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बुधवार, फ़रवरी 23, 2011

14-समृद्ध कैसे बनें?


 
    प्रकृति शोध की प्रेरणा देती है!
    प्रकृति हमारे सम्‍मुख दो रूपों में दृष्टिगोचर होती है-व्‍यक्‍त एवं अव्‍यक्‍त। व्‍यक्‍त रूप प्रकृति का शोध के उपरान्‍त ज्ञात रूप है जिसको हम शोधार्थियों(वैज्ञानिकों) के अकल्‍पनीय प्रयासों से जान चुके हैं और शोध तो निरन्‍तर हो रहे हैं जोकि सदैव होते रहेंगे। प्रकृति का जो अव्‍यक्‍त रूप है उसे जानना शेष है। यही शेष हमें शोध का निमन्‍त्रण देता है। जो इस आवाह्न को स्‍वीकार लेता है, वह कुछ व्‍यक्‍त करने के लिए शोधार्थी बन जाता है।
    शोधार्थी आप भी बन सकते हैं, विचार करके देखें। जगत् को समृद्ध करने में इन शोधार्थियों का महत्‍वपूर्ण योगदान है क्‍योंकि वे समृद्धि के ज्ञात साधन जुटाते हैं। प्रकृति रूपी पुस्‍तक को पढ़ने वाला जितना उसे व्‍यवहार-रूप में पढ़ता जाता है उतना समृद्ध होता जाता है। वस्‍तुत: समृद्ध होने के लिए प्रकृति के व्‍यक्‍त और अव्‍यक्‍त रूपों को जानना मात्र है।
     व्‍यक्‍त को जान लेने मात्र से ही व्‍यक्ति समृद्ध होने लगता है। अव्‍यक्‍त को जानने के प्रयास मात्र से तो समृद्धि का झरना अविरल रूप में बहने लगता है।
    अत: अपने साधनों के अनुरूप प्रकृति से प्रेरणा लेकर शोध के प्रयास में संलग्‍न रहने का प्रयास करना चाहिए। यदि ऐसा किया तो समझ लें कि आपने अपने समृद्ध होने का मार्ग निश्चित कर लिया है।
    शोध से आपको निए विचार और नया ज्ञान मिलता है जोकि समाज-कल्‍याण, यश, धन एवं सुख का कारक बन जाता है। (क्रमश:)
(आप समृद्धि के रहस्‍य से वंचित न रह जाएं इसलिए ज्‍योतिष निकेतन सन्‍देश पर प्रतिदिन आकर 'समृद्ध कैसे बनें' सीरीज के लेख पढ़ना न भूलें! ये लेख आपको सफलता का सूत्र दे सकते हैं, इस सूत्र के अनुपालन से आप समृद्ध बनने का सुपथ पा सकते हैं!)

1 टिप्पणी:

  1. शोध की चर्चा की है आपने...मेरा यह मत है कि ज्योतिष के संदर्भ में शोध की महती आवश्यकता है। आजकल ज्योतिष को समाज में बहुत ही हेय दृष्टि से देखा जाता है। ज्योतिष, तंत्र-मन्त्र-यंत्र, कर्मकांड अथवा भारतीय दर्शन से सम्बंधित शास्त्रों की बात करते ही लोग हमें दकियानूसी विचारधारा वाला मानने लगते हैं। पाश्चात्य सभ्यता की अनुचित बातों का तो अंधानुकरण करते हैं परन्तु वहाँ के अनुशासन को अपने जीवन में उतारने से बचते हैं। आज जहां दूसरे राष्ट्र अपनी सभ्यता संस्कृति से सम्बंधित विचारों पर शोध कर रहे हैं वही भारतभूमि के नौनिहाल यहाँ की संस्कृति को पौराणिक, असामयिक और अप्रासंगिक मानते हैं।

    गोपाल

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