एक बार स्वामी विवेकानन्द के पास एक धनी सेठ आकर बोला-'स्वामी जी, मेरे पास सबकुछ है पर सुख का नामोनिशान तक नहीं। मैं देखता हूं कि जो दिन भर परिश्रम के बाद रूखी-सूखी रोटी खाते हैं, वे मुझसे अधिक सुखी हैं। मुझे सुख चाहिए, उसे मैं किसी भी मूल्य पर खरीदने को तैयार हूं।'
स्वामी जी मुस्कराकर बोले-'सुख बहुत मूल्यवान है, आप उसे नहीं खरीद सकोगे।'
सेठ बड़े गर्व के साथ बोला-'आप मुझे बताएं, मैं तो अपना सारा धन देकर भी उसे खरीदना चाहता हूं।'
स्वामी जी बोले-'अपनी बात से पीछे तो नहीं हटोगे।' सेठ ने स्वामी जी के चरण छूकर सौगन्ध उठायी कि मैं इसे कभी नहीं तोडूंगा। तब स्वामी जी बोले-'ठीक है, तुम अपना सारा धन कुएं में फेंक आओ। तब मैं बता दूंगा कि सुखी जीवन कहां मिलता है।'
सेठ चुपचाप वहां से चला आया। रास्ते में उसके मन में एक बात आई कि क्यों न मैं सारा धन गरीबों और अपाहिजों में बांट दूं। घर वालों के विरोध के बाद भी उसने ऐसा ही किया, सारा धन गरीबों में बांट दिया। उस रात उसे बहुत गहरी नींद आई। अगले दिन जब वह स्वामी जी के पास पहुंचकर उसने सबकुछ बता दिया।
स्वामी जी बोले-'अब तुम उन पत्थर तोड़ने वालों के पास जाओ, वे ही तुम्हें सुखी जीवन के विषय में बताएंगे।'
सेठ पत्थर तोड़ने वालों के पास गया। उनके साथ दिन पर कठोर परिश्रम करने के बाद पसीने से तरबतर घर की ओर चल दिया। यह अवश्य था कि उसे चेहरे पर पसीने के पीछे से कान्ति दिखाई दे रही थी। संयोग से उसे रास्ते में स्वामी जी मिल गए। सेठ जी का यह हुलिया देखकर वे बोले-'अरे, सेठ जी यह क्या हालत बना रखी है।'
सेठ तुरन्त बोला-'स्वामी जी, मैं जो वस्तु चाहता था वह मुझे मिल गई। मैं समझ गया हूं कि परिश्रम में ही सच्चा सुख है। मैं आज अपने वर्तमान से बहुत सुखी हूं।'
सच्चा सुख व सन्तुष्टि वर्तमान को सश्रम व मेलजोल संग जीने में है। ऐसे लाखों लोग हैं जो अपने वर्तमान से खुश नहीं हैं। उनके पास अपनी अप्रसन्नता कोई ठोस कारण नहीं है। उन्हें बस इतना पता है कि वे दु:खी हैं, स्वयं से खुश नहीं हैं। खुशी को पाने के लिए वे इधर-उधर भटकते फिरते हैं। क्या इस तरह वे सच्ची सुखी पा सकते हैं। सच्चा सुख तो उनके स्वयं के पास है। जो परिश्रम एवं अच्छे कार्यों में छिपा है।
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