प्रकृति की समर्पण भावना अटूट है!
प्रकृति जीवों के प्रति समर्पित है इसीलिए उसमें समर्पण भावना अटूट है। प्रकृति की इस सीख को तुरन्त ग्रहण कर लेना चाहिए। समर्पण का भाव आप में लगन उत्पन्न कर देता है। आपको एकाग्र बना देता है। आपका ध्यान पूर्णत: लक्ष्य के प्रति होता है, फल की चिन्ता भी नहीं रहती है। आपका ध्यान जैसा होता है आप वैसे ही बनते हैं। आपका ध्यान ध्यान भूतकाल की ओर रहता है तो आप भूतकाल के हो जाते हैं। आप भविष्य का ध्यान करते हैं तो आप भविष्य के लिए चिन्ता करने लगते हैं। आपको वर्तमान का ध्यान रखना चाहिए। अतीत का ध्यान नहीं करना चाहिए। अतीत से मात्र सीख लेनी चाहिए जिससे वर्तमान को उत्साह और लगन से हूबहू जी सकें। आपको भविष्य की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। अतीत की सीख से वर्तमान को प्रतिक्षण जी लेने से भविष्य स्वत: सुन्दर बनकर आपको आकर्षित करने लगता है।
जो करें, जैसा करें, अच्छा करें या बुरा करें पूर्ण समर्पण भाव से करें। आप अनुभूत करेंगे कि जीवन की अनेकता एकता में परिवर्तित होती जा रही है। उसमें उत्साह का नया रंग बिखरता जा रहा है। आपके चहुं ओर विपुलता, सम्पन्नता, वैभव एवं प्रचुरता असीम रूप में आती जा रही है, लेकिन फिर भी आप उसे बटोरने के लिए चिन्तित नहीं हैं क्योंकि जो चाह रहे हैं, जब चाह रहे हैं, स्वत: मिलता जा रहा है। आपने तो मात्र समर्पण किया है। आपका समर्पण किसी के प्रति भी हो सकता है-ईश्वर, परिवार, मित्र, शत्रु, कार्य या चाहे कोई भी जिसके प्रति आप देना चाहते हैं। समर्पण से समृद्धि का द्वार खुल जाता है। आपको ध्यान केन्द्रित करना है।
आपका ध्यान समृद्धि की ओर है और यह अपूर्ण नहीं है तो समृद्धि स्वत: आप तक पहुंच जाएगी। ध्यान अपूर्ण हो अर्थात् समर्पण में पूर्णता नहीं है तो आपमें और आपके ध्यान में भी पूर्णता नहीं होगी। सम्पूर्णता ध्यान से आती है और ध्यान समर्पण भाव से लगने पर लगता है। समर्पण को अपनाने की सरल रीति इस प्रकार है। आप दूजों को कुछ न कुछ किसी भी रूप में देते रहें। आप उपहार, पुष्प, शुभकामना या प्रशंसा भी कर सकते हैं। यह भी नहीं कर सकते तो उसके लिए ईश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं। प्रकृति की प्रचुरता से कुछ भी लेकर दे सकते हैं।
जब तक आप देना नहीं जानते तब तक आप पाने के लिए भी अधिकृत नहीं हैं। देने वाला ही लेने का अधिकारी है। दूसरों की इच्छा-पूर्ति में सहायक बनेंगे तो आप स्वत: अपनी इच्छाओं को सहज में पूर्ण कर सकेंगे।
समर्पण देने से बढ़ता है। समर्पण में तब अत्यधिक वृद्धि होती है, जब आप प्रसन्नता सहित कुछ भी देते हैं। देते समय भावना शुद्ध होनी चाहिए। देकर खोने की भावना नकारात्मक भाव है, इससे कदापि वृद्धि नहीं होती है, अपितु दु:खी होकर दी गई वस्तु निरर्थक एवं लाभहीन है।
बीज में वृक्ष बनने की संभावना निहित है। बीज संग्रह से विकास नहीं होता है अपितु रोपित करने से उसमें छिपी संभावना स्फुरित होकर विकास पाती है। समर्पण को बीज सदृश नित्य रोपित करते जाएंगे तो एक दिन उससे उपजी फसल को काटने की सामर्थ्य आपके पास नहीं होगी।
सम्बन्ध लेने-देने से बनते हैं। जब न कुछ देंगे या न कुछ लेंगे तो सम्बन्ध कैसेट बनेंगे। समृद्धि प्रचुरता में निहित है। प्रचुरता प्रवाह या विस्तार में छिपी है। निरन्तर प्रवाह, गतिशीलता या निरन्तर लेन-देन या समर्पण होते रहने से ही समृद्धि होती है। प्रकृति के निरन्तर समर्पण को देख लें, आप स्वत: समझ जाएंगे कि देने में ही प्राइज़ का रहस्य छिपा है। प्रकृति से बेहतर समर्पण का भाव कोई नहीं सिखा सकता। वाहन निरन्तर चलते रहने पर गन्तव्य तक पहुंचता है, रुक जाने या खराब हो जाने पर गन्तव्य तक पहुंच पाना कठिन हो जाता है। समर्पण को पूर्णत: सहित अपनाएंगे तो समृद्धि का असीमित भंडार आपके सम्मुख होगा। (क्रमश:)
(आप समृद्धि के रहस्य से वंचित न रह जाएं इसलिए ज्योतिष निकेतन सन्देश पर प्रतिदिन आकर 'समृद्ध कैसे बनें' सीरीज के लेख पढ़ना न भूलें! ये लेख आपको सफलता का सूत्र दे सकते हैं, इस सूत्र के अनुपालन से आप समृद्ध बनने का सुपथ पा सकते हैं!)
