शनि के नाम से सभी उसे जानते हैं। ऋग्वेद और यजुर्वेद के सूक्त में अंकित है कि ऊँ शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये शंय्योरभि स्रवन्तु नः। इसका अर्थ है कि दिव्य गुण वाले जल हमको अभीष्ट भोगों की प्राप्ति के लिए और पीने के लिए कल्याणकारी हो। हम पर सुख-शान्ति की चारों ओर से वर्षा करे अर्थात् हमें सुख-समृद्धि व आरोग्य से युक्त करें। यहां शनि को जल स्वरूप कहा गया है। जल सूर्य से उत्पन्न हुआ है इसलिए वह सूर्य पुत्र है।
पंचविंशति ब्राह्मण 24/8/6 में शनिस्तु सौरः कहा गया है। शनि शमयते पापम् शनि हमारे पापों का नाश करता है इसलिए इसे शनि कहा गया है।
शनि को काण, अर्कपुत्र, छायात्मज, असित, नील, मन्द, खंज आदि नाम से भी जाना जाता है। यह एक वर्ष में चार माह वक्री व आठ महीने मार्गी रहता है। शनि का नीला रंग माना गया है। नीला रंग बल, पौरुष व वीरता का माना जाता है। कहीं इसे नाटा व कहीं इसे लम्बा कहा गया है। नीलकंठ शनि के आराध्य देव हैं। शिव भक्ति से शनि प्रसन्न होते हैं।
शनि सिर पर स्वर्ण मुकुट, गले मे माला और शरीर पर नीले रंग के वस्त्रों से सुशोभित है। ये गिद्ध पर सवार रहते हैं और इनके हाथ में धनुष, बाण, त्रिशूल और वरमुद्रा धारण करते हैं। इनका रथ लोहे का बना हुआ है।
शनि देव सूर्य व धाया के पुत्र हैं। ये क्रूर ग्रह माने गए हैं। इनकी दृष्टि में जो क्रूरता है वह इनकी पत्नी के शापवश है। ब्रह्मपुराण में एक कथा है कि शनि देव बचपन से कृष्ण भगवान के परम भक्त थे। वे हरवक्त उनकी भक्ति में लीन रहते थे। वयस्क होने पर पिता ने चित्ररथ की कन्या से इनका विवाह कर दिया। इनकी पत्नी सती-साध्वी व परम तेजस्वनी थी। एक रात वह ऋतु स्नान करके पुत्र प्राप्ति की इच्छा संग इनके पास पहुंची, पर शनि देव कृष्ण ध्यान में निमग्न थे। पत्नी प्रतीक्षा कर थक गयी और ऋतुकाल निष्फल हो गया। तब उन्होंने शनि देव को शाप दे दिया कि आज से तुम्हारी दृष्टि सदैव नीची ही रहेगी और जिसे तुम देखोगे वह नष्ट हो जाएगा। ध्यान टूटने पर शनि ने पत्नी को मनाया। पत्नी को निज भूल पर पश्चाताप हुआ, पर शाप दूर करने की शक्ति उसमें न थी। तब से शनि देव सिर नीचा करके रहने लगे, वे नहीं चाहते थे कि उनके द्वारा किसी का अनिष्ट हो।
शनि मकर व कुम्भ राशि का स्वामी है। इसकी महादशा 19 वर्ष की होती है। इसके प्रिय पदार्थ तिल, उड़द, भैंस, लोहा, तेल, काला वस्त्रा, नीलम, काली गौ, जूता, कस्तूरी, सोन है।
रत्न नीलम है। उपरत्न नीली, कटैला आदि है। जप संख्या 23000 है। इसका वैदिक मन्त्र इस प्रकार है में वर्णित है-ऊँ शन्नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये शंय्योरभि स्रवन्तु नः।
पौराणिक मन्त्र इस प्रकार है-नीलांचन समाभसं, रविपुत्र यमाग्रजम्। छाया मर्तण्ड सम्भूतं, तं नमामि शनैश्चरम्।
इसका बीज मन्त्र इस प्रकार है-ऊँ प्रां प्रीं प्रौ सः शनये नमः।
इनमें से किसी एक मन्त्र का जाप सूर्योदयकाल में करना चाहिए।
कुछ योग यहां दे रहे हैं जोकि अचूक हैं, जो इस प्रकार है-
1. अष्टम में नीच का शनि धनी बनाता है और यदि वक्री है तो जातक करोड़ों का स्वामी बन जाता है।
2. शनि तुला, मकर, कुंभ व मीन राशि का होकर लग्न में हो तो जातक चिन्तक, सुखी, सुप्रसिद्ध होता है परन्तु भाग्योदय मंद गति से होता है।
3. मीन, तुला या धनु राशि का शनि लग्न में हो तो जातक समृद्धशाली होता है।
4. नीच राशि का शनि प्रायः नौकरी कराता है।
5. शनि-सूर्य की युति पिता व पुत्रा में वैमनस्य रखती है और दोनों में से एक को हानि पहुंचाती है।
6. शनि-राहु की युति 42वें वर्ष में भाग्योदय कराती है। अकस्मान धन लाभ या हानि होती है।
7. शनि-चन्द्र की युति माता-पुत्र में मनोमालिन्य रखती है। अष्टम भाव में यह युति जलोदर रोग देती है।
8. चतुर्थेश शनि होकर बली हो तो जमीन व जायदायद का लाभ कराती है।
9. लग्न का स्वामी शनि होकर पीड़ित या निर्बल हो तो जंघाओं में कष्ट देता है।
10. शुक्र व सप्तमेश पर शनि की दृष्टि विवाह विलम्ब कारक है।
11. जन्मकालिक सूर्य से सप्तम भाव में गोचर का शनि रोग देता है।
12. शनि सिंह राशि में लग्न में हो तो जातक अपघात, अपमृत्यु या रिश्वत के आरोप में जेल जाता है।
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