स्वामी योगानन्द गंगातट पर बैठे अपने शिष्यों को जीव और ब्रह्म की एकता का सार बता रहे थे। जिज्ञासु शिष्य बोला,'स्वामी जी ईश्वर सर्वज्ञ है और जीव अल्पज्ञ फिर इस भिन्नता के होते हुए एकता कैसी?' योगानन्द जिज्ञासु शिष्य से बोले,'एक लोटा गंगाजल भर लाओ।' शिष्य नीचे गंगा से लोटे में जल भर लाया। स्वामी जी बोले,'गंगा के जल में और लोटे के जल में कोई अन्तर तो नहीं है।' शिष्य प्रत्युत्तर में बोला,'नहीं।' स्वामी जी बोले,'सामने गंगाजी में नाव चल रही है। उस नाव को इस लोटे में के जल में भी चलाओ।' शिष्य बोला,'लोटा छोटा है, इसमें थोड़ा जल है, इतने में भला नाव कैसे चलेगी।'
स्वामी जी शिष्यों से बोले,'वत्स! जीव एक छोटे दायरे में सीमाबद्ध होने के कारण लोटे के जल के समान अल्प और अशक्त है। यदि यह जल पुनः गंगा में लौटा दिया जाए तो उस पर नाव चलने लगेगी। इसी प्रकार जीव संकीर्णता के बन्धन काटकर महान् बन जाए तो ईश्वर जैसी सर्वज्ञता और शक्ति उसे भी सहज प्राप्त हो सकती है।'
जिज्ञासु शिष्य यह जान चुका था कि बिना संकीर्णता त्यागे महान् नहीं बना जा सकता है। ईश्वर सदृश बनने के लिए जीव को अपनी अविद्या को तजकर कुछ विशेष करना होगा तभी वह ईश सदृश सर्वज्ञ बन सकेगा।
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