स्वामी रामकृष्ण परमहंस के शिष्य प्रतिदिन प्रश्न पूछते और वे उसका उत्तर दे देते।
एक दिन शिष्य ने पूछा-'स्वामी जी! हम नित्य पूजा करते हैं पर प्रभु के दर्शन नहीं होते हैं।'
यह सुनकर स्वामी जी मुस्कराकर रह गए।
प्रतिदिन की भांति स्वामी जी गंगास्नान के लिए चल पड़े।
उनके पीछे वही जिज्ञासु शिष्य भी गंगातट पहुंच गया।
स्वामी जी बोले-'मैं तट पर खड़ा हूँ पहले तुम स्नान कर लो।
गुरु के कहने पर शिष्य ने गंगा में प्रवेश कर डुबकी लगायी। डुबकी लगाकर जैसे ही उसने अपना सिर बाहर निकाला, स्वामी जी ने तुरन्त ही उसका सिर जल में डुबो दिया, स्वामी जी ने ऐसा तीन बार किया। बाद स्वामी जी ने बाहर आने को कहा। जब वह बाहर आ गया, उस समय उसकी सांसें उखड़ी हुई थीं, पीड़ा से छटपटाने के कारण उसके हृदय की धकड़कन भी तेज हो गई थी।
अब स्वामी जी ने गंगास्नान किया और फिर शिष्य को साथ लेकर घर आ गए।
शिष्य पूरे रास्ते यह सोचकर विचलित रहा कि स्वामी जी ने मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों किया।
संध्या समय शिष्य स्वामी जी से अपने प्रश्न का उत्तर सुनने को आतुर था।
स्वामी जी ने कहा-'वत्स! मेरा व्यवहार तुम्हारे प्रश्न का उत्तर ही था। तु जिस प्रकार जल से बाहर निकलने का बेचैन होकर छटपटा रहे थे, उसी प्रकार जब तुम्हारे हृदय में प्रभुदर्शन की तड़पन उत्पन्न होगी तभी प्रभु कृपा करके तुम्हारे समक्ष दर्शन देने को प्रकट हो जाएंगे।
प्रभुदर्शन सच्चे विश्वास और सच्ची चाहत के आने के बाद ही होते हैं।
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