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रविवार, जून 13, 2010

वास्तु और रोग - पं.ज्ञानेश्वर



    वास्तु सम्मत भवन आज सभी बनाना चाहते हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए भवन निर्माण से पूर्व सलाह लेना आवश्यक समझने लगे हैं। वास्तु सम्मत भवन बनाने से सुख, शान्ति व समृद्धि घर में निवास करती है और शरीर स्वस्थ रहता है। चिकित्सा पर धन का खर्च कम होता है।
वायु और भवन
पहला सुख नीरोगी काया। शरीर स्वस्थ है तो सब कुछ है। शरीर स्वस्थ नहीं तो सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है। शरीर में प्राण तत्व की महिमा सर्वविदित है। भवन में उत्तर पश्चिम भाग जिसे वायव्य भी कहते हैं। यह स्थान वायु तत्व का कारक है। इस स्थान को खुला रखना चाहिए। यदि यह भाव खुला नहीं है तो व्यक्ति को वायु विकार व मानसिक रोगों के होने की संभावना रहती है। वस्तुतः यह भाग उत्तरपूर्व की अपेक्षा ऊंचा और दक्षिणपश्चिम से कुछ नीचा होना शुभ होता है। 
जल और भवन
     भवन के उत्तरपूर्व भाग का संबंध जल से है। यह स्थान दूषित हो जाए तो भवन में रहने वाले लोगों में जल तत्त्व का संतुलन बिगड़ जाता है। यह भाग नीचा, खुला, हल्का एवं साफ रहना चाहिए और यदि ऐसा नहीं रहेगा तो भवन में रहने वाले मानसिक, आर्थिक एवं शारीरिक रूप से परेशान रहेंगे। उनको सभी ओर से परेशानियां घेर लेंगी। यहां तक शरीर भी साथ नहीं देता है। इस क्षेत्र में जीना एवं शौचालय कदापि नहीं होना चाहिए। यदि है तो घर में कोई न कोई सदैव बीमार रहेगा। यदि घर में कोई बीमार है तो रोगी को औषधि या सेवन के लिए कोई भी वस्तु उत्तर व पूर्व दिशा की ओर मुख करके देनी चाहिए। ईशान कोण खराब होने से उदर विकार, वैचारिक मतभेद एवं गृहक्लेश किसी न किसी बात को लेकर रहता है। घर के लोग चहुं दिशा में मुंह रखते है अर्थात्‌ एक छत के नीचे रहकर भी किसी का किसी से कोई वास्ता नहीं रहता है। एक दूसरे की कटी पर रहते हैं। ईशान कोण कदापि कटा न हो। ऐसे भवन में तो रहना नहीं चाहिए वरना तबाही तांडव करने लगती है। रक्त विकार व यौन रोग या लाईलाज रोग किसी सदस्य को हो जाता है।  ईशान का पूर्वी भाग ऊंचा होने से घर के पुरुष अधिक बीमार रहते हैं।
अग्नि और भवन
     दक्षिण पूर्व का भाग या आग्नेय कोण का सीधा सम्बन्ध अग्नि से रहता है। इस स्थान पर रसोई बनाना उत्तम है। यहां जल एकत्र नहीं करना चाहिए। यदि करेंगे तो पित्त व रक्त विकार से कष्ट उठाएंगे। पेट सदैव खराब रहेगा। यदि अग्नि कोण बढ़ा हो तो भवन वासियों को वायु व मानसिक परेशानियों से अधिक जूझना पड़ता है।
यह स्थान ढका हुआ, भारी एवं ऊंचा होना चाहिए।
आकाश  और भवन
     घर में आकाश तत्त्व को भी स्थान देना चाहिए इससे समस्त दिशाएं सन्तुलित हो जाती हैं। इसका प्रतीक भवन का खुला भाग एवं भवन का आंगन है। भवन में खुला भाग व आंगन नहीं है तो भी दिशाएं सन्तुलित नहीं रहती हैं।
ब्रह्म स्थान और भवन
      भवन को बहुत व्यवस्थित ढंग से और वास्तु सम्मत बनाना अत्यावश्यक है। यदि आप ऐसे नहीं बनाएंगे तो आप किसी न किसी समस्या से परेशान रहेंगे।
     भवन में ब्रह्म स्थान की विशेष महत्ता है। भवन के मध्य स्थान को ब्रह्म स्थान कहते हैं। इसका सीधा सम्बन्ध आकाश तत्त्व से होता है। इस स्थान को खुला बनाना चाहिए और भवन बनाते समय इस स्थान पर कोई निर्माण नहीं करना चाहिए।
      प्राचीन काल में इस स्थान पर आंगन होता था एवं तुलसी का पौधा लगा रहता था। इससे अनेक व्याधियों से मुक्ति मिलती है एवं वातावरण प्रदुषण मुक्त रहता है। 
   आप स्वस्थ रहना चाहते हैं तो अपने घर का निर्माण या व्यवस्था इस ढंग से करें कि समस्त दिशाएं सन्तुलित हो जाएं। इससे आप और आपका परिवार स्वस्थ, सुखी एवं समृद्ध रहेगा व जीवन में चहुंमुखी प्रगति करेगा।

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