सृष्टि के रचयिता ने सृष्टि को चलाने के लिए विधान बना रखें हैं तभी उसका संचालन वह कर पाता है। सृष्टि का कण-कण सक्रिय है अर्थात् गतिशील है। व्यक्ति अनुकूल दिशा में प्रयत्न करे तो सभी कुछ पा सकता है और यदि प्रतिकूल दिशा में प्रयत्न करे तो मनचाहा परिणाम नहीं पाता है, उसे संघर्ष, दु:ख व कष्ट ही मिलता है।
स्पष्ट है यदि तैराक लहरों के बहाव की दिशा में तैरता है तो आसानी से कहीं से कहीं दूर तक तैर लेता है और यदि वह बहाव के विपरीत तैरता है तो उसका शीघ्र सांस फूल जाता है और थककर कुछ दूर तक ही जा पाता है।
अत: अनुकूल दिशा में चलना ही उचित है। प्रतिकूल दिशा में चलने से शक्तियां ही व्यर्थ होती हैं।
कुत्सित कर्मों का प्रतिफल सदैव कष्टकारी ही होता है, कुछ समय के लिए प्रलोभन की स्थिति रहती है और ऐसे में पथभ्रष्ट कर्मयोगी और कुत्सित कर्म करता जाता है और अन्तत: एक दिन कुप्ररिणाम में सबकुछ खो बैठता है।
प्राय: व्यक्ति को बाह्य आकर्षण पथभ्रष्ट करते हैं। दूसरों के सुख उसे ईर्ष्या कराते हैं, कुत्सित कर्म में लिप्त करते हैं, सरलता के लिए चुटकियों में सबकुछ पा जाने के लिए इतना बहक जाता है कि फिर संभलपाना भी दुष्कर लगता है। ऐसे में उसे लगता है कि पाप एक बार किया या हजार बार किया, कहलाएगा तो पाप ही। जो होगा देखा जाएगा कि सोचकर पापों में और अधिक लिप्त होता जाता है।
जब तक व्यक्ति अनुकूल मार्ग की ओर अग्रसर नहीं होता तब तक उसे दु:खों व कष्टों से मुक्ति नहीं मिलती है।
ईश्वर का विधान एक सुधारक की प्रक्रिया है। उन्नति-अवनति, दिन-रात, सुख-दु:ख आते-जाते रहते हैं।
जो ईश्वर का विधान समझकर उसके दिए दण्ड को पाकर भी नहीं सुधरता है तो वह अन्तत: ईश्वर के द्वारा मृत्यु पाकर जीवन को खो बैठता है। सही अर्थों में व्यक्ति के कर्मों ने ही समस्त विकृतियों को जन्म दिया है, इसीलिए वह स्वयं द्वारा ही प्रताडि़त है और सर्वाधिक दु:खी व परेशान है। प्रकृति या परम शक्ति सृष्टि संचालन के लिए एक सुधारक सदृश सबका शोधन करने में लगी है। जो शुद्ध होकर अनुकूल दिशा में चलता हुआ सुकर्म रत होता है वो सुखी रहता है। वरना अशुद्ध रहकर कुकर्मों में लिप्त होकर अन्तत: दु:ख व कष्ट ही पाता है।
स्पष्ट है यदि तैराक लहरों के बहाव की दिशा में तैरता है तो आसानी से कहीं से कहीं दूर तक तैर लेता है और यदि वह बहाव के विपरीत तैरता है तो उसका शीघ्र सांस फूल जाता है और थककर कुछ दूर तक ही जा पाता है।
अत: अनुकूल दिशा में चलना ही उचित है। प्रतिकूल दिशा में चलने से शक्तियां ही व्यर्थ होती हैं।
कुत्सित कर्मों का प्रतिफल सदैव कष्टकारी ही होता है, कुछ समय के लिए प्रलोभन की स्थिति रहती है और ऐसे में पथभ्रष्ट कर्मयोगी और कुत्सित कर्म करता जाता है और अन्तत: एक दिन कुप्ररिणाम में सबकुछ खो बैठता है।
प्राय: व्यक्ति को बाह्य आकर्षण पथभ्रष्ट करते हैं। दूसरों के सुख उसे ईर्ष्या कराते हैं, कुत्सित कर्म में लिप्त करते हैं, सरलता के लिए चुटकियों में सबकुछ पा जाने के लिए इतना बहक जाता है कि फिर संभलपाना भी दुष्कर लगता है। ऐसे में उसे लगता है कि पाप एक बार किया या हजार बार किया, कहलाएगा तो पाप ही। जो होगा देखा जाएगा कि सोचकर पापों में और अधिक लिप्त होता जाता है।
जब तक व्यक्ति अनुकूल मार्ग की ओर अग्रसर नहीं होता तब तक उसे दु:खों व कष्टों से मुक्ति नहीं मिलती है।
ईश्वर का विधान एक सुधारक की प्रक्रिया है। उन्नति-अवनति, दिन-रात, सुख-दु:ख आते-जाते रहते हैं।
जो ईश्वर का विधान समझकर उसके दिए दण्ड को पाकर भी नहीं सुधरता है तो वह अन्तत: ईश्वर के द्वारा मृत्यु पाकर जीवन को खो बैठता है। सही अर्थों में व्यक्ति के कर्मों ने ही समस्त विकृतियों को जन्म दिया है, इसीलिए वह स्वयं द्वारा ही प्रताडि़त है और सर्वाधिक दु:खी व परेशान है। प्रकृति या परम शक्ति सृष्टि संचालन के लिए एक सुधारक सदृश सबका शोधन करने में लगी है। जो शुद्ध होकर अनुकूल दिशा में चलता हुआ सुकर्म रत होता है वो सुखी रहता है। वरना अशुद्ध रहकर कुकर्मों में लिप्त होकर अन्तत: दु:ख व कष्ट ही पाता है।
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