सुख-दुःख एक सिक्के के दो पहलू हैं, सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख आता ही रहता है। संसार में कोई ऐसा व्यक्ति ढूंढने से भी नहीं मिलेगा जिसने दुःख का सामना न किया हो। संसार में कोई भी एक ऐसा नहीं होगा जो दुःखी न हो। नानक जी ने कहा भी था कि नानक दुखिया सब संसार।
सुख होते हुए भी कभी न कभी एकरसता से ऊब उत्पन्न हो जाती है और यह ऊब दुःख का कारण बन जाती है। यह मन की प्रवृत्ति है कि उसे कोई भी एक स्थिति निरन्तर पसन्द नहीं है!
यदि आप अभी सुखी हैं तो एक दिन आपको दुःख की अनुभूति किसी न किसी कारण वश करनी ही होगी और यदि आप दुःखी हैं तो किसी भी कारण वह एक दिन सुख की अनुभूति से दो चार होना ही पड़ेगा।
वस्तुतः सुख-दुःख है क्या? जीवन में आने वाली विभिन्न परिस्थितियों का परिवर्तन मात्र ही सुख-दुःख के नाम से जाना जाता है। लेकिन यह भी सत्य नहीं है! सत्य तो यह है कि सुख-दुःख का कारण मनःस्थिति है जो किसी भी परिस्थिति में सुख या दुःख का कारण बन जाती है। मूलतः सुख और दुःख मन के कारण उत्पन्न होते हैं। स्पष्ट है कि सुख-दुःख मनोजन्य ही होते हैं।
सुख-दुःख के लिए परिस्थितियों को दोषी मानना अज्ञानता है। सुखः-दुःख का मूल कारण अन्तःकरण में निहित है, सुख की चाह पूर्ण करने के लिए मन पर ध्यान देना होगा। मन प्रसन्न है तो चहुं ओर प्रसन्नता ही दृष्टिगोचर होगी।
प्रसन्न मन हर परिस्थिति का सामना हंसकर ही करता है। उसे परिश्रम में आनन्द, संघर्ष में सुख और असफलता में सफलता का सूत्र मिलता है जिस कारण अन्ततः वह सफलता का स्वागत् करता है।
जो संघर्षों एवं परेशानियों से भयभीत होता है वह कभी भी उत्साहित नहीं होता है और फलतः वह असफल होकर दुःखी ही होता है। अनुकूलता में हर्ष और प्रतिकूलता में दुःखी होना मन की निर्बलता है। निर्बल मन से युक्त व्यक्ति मृतक सदृश जीवन जीता है। सुख की चाह रखें पर परेशानियों से लड़ने का उत्साह भी रखेंगे तो परेशानियां सुख-सफलता ही लेकर आएंगी नाकि दुःख-असफलता। जो परेशानियों को अवरोध समझकर ठिठक जाते हैं अर्थात् रुक जाते हैं वे ही दुःखी होते हैं और जो ठिठके बिना परेशानियों को परास्त कर आगे निकल जाते हैं वो ही सुख के भागी होते हैं।
आशा और उत्साह मन के बल हैं, जिसके पास हैं वे प्रत्येक परिस्थिति में जो चाहते हैं वे पाते हैं! आशा और उत्साह अन्तः में हैं उन्हें पुकारकर जगाएंगे तो मन बली हो जाएगा और तब परेशानियां आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएंगी।
सुख की चाह रखें पर दुःख से भयभीत न हों! आशा और उत्साह को जगाएंगे तो सुख आपके द्वार पर खड़ा होकर अन्दर आने को तत्पर दिखेगा।
सुख होते हुए भी कभी न कभी एकरसता से ऊब उत्पन्न हो जाती है और यह ऊब दुःख का कारण बन जाती है। यह मन की प्रवृत्ति है कि उसे कोई भी एक स्थिति निरन्तर पसन्द नहीं है!
यदि आप अभी सुखी हैं तो एक दिन आपको दुःख की अनुभूति किसी न किसी कारण वश करनी ही होगी और यदि आप दुःखी हैं तो किसी भी कारण वह एक दिन सुख की अनुभूति से दो चार होना ही पड़ेगा।
वस्तुतः सुख-दुःख है क्या? जीवन में आने वाली विभिन्न परिस्थितियों का परिवर्तन मात्र ही सुख-दुःख के नाम से जाना जाता है। लेकिन यह भी सत्य नहीं है! सत्य तो यह है कि सुख-दुःख का कारण मनःस्थिति है जो किसी भी परिस्थिति में सुख या दुःख का कारण बन जाती है। मूलतः सुख और दुःख मन के कारण उत्पन्न होते हैं। स्पष्ट है कि सुख-दुःख मनोजन्य ही होते हैं।
सुख-दुःख के लिए परिस्थितियों को दोषी मानना अज्ञानता है। सुखः-दुःख का मूल कारण अन्तःकरण में निहित है, सुख की चाह पूर्ण करने के लिए मन पर ध्यान देना होगा। मन प्रसन्न है तो चहुं ओर प्रसन्नता ही दृष्टिगोचर होगी।
प्रसन्न मन हर परिस्थिति का सामना हंसकर ही करता है। उसे परिश्रम में आनन्द, संघर्ष में सुख और असफलता में सफलता का सूत्र मिलता है जिस कारण अन्ततः वह सफलता का स्वागत् करता है।
जो संघर्षों एवं परेशानियों से भयभीत होता है वह कभी भी उत्साहित नहीं होता है और फलतः वह असफल होकर दुःखी ही होता है। अनुकूलता में हर्ष और प्रतिकूलता में दुःखी होना मन की निर्बलता है। निर्बल मन से युक्त व्यक्ति मृतक सदृश जीवन जीता है। सुख की चाह रखें पर परेशानियों से लड़ने का उत्साह भी रखेंगे तो परेशानियां सुख-सफलता ही लेकर आएंगी नाकि दुःख-असफलता। जो परेशानियों को अवरोध समझकर ठिठक जाते हैं अर्थात् रुक जाते हैं वे ही दुःखी होते हैं और जो ठिठके बिना परेशानियों को परास्त कर आगे निकल जाते हैं वो ही सुख के भागी होते हैं।
आशा और उत्साह मन के बल हैं, जिसके पास हैं वे प्रत्येक परिस्थिति में जो चाहते हैं वे पाते हैं! आशा और उत्साह अन्तः में हैं उन्हें पुकारकर जगाएंगे तो मन बली हो जाएगा और तब परेशानियां आपका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाएंगी।
सुख की चाह रखें पर दुःख से भयभीत न हों! आशा और उत्साह को जगाएंगे तो सुख आपके द्वार पर खड़ा होकर अन्दर आने को तत्पर दिखेगा।
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