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शुक्रवार, अप्रैल 08, 2011

उतावला होवे बावला



    सभी को बहुत जल्‍दी रहती है। जिस कार्य में जितना समय लगना चाहिए उतना लगाने का धैर्य ही नहीं है। अभीष्‍ट तुरत-फुरत पा लेना चाहते हैं। तुरत-फुरत के चक्‍कर में कई मार्ग गलत मार्ग पर चल पड़ते हैं जो आगे जाकर अनिष्टिकर होता है। सुमार्ग यही है कि धैर्य सहित सदाचरण का पालन करें और निज दुर्बलताओं को एक-एक करके दूर हटाएं। उतावलापन, जल्‍दबाजी या अधीरता कई बार अधिक पाने की चेष्‍टा सबकुछ गवांने का कारण बन जाती है।
    कोई भी कार्य करने की एक प्रक्रिया होती है जिसके अनुपालन से ही वह कार्य सम्‍पन्‍न होता है। जल्‍दबाजी में कार्य का परिणाम उल्‍टा ही आता है क्‍योंकि इसमें कार्य व्‍यवस्थित ढंग से आदर्श प्रक्रिया के अनुरूप नहीं होता है और सबकुछ अव्‍यवस्थित हो जाता है, इससे व्‍यर्थ का विलम्‍ब भी होता है और कार्य का परिणाम मनोनुकूल नहीं होता है।
    मूलत:  उतावलापन, जल्‍दबाजी या अधीरता  कमजोर मन की विक्षिप्‍तता है। मन की इस दुर्बलता से बचना चाहिए और कार्य व्‍यवस्थित ढंग से करना चाहिए। जल्‍दबाजी में जब कार्य करने के बाद बनता नहीं दिखाई देता है तो उसे बीच में छोड़कर दूसरा कार्य प्रारम्‍भ कर देते हैं, इसमें धन, समय और प्रयास व्‍यर्थ होते हैं। प्रत्‍येक कार्य समय, श्रम और धैर्य के सहयोग से होता है। जब तक तीनों का परस्‍पर उचित अनुपात में योगदान नहीं होता तब तक मनोनुकूल कार्य नहीं बनता है। कहावत भी है कि उतावला होवे बावला। उतावलापन बुद्धि को अस्थिर बनाता है और जीवन को अव्‍यवस्थित। अत: धैर्य, श्रम एवं समय का एक उचित अनुपात रखकर ही कार्य करेंगे तो भरपूर सफलता मिलेगी और परिणाम भी मनोनुकूल होगा।

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