ध्यान ही जब ईश्वर के स्वरूप या स्वभाव को प्रकाशित करने वाला निज स्वरूप से शून्य सदृश होता है, तब उसे समाधि करते हैं। ध्यान जब परम लक्ष्य ईश्वर को प्रकाशित करने लगे तब उसे समाधि कहते हैं।
समाधि क्या है?
आनन्दमयी, ज्योतिर्मय व शान्तिमय ईश्वर का ध्यान करता हुआ साधक ओंकार ब्रह्म परमेश्वर में इतना तल्लीन, तन्मय व तद्रूप-सा हो जाता है कि वह स्वयं को भी भूल-सा जाता है, तब मात्र ईश्वर के दिव्य आनन्द का अनुभव होने लगता है, यही स्वरूप शून्यता है।
नदी जब समुद्र में प्रवेश करती है, तब वह समुद्र के साथ एकाकार हो जाती है। ध्यान के समय सच्चिदानन्द परमेश्वर के अतिरिक्त अन्य विषय का स्मरण नहीं रहता है, अपितु उस अन्तर्यामी ब्रह्म के आनन्दमयी, ज्योतिर्मय व शान्तिमयी स्वरूप में मग्न हो जाना ध्यान है।
धारणा ध्यान की नींव है। ज्यों-ज्यों धारणा का अभ्यास परिपक्व होगा ध्यान भी साथ-साथ होने लगेगा। मूलतः धारणा मन को स्थूल विषय से हटाकर सूक्ष्म लक्ष्य आत्मा व परमात्मा आदि पर केन्द्रित करने को कहते हैं।
महर्षि दयानन्द जी के शब्दों में ध्यान एवं समाधि में इतना ही भेद है कि ध्यान में तो ध्यान करने वाला, जिस मन से, जिस वस्तु का ध्यान करता है, वे तीनों विद्यमान रहते हैं। परन्तु समाधि में मात्र परमेश्वर के आनन्दमयी, शान्तिमयी, ज्योतिर्मय स्वरूप व दिव्य ज्ञानालोक में आत्मा निमग्न हो जाता है, वहां तीनों का भेदभाव नहीं रहता है।
जैसे मनुष्य जल में डुबकी लगाकर थोड़ा समय भीतर ही भीतर रुका रहता है, वैसे ही जीवात्मा परमेश्वर के आनन्द में मग्न होकर समाधि का आनन्द लेता रहता है।
इसी तथ्य को मुनि लोग अन्य शब्दों में यूं कहते हैं कि जैसे अग्नि के बीच लोहा डालने पर वह भी अग्नि रूप हो जाता है, इसी प्रकार परमेश्वर के दिव्यज्ञानालोक में आत्मा के प्रकाशमय होकर निज शरीर आदि को भी भूले हुए के समान जानकर स्वयं को परमेश्वर के प्रकाश स्वरूप आनन्द और पूर्ण ज्ञान में परिपूर्ण करने को समाधि कहते हैं।
श्री भोज महाराज समाधि का वर्णन इस प्रकार करते हैं-सम्यगाधीयत एकाग्री क्रियते विक्षेपान् परिहृत्य मनो यत्र स समाधिः। अर्थात् जिसमें मन को विक्षेपों से हटाकर यथार्थता से धारण किया जाता है यानि एकाग्र किया जाता है, वह समाधि है।
योगदर्शन के प्रथम पाद में वर्णित सवितर्क समापत्ति को ध्यान की एक अवस्था समझनी चाहिए क्योंकि उसमें शब्द, अर्थ एवं ज्ञान के विकल्प होते हैं। निर्वितर्क समापत्ति को समाधि की अवस्था समझनी चाहिए।
यह सम्प्रज्ञात समाधि उन्नत अवस्था में ऋतम्भरा प्रज्ञा साधक को भागवत प्रसाद के रूप में प्राप्त होती है। इसके बाद समाधि की भी उन्नत श्रेणी है-निर्बीज समाधि।
निर्बीज समाधि की स्थिति में संसार के विषय भोग वासनाओं के चित्त में संस्कार भी नहीं रहते, संस्कारों के बीज सहित नाश होने पर सब वृत्तियों का पूर्ण निरोध हो जाता है। फिर भव बन्धन में गिरने की सम्भावना भी नष्ट हो जाती है। इसको ही निर्बीज समाधि कहते हैं।
यह उन्नत है और इस स्थिति में जीवन की पूर्णता है जिसे प्राप्त करके योगी कहता है, ये शब्द महर्षि व्यास के हैं-प्राप्तं प्रापणीयं, क्षीणाः क्षेतव्याः क्लेशाः, छिन्नः श्लिष्टपर्वा भवसंक्रमः। यस्याविच्छेदाज्जनित्वा म्रियते मृत्वा च जायत इति। ज्ञानस्यैव पराकाष्ठा वैराग्यम्। एतस्यैव हि नान्तरीयकं कैवल्यमिति॥-योगव्यास भाष्यम् 1/16
ज्ञान की पराकाष्ठा अर्थात् चरमसीमा ही वैराग्य है। समाधि द्वारा ज्ञान के इस उच्चतम क्षितिज की प्राप्ति होने पर मोक्ष अवश्यंभावी है। इसे पाकर योगी इस प्रकार अनुभव करता है कि प्राप्त करने योग्य सब कुछ पा लिया, क्षीण करने योग्य अविद्यादि क्लेश(अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, अभिनिवेश) नष्ट हो गए हैं। जिसके पर्व मिले हुए हैं, ऐसा एक देह से दूसरे देह की प्राप्ति रूप संसार का आवागमन छिन्न-भिन्न हो गए हैं, संक्षेप में यही समाधि का वर्णन है। मूलतः समाधि मोक्ष मार्ग प्रशस्त करती है।
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