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रविवार, मई 16, 2010

योगाभ्यास की तैयारी कैसे करें-योगानन्द स्वामी



आप योगाभ्यास के लिए तत्पर होना चाहते हैं। योगाभ्यास से पूर्व की तैयारी क्या होनी चाहिए, इसकी चर्चा करेंगे। चित्त शुद्धि योग का प्रथम अंग है। चित्त शुद्धि के लिए शौच की आवश्यकता पड़ती है। शौच दो प्रकार का होता है-बाह्य और आभ्यन्तर। बाह्य शौच तो तन की स्वच्छता है। आभ्यन्तर शौच में मन की एकाग्रता, इन्द्रिय पर विजय ओर आत्म-साक्षात्कार की योग्यता प्राप्त होती है। हठयोग में चित्त शुद्धि के लिए नेति, धौति, नौलि, वस्ति, कपालभाति तथा त्रााटक रूपी षट्कर्म होते हैं। क्रिया योग के अभ्यास से मन के क्लेश तथा विक्षेप नष्ट होते हैं तथा मन समाधि में प्रवेश के लिए तैयार होता है। क्रियायोग के अन्तर्गत तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्राणिधान आता है। यम, नियम, आसन तथा प्राणायाम तप के अन्तर्गत आते हैं।
यम तथा नियम योग के मूलाधार हैं। इनसे चित्त शुद्ध होता है। यदि आप इनमें प्रतिष्ठित हैं तो समाधि स्वतः ही आएगी।
सच्चा ब्रह्मचारी पत्थर, पुस्तक, वृक्ष तथा नारी के स्पर्श में कोई भेद अनुभव नहीं करता है।
यदि आप समाधि चाहते हैं तो आपको ध्यान की प्रक्रिया अच्छी तरह मालूम होनी चाहिए। ध्यान चाहते हैं तो धारणा की पूर्ण प्रक्रिया का ज्ञान होना चहिए। यदि आप धारणा चाहते हैं तो आपको प्रत्याहार का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। यदि प्रत्याहार चाहते हैं तो आपको प्राणायाम की प्रक्रिया का ज्ञान होना चाहिए। प्राणायाम करना चाहते हैं तो आपको आसन का ज्ञान होना चाहिए। आसन का अभ्यास करने से पूर्व यम तथा नियम का अभ्यास करना चाहिए।
मन के तीन दोष हैं-मल, विक्षेप तथा आवरण। मल मन की अशुद्धि है। छह कुवृत्तियां मल हैं(काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद तथा मात्सर्य)। मल का निवारण ही चित्तशुद्धि है। शुद्धिकरण योग का प्रथम अंग है। अन्तःकरण के शुद्ध होने पर मोक्ष तथा योगसिद्धि के सहज प्रवृत्ति होती है। इन कुवृत्तियों का विलोपन तथा इन्द्रियों का नियन्त्राण ही सत्त्वशुद्धि है।
सद्गुणों का विकास करें। इससे चित्त की स्थिरता की प्राप्ति होती है। प्रेम, विनम्रता तथा करुणा से आप सारे संसार को जीत सकते हैं। धैर्य का विकास करें। अधीरता से बचें क्योंकि इससे अस्थिरता होती है। कोई भी कार्य सहजता से बनता है जब धैर्य के विकास सहित कोई भी कार्य किया जाता है। अधीरता और जल्दबाजी से कार्य खराब होता है। अतः धैर्य सहित किसी भी कार्य को करें और जीवन में सफलता, स्थिरता और आनन्द को निमन्त्राण दें क्योंकि यही सुख को बढ़ाने में सहायक है। त्रााटक का अभ्यास करें, इससे धारणा का विकास होता है और एकाग्रता बढ़ती है। वाणी तथा मन में नियन्त्राण होता है।
ईश्वर प्राणिधान अर्थात्‌ सहज होकर पूर्ण समर्पण भाव से ईश्वर की भक्ति या उपासना करना। भक्ति से चिन्ताएं, भय और मानसिक सन्ताप दूर होता है। भक्त में समदृष्टि होनी चाहिए और वैर भाव कदापि नहीं होना चाहिए।
जप करें, जप तीन प्रकार का होता है-वैखरी, उपांशु एवं मानसिक। उपांशु जप का फल वैखरी जप से सहस्त्रागुना अधिक होता है। जप से अस्थिरता दूर होती है। मन चैतन्य होता है और विषयपरक प्रवृत्तियों से बचाव होता है।
मुन की शुद्धता ही योगाभ्यास से पूर्व की तैयारी में महत्त्वपूर्ण है। उक्त सबसे यही होता है।
योगाभ्यास से लाभ
योगाभ्यास से स्वास्थ्य ठीक रहता हैं। स्वस्थ शरीर में सुख का वास होता है। कहा भी गया है कि पहला सुख नीरोगी काया। स्वस्थ शरीर रोगमुक्त रहता है। जो स्थिर तथा सुखदायी हो वह आसन है-पांतजलि ऋषि ने यह कहा है। योगाभ्यास से स्वस्थ शरीर बनता है। फलतः सुख में वृद्धि होती है।
यदि कोई व्यक्ति प्रस्तर की प्रतिमा की तरह लगातार तीन घंटे तक एक ही आसन पर बैठ सकते हैं तो यह आसन-सिद्धि की प्राप्ति है। यदि इस आसन के अभ्यास में पैरों में पीड़ा हो तो कुछ मिनट के लिए पैर फैला सकते हैं। धीरे-धीरे अभ्यास से एक वर्ष में आसनाभ्यास में परिपक्वता आ जाएगी और आसन-सद्धि प्राप्त करने में सफल होंगे। अब चाहे पद्मासन करें या सिद्धासन।
योग के अनेक लाभ हैं। इससे शरीर स्वस्थ और उसमें निवास करने वाला मन भी स्वस्थ व स्थिर रहता है। मन ऊर्जावान्‌ रहता है। जीवन में आनन्द की अनुभूति होती है। चहुं ओर सुख-सुविधा का वातावरण बनने लगता है। प्रत्येक कार्य में सफलता मिलती है। सभी कार्य में मन लगता है। सकारात्मकता बढ़ती है। सकारात्मक विचार से तन व मन स्वस्थ रहता है और उसमें स्थिरता व एकाग्रता आ जाती है, जिससे जीवन में उत्थान होता है, उन्नति पथ प्रशस्त होता है। सबको सम दृष्टि से देखता है और वैर भाव समाप्त हो जाता है। (मेरे द्वारा सम्पादित ज्योतिष निकेतन सन्देश अंक ६२ से साभार। सदस्य बनने या नमूना प्रति प्राप्त करने के लिए अपना पता मेरे ईमेल पर भेजें ताजा अंक प्रेषित कर दिया जाएगा।)

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