हम योग की चर्चा सुनते हैं। योग का शारीरिक पक्ष महत्त्वपूर्ण है। शरीर की संरचना वैज्ञानिक है। शरीर विज्ञान में शरीर के स्थूल आधारों का अध्ययन किया जाता है जबकि साधना मार्ग में शरीर के सूक्ष्म आधारों की चर्चा की जाती है।
शरीर पर योग के प्रभाव को जानने से पूर्व शरीर की संरचना को जान लेना अत्यन्त रोचक है।
जन्मावस्था में जीवात्मा शरीर के तिहरे आवरण में संचरण करती है। साधना विज्ञान इन्हें स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीर कहता है। इन तीन शरीर में स्थूल शरीर दिखाई देता है जबकि सूक्ष्म और कारण शरीर अदृश्य रहते हैं। यह भी जान लें कि स्थूल शरीर अन्य दोनों सूक्ष्म और कारण शरीर का आधार है। इन तीनों शरीर का परस्पर नितान्त घनिष्ठ सम्बन्ध है।
व्यक्ति का भोग, योग और मोक्ष इन तीन शरीरों को यथावत सक्रिय करने से ही सिद्ध होता है। भोग और योग को समझने के लिए तैत्तिरीय उपनिषद के ऋषि ने इसे पंच कोशों में वर्गीकत किया है, जोकि इस प्रकार हैं-
१. अन्नमय कोश
२. प्राणमय कोश
३. मनोमय कोश
४. विज्ञानमय कोश
५. आनन्दमय कोश
हमारे स्थूल शरीर और उसकी क्रियाओं को अन्नमय कोश के रूप में हमारे सूक्ष्म शरीर की क्रियाओं और भाव दशाओं को प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय कोश के रूप में तथा कारण शरीर और उसकी भावदशा को आनन्दमय कोश के रूप में जाना गया है।
स्थूल शरीर और इसके दो घटक ज्ञानेन्द्रियां और कर्मेंन्द्रियां अन्नमय कोश का हिस्सा हैं। बाह्य त्वचा से लेकर भीतर की हड्डी, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा आदि सभी धातुओं तक का जो भाग है वह अन्नमय कोश कहलाता है। शरीर का प्रत्येक भाग जो अन्न का ऋणी है वह सब अन्नमय कोश का भाग है। शरीर का जो भाग तोल में आता है वह सब अन्नमय कोश का भाग है। इसके महत्त्वपूर्ण भाग हैं-कर्मेन्द्रियां, ज्ञानेन्द्रियां, हृदय, फेफड़े और मस्तिष्क। हमारी पांच ज्ञानेनिद्रयां-चक्षु, श्रोत्र, नासिका, रसना और स्पर्श। इन्द्रिय तो वह अदृष्ट उपकरण है जिसके उपयोग से संवेदनाओं की प्रतीति होती है। ये इन्द्रिय निराकार हैं क्योंकि किसी ने इन्हें देखा नहीं है। आंख और कान बहुत दूर पर स्थित वस्तुओं की प्रतीति कराते हैं। इन पांचों इन्द्रियों से जिन संवेदनाओं की प्रतीति होती है वे पांच तन्मात्राा कहलाती हैं जोकि क्रमशः रूप, शब्द, गंध, रस और स्पर्श। इनको जन्म देने वाले महाभूत भी पांच हैं-अग्नि, आकाश, पृथ्वी, जल और वायु।
हृदय अन्नमय कोश का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अवयव है जोकि समस्त शरीर को शुद्ध रक्त की आपूर्ति सुनिश्चित करता है। इसके एक द्वार से रक्त अन्दर आता है और दूसरे द्वार से बाहर जाता है। हृदय की धड़कन रक्त के भीतर आने और बाहर जाने का संकेत है। एक स्वस्थ युवा का हृदय एक मिनट में ७२ बार तथा शिशु का १४० बार आकुंचन-प्रसारण क्रिया करता है। मानसिक उद्वेगों तथा शारीरिक श्रम के समय यह गति बढ़ जाती है। इसके विपरीत उपवास, निर्बलता एवं संताप के समय घट जाती है।
योग से स्थूल शरीर का रूपान्तरण
योग से अन्नमय स्थूल शरीर का रूपान्तरण होता है। योग से शरीर के स्थूल एवं सूक्ष्म अवयवों को उनकी प्राकृतिक अवस्था में सक्रिय रखता है।
स्वास्थ्य का मूल मन्त्र यही है कि शरीर के अंग प्राकृतिक ढंग से कार्यशील करते रहें। कृत्रिम साधनों पर निर्भर स्वास्थ्य कदापि स्थिर नहीं रह सकता है। अधिक औषधि के सेवन से शरीर की प्राकृतिक सक्रियता जड़ से समाप्त हो जाती है। यह जान लें कि एक प्रकार की व्याधि का समाधान करने वाली औषधि किसी अन्य नई व्याधि को जन्म दे रही होती है। शारीरिक व्याधियां ही मानसिक व्याधियों को जन्म देती हैं।
योग की विभिन्न क्रियाओं आसन, प्राणायाम, तप, मुद्रा, बंध, षट्कर्म आदि के द्वारा रक्त, प्राण, नाड़ी ग्रन्थि आदि का शोधन किया जाता है। ऐसे में विकारों और व्याधियों को जन्म देने वाले समस्त मल शरीर से पलायन कर जाते हैं।
आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य व्रत से बंधा जीवन स्वास्थ्य की बपौती है। योग दर्शन के अष्टांग योग के प्रथम दो सोपान यम और नियम स्वस्थ व्यक्ति और स्वस्थ समाज का मूलाधार है। यम अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह जहां विकासशील शिष्ट समाज के द्योतक हैं वहां नियम शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, और ईश्वर प्राणिधान व्यक्तिगत उत्कर्ष के नियंता हैं। अतः यह कह सकते हैं कि योग तन-मन की शुद्धता का परिचायक है।।(मेरे द्वारा सम्पादित ज्योतिष निकेतन सन्देश अंक 63 से साभार। सदस्य बनने या नमूना प्रति प्राप्त करने के लिए अपना पता मेरे ईमेल पर भेजें ताजा अंक प्रेषित कर दिया जाएगा।)
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