प्रकृति जीवों के प्रति समर्पित है इसीलिए उसमें समर्पण भावना अटूट है। प्रकृति की इस सीख को तुरन्त ग्रहण कर लेना चाहिए। समर्पण का भाव आप में लगन उत्पन्न कर देता है। आपको एकाग्र बना देता है। आपका ध्यान पूर्णत: लक्ष्य के प्रति होता है, फल की चिन्ता भी नहीं रहती है। आपका ध्यान जैसा होता है आप वैसे ही बनते हैं। आपका ध्यान ध्यान भूतकाल की ओर रहता है तो आप भूतकाल के हो जाते हैं। आप भविष्य का ध्यान करते हैं तो आप भविष्य के लिए चिन्ता करने लगते हैं। आपको वर्तमान का ध्यान रखना चाहिए। अतीत का ध्यान नहीं करना चाहिए। अतीत से मात्र सीख लेनी चाहिए जिससे वर्तमान को उत्साह और लगन से हूबहू जी सकें। आपको भविष्य की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। अतीत की सीख से वर्तमान को प्रतिक्षण जी लेने से भविष्य स्वत: सुन्दर बनकर आपको आकर्षित करने लगता है।
जो करें, जैसा करें, अच्छा करें या बुरा करें पूर्ण समर्पण भाव से करें। आप अनुभूत करेंगे कि जीवन की अनेकता एकता में परिवर्तित होती जा रही है। उसमें उत्साह का नया रंग बिखरता जा रहा है। आपके चहुं ओर विपुलता, सम्पन्नता, वैभव एवं प्रचुरता असीम रूप में आती जा रही है, लेकिन फिर भी आप उसे बटोरने के लिए चिन्तित नहीं हैं क्योंकि जो चाह रहे हैं, जब चाह रहे हैं, स्वत: मिलता जा रहा है। आपने तो मात्र समर्पण किया है। आपका समर्पण किसी के प्रति भी हो सकता है-ईश्वर, परिवार, मित्र, शत्रु, कार्य या चाहे कोई भी जिसके प्रति आप देना चाहते हैं। समर्पण से समृद्धि का द्वार खुल जाता है। आपको ध्यान केन्द्रित करना है।
आपका ध्यान समृद्धि की ओर है और यह अपूर्ण नहीं है तो समृद्धि स्वत: आप तक पहुंच जाएगी। ध्यान अपूर्ण हो अर्थात् समर्पण में पूर्णता नहीं है तो आपमें और आपके ध्यान में भी पूर्णता नहीं होगी। सम्पूर्णता ध्यान से आती है और ध्यान समर्पण भाव से लगने पर लगता है। समर्पण को अपनाने की सरल रीति इस प्रकार है। आप दूजों को कुछ न कुछ किसी भी रूप में देते रहें। आप उपहार, पुष्प, शुभकामना या प्रशंसा भी कर सकते हैं। यह भी नहीं कर सकते तो उसके लिए ईश्वर से प्रार्थना कर सकते हैं। प्रकृति की प्रचुरता से कुछ भी लेकर दे सकते हैं।
जब तक आप देना नहीं जानते तब तक आप पाने के लिए भी अधिकृत नहीं हैं। देने वाला ही लेने का अधिकारी है। दूसरों की इच्छा-पूर्ति में सहायक बनेंगे तो आप स्वत: अपनी इच्छाओं को सहज में पूर्ण कर सकेंगे।
समर्पण देने से बढ़ता है। समर्पण में तब अत्यधिक वृद्धि होती है, जब आप प्रसन्नता सहित कुछ भी देते हैं। देते समय भावना शुद्ध होनी चाहिए। देकर खोने की भावना नकारात्मक भाव है, इससे कदापि वृद्धि नहीं होती है, अपितु दु:खी होकर दी गई वस्तु निरर्थक एवं लाभहीन है।
बीज में वृक्ष बनने की संभावना निहित है। बीज संग्रह से विकास नहीं होता है अपितु रोपित करने से उसमें छिपी संभावना स्फुरित होकर विकास पाती है। समर्पण को बीज सदृश नित्य रोपित करते जाएंगे तो एक दिन उससे उपजी फसल को काटने की सामर्थ्य आपके पास नहीं होगी।
सम्बन्ध लेने-देने से बनते हैं। जब न कुछ देंगे या न कुछ लेंगे तो सम्बन्ध कैसेट बनेंगे। समृद्धि प्रचुरता में निहित है। प्रचुरता प्रवाह या विस्तार में छिपी है। निरन्तर प्रवाह, गतिशीलता या निरन्तर लेन-देन या समर्पण होते रहने से ही समृद्धि होती है। प्रकृति के निरन्तर समर्पण को देख लें, आप स्वत: समझ जाएंगे कि देने में ही प्राइज़ का रहस्य छिपा है। प्रकृति से बेहतर समर्पण का भाव कोई नहीं सिखा सकता। वाहन निरन्तर चलते रहने पर गन्तव्य तक पहुंचता है, रुक जाने या खराब हो जाने पर गन्तव्य तक पहुंच पाना कठिन हो जाता है। समर्पण को पूर्णत: सहित अपनाएंगे तो समृद्धि का असीमित भंडार आपके सम्मुख होगा। (क्रमश:)
(आप समृद्धि के रहस्य से वंचित न रह जाएं इसलिए ज्योतिष निकेतन सन्देश पर प्रतिदिन आकर 'समृद्ध कैसे बनें' सीरीज के लेख पढ़ना न भूलें! ये लेख आपको सफलता का सूत्र दे सकते हैं, इस सूत्र के अनुपालन से आप समृद्ध बनने का सुपथ पा सकते हैं!)
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