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रविवार, जून 27, 2010

आस्था आनन्ददायी है!-सत्यज्ञ



आस्था यानि विश्वास जीवन का मूलाधार है। आस्था स्वयं में, सिद्धान्तों में, धर्म या ईश्वर में हो सकती है। आस्था किसी में भी हो इसकी अभिव्यक्ति स्वयं के संग होती है। शरीर स्वयं नहीं है, वह तो अभिव्यक्ति का माध्यम है। जो शरीर करता है उसका अनुभव उसको न होकर किसी अन्य को होता है जो इसमें विद्यमान है, वह मन है या ईश्वरांश(आत्मा) है। अतः स्वयं में आस्था का अर्थ है ईश्वर में आस्था। सर्वविदित है कि ग्रह नक्षत्रादि से जीवन प्रभावित होता है। वैसे भी मन त्रिगुणों में लिप्त है, इनसे अलग जो मन है वही स्वयं है जोकि ईश्वर रूप में सम्पूर्ण देह में विराजमान है। जब उस अदृश्य शक्ति पर छोड़कर स्वयं को निमित्त मात्र मानेंगे तो विनयशीलता बनी रहेगी, अहंकार घटेगा व जीवन तनाव मुक्त हो जाएगा। स्वयं में आस्था से उस शक्ति का संचार बना रहता है। इससे आत्मबल बढ़ता है, निर्णय गलत नहीं होते, व्यवहार गलत नहीं होता, लक्ष्य तक पहुंचना निश्चित रहता है। विचार सकारात्मक हो जाते हैं। सबके प्रति प्रेमभाव बना रहता है। सकारात्मक सृजनशील है जबकि नकारात्मक विध्वंसकारी है। आस्था रहित जीवन निरर्थक है, भार स्वरूप है। ऐसे में न कोई उद्देश्य बनता है और न पूर्ण होता है। जब उद्देश्य बन जाए तो उसमें भी आस्था रखनी चाहिए। बिना आस्था के तो कुछ भी पूरा नहीं होता है। स्वजन, परिजन, मित्रजन व सभी जाने-पहचाने आस्था व विश्वास के अवलम्ब होते है। आस्था को बलवती बनाना चाहिए। आस्था जब भी प्रबल होती है, जीवन में आनन्द स्वतः प्रतिष्ठित हो जाता है। आप किसी पर आस्था रखकर देखें, आप को लगने लगेगा कि आस्था आनन्ददायी है। आस्था के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है। आस्था को अन्तः में जगह दें तो कुछ कहना नहीं पड़ेगा।

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