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सोमवार, जून 14, 2010

गुरु की उत्पत्ति -पं.सत्यज्ञ



आप को बता दें कि गुरु अंगिरस ऋषि के पुत्र हैं, देवताओं के मार्गदर्शक हैं, गुरुपद पर सुशोभित हैं, धर्मशास्त्र के मर्मज्ञ ज्ञाता एवं नवग्रह के मध्य पांचवीं कक्षा में सुशोभित है।  बृहद आकार के कारण इनका नाम बृहस्पति पड़ा। इन्हें सुराचार्य, गीष्पतिः, धिषण, जीव, अंगिरस, वाचस्पति, इयभर, उतथ्यानुज, गोविन्दः, चारूः, द्वादशरश्मि, गिरीश, दिदिव, जटाधर, सुरगुरु, देवेन्द्र, इज्य, द्वादशकर, गीरथ आदि के नाम से भी जाना जाता है। 
पौराणिक कथा के अनुसार ऋषि अंगिरस के पुत्र अर्थवन हुए, अर्थवन के पुत्र हुए उशिज एवं उशिज के तीन पुत्र हुए-उचथ्य, बृहस्पति और संवर्त। उचथ्य की पत्नी का नाम ममता था। ममता जब गर्भवती थी तब बृहस्पति ने उसके साथ व्यभिचार करने की चेष्टा की। गर्भस्थ शिशु ने विरोध किया तो बृहस्पति ने उसे जन्माध होने का श्राप दे दिया। उचथ्य के इस तेजस्वती बालक का नाम दीर्घतमा रखा गया जो जन्मांध होते हुए भी षडांग वेदों का ज्ञाता  था। उसने अखंड तप से निज दृष्टि वापस प्राप्त कर ली। पाताल के राजा बलि की स्त्री सुदेष्णा को दीर्घतमा के आशीर्वाद से अंग, बंग, कलिंग, पौंड्र, ब्रह्मा नाम के पांच पुत्र रत्नों की प्राप्ति हुई जिनके नाम से बाद में पांच प्रदेश बने।
महाभारत के एक आख्यान के अनुसार बृहस्पति अंगिरस ऋषि के पुत्र थे। अंगिरा ऋषि की पत्नी ने सनतकुमारों के बताए व्रतों का पालन करके इनको पुत्र रत्न के रूप में प्राप्त किया।  
यह सम्पूर्ण नक्षत्र मंडल का लगभग 12वर्षों में भ्रमण करता है। ग्रहलाघव के अनुसार यह अस्त होने के बाद एक माह में उदित होता है। उसके बाद लगभग चार माह पश्चात वक्री होता है और  फिर मार्गी होता है। यह इसका मध्यम मान है। यह सूर्य से अधिक दूर होने के बाद भी उसी से प्रकाशित है। इसे शुभ ग्रह माना गया है।
स्कन्द पुराणानुसार बृहस्पति ने प्रभास तीर्थ में जाकर भगवान शंकर की कठोर तपस्या की थी। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें देवगुरु का पद एवं ग्रहत्व प्राप्त करने का वर प्रदान किया।
देवगुरु बृहस्पति की एक पत्नी का नाम शुभा और दूसरी का तारा है। शुभा से सात कन्याएं भानुमती, राका, अर्चिष्मति, महामती, महिष्मती, सिनीवाली और हविष्य-मती। तारा से सात पुत्र व एक कन्या उत्पन्न हुई। उनकी तीसरी पत्नी ममता से भारद्वाज और कच नामक दो पुत्र हुए। 
बृहस्पति के अधिदेवता इन्द्र और प्रत्यधि देवता ब्रह्मा हैं। ये पीत वर्ण के अत्यन्त सुन्दर हैं। भक्तों से प्रसन्न होने पर सम्पत्ति व बुद्धि प्रदान करते हैं।
देवासुर संग्राम में इन्होंने देवताओं की राक्षसों रक्षा करने के लिए इन्होंने अपने पुत्र कच को शुक्राचार्य के पास मृतसंजीवनी विद्या सीखने भेजा। कच का शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी से प्रेम हो गया। देवयानी पिता से जिद्द करके कच को मृतसंजीवनी विद्या सिखाने के लिए प्रेरित किया। असुरों ने नाराज होकर दो बार कच का वध कर दिया। लेकिन शुक्राचार्य की कृपा से वे पुनः जीवित हो गए। तीसरी बार असुरों ने उसे मारकर जला दिया और भस्म शुक्राचार्य को भस्म के साथ पिला दी। कच के गायब होने पर उसे मन्त्र बल से पुकारा तो उन्हें ज्ञात हुआ कि कच तो उनके उदर में है। तब उन्होंने उसे मृतसंजीवनी विद्या सिखायी और पेड़ फाड़कर बाहर आने को कहा। बाहर आकर कच ने गुरु को भी मृतसंजीवनी विद्या से जीवित कर लिया।
अग्निपुराणानुसार बृहस्पति एक हाथ में कुंडिका और दूसरे हाथ में अक्षमाला है। ये कमल के आसन पर विराजमान हैं। इनके चार हाथ हैं जिनमें क्रमशः रुद्राक्षमाला, कमंडल, वरमुद्रा व स्वर्ण दंड है। 
धनु व मीन राशि के स्वामी हैं। इनकी महादशा 16 वर्ष की होती है। रत्न पुखराज है। गुरु की प्रिय वस्तुएं पीत वस्त्र, सोना, हल्दी, घृत, पुखराज, अश्व, पुस्तक, मधु, लवण, शर्करा, आदि हैं। इसकी दृष्टि में अमृत है तभी तो कहा जाता है कि क्रूर मंगल को देख ले तो उसका दोष भंग हो जाता है।  यह कर्क राशि में उच्च व मकर में नीच का होता है। जप संख्या 19000 है।
 इसका वैदिक मन्त्र इस प्रकार है में वर्णित है-ऊँ बृहस्पतेऽप्रति यदय्‌र्योऽअद र्योअर्हाद्युमद्विभातिक्रतुमज्जनेषु। यद्दीद-यच्छव सऽऋतम्प्रजात दस्मासुद्रविणन्धेहिचित्राम्‌॥ 
पौराणिक मन्त्र इस प्रकार है-ह्नीं देवानां च ऋषिणां च गुरु कोचन संन्निभम्‌। बुद्धिभूतं त्रिलोकेशं तं नमामि बृहस्पतिम्‌। ऊँ बृहस्पतये नमः। 
इसका बीज मन्त्र इस प्रकार है-ऊँ ग्रां ग्रीं ग्रौं सः गुरुवे नमः। 
तर्जनी में पुखराज, केसर का तिलक एवं ब्रह्मा की उपासना करने से गुरु ग्रह प्रसन्न होता है।

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