निभाना नहीं चाहते हैं।
सही मायने में हम धन को सुख का कारण समझ लेते हैं। जबकि ऐसा नहीं है, धन तो परेशानी का कारण बन जाता है, धन आते ही असन्तोष एवं शत्रु बढ़ जाते हैं, अपने ही पराए बन जाते हैं, यदि आप उनका ध्यान नहीं रखते हैं तो। धन कमाने की चिन्ता और धन आने के बाद उसे संभालने की चिन्ता एक दूजे में लिप्त रहती है। धन को सुख का कारण समझना अनुचित है। मूलत: दु:ख का कारण लोभ, चिन्ता, ईर्ष्या और सन्देह हैं। जबकि सुख का मूल कारण है-सन्तोष एवं उदारता।
सुख उदार एवं सन्तोषी होने से बढ़ता है। यह जान लें कि असन्तोष व्यक्ति को कहीं का नहीं रखता, उसका सबकुछ नष्ट कर देता है। सन्तोषी सदैव देकर खुश रहता है और जो मिलता है उसे ईश्वर का आभार समझकर प्रसन्न रहता है। असन्तोषी लोग महत्त्वकांक्षी एवं लोभी होते हैं, उन्हें जो मिल जाता है उसे गिनते नहीं और जो नहीं मिलता उसे पाने की होड़ में पागलों की तरह जुटे रहते हैं।
सफल होने की राह में जब आप अपने हमराही ईश्वर, दया, परोपकार एवं उदारता को बनाएंगे तो आपे असन्तोषी एवं उद्विग्न नहीं होंगे क्योंकि तब आपको फल की चिन्ता नहीं होगी, आप तो कर्मपथ के दीवाने होंगे।
सफलता सदैव देश, काल और स्थान की परिस्थितियों पर निर्भर करती है, जबकि सुख सर्वथा आप पर निर्भर करता है। यदि फिर भी आपकी सोच कुछ ओर हो तो सदैव इस बात को ध्यान रखें-जीवन में भौतिक स्तर इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना की मानसिक-स्तर। सफलता सिर्फ भौतिक स्तर उठाती है जबकि सन्तोष से मानसिक-स्तर उठता है। इसलिए हमारा यह कहना है कि सफलता से अधिक सुख को प्राथमिक समझें!
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