आप यह जान लें कि मन्त्र में विघ्न दूर करने की शक्ति होती है। भौतिक विज्ञान के जानकार कहते हैं कि ध्वनि कुछ नहीं है मात्र विद्युत के रूपान्तरण के। जबकि अध्यात्म शास्त्री कहते हैं कि विद्युत कुछ नहीं है मात्र ध्वनि के रूपान्तरण के। यदि दूसरे शब्दों में देखें तो यह ज्ञात होगा कि ध्वनि और विद्युत एक ऊर्जा के दो रूप हैं और इनका पारस्परिक रूपान्तरण सम्भव है। वैज्ञानिक तो इस सत्य को अनुभूत नहीं कर पाए हैं परन्तु अध्यात्म शास्त्री इस सत्य को अनुभूत कर चुके हैं।
मन्त्र से ध्वनि का विद्युत रूपान्तरण होता है!
यह सत्य है कि मन्त्र से ध्वनि का विद्युत रूपान्तरण होता है। हमारा शरीर जिस ऊर्जा के सहारे कार्य करता है वे जैव विद्युत के ही विविध रूप हैं। मन्त्र की रीति से इसको प्रभावित किया जा सकता है। मन्त्र का प्रयोग करने की रीति बहुत व्यापक है। जिसकी चर्चा इस लेख में कर पाना सम्भव नहीं है।
यह जान लें कि समस्या कैसी भी हो, चाहे शारीरिक हो या मानसिक या आर्थिक, मन्त्र के प्रभाव या बल से सब कुछ सम्भव है। समस्या का समाधान सम्भव है। विद्वजन कहते हैं कि मन्त्र जप से सभी विघ्न स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं।
चित्त के विक्षेप ही विघ्न हैं। ये नौ हैं-
1. व्याधि या रोग शरीर या मन में रोग का उत्पन्न होना।
2. अकर्मण्यता ही काम न करने की प्रवृत्ति है।
3. संशय या सन्देह साधना के परिणाम एवं स्वयं की क्षमता पर सन्देह है।
4. प्रमाद आध्यात्मिक अनुष्ठानों की अवहेलना करना ही है।
5. आलस्य तमोगुण की वृद्धि से साधना को बीच में ही छोड़ देना है क्योंकि चित्त और शरीर दोनों भारी हो जाते हैं।
6. अविरति विषय वासना में आसक्त होना है जिस कारण वैराग्य का अभाव हो जाता है।
7. भ्रान्ति साधना को किसी कारण अपने प्रतिकूल मान लेना ही है।
8. अलब्धता उपलब्धि न मिलने से उपजी निराशा ही है।
9. अस्थिरता स्थिरता की स्थिति में न टिक पाना ही अस्थिरता है।
उक्त नौ सूत्र महर्षि पांतजल्य के हैं। उन्होंने इससे पूर्व के सूत्र में कहा है कि ये सभी विक्षेप मन्त्र के जाप से समाप्त हो जाते हैं।
रोग तभी होता है जब जैव विद्युत चक्र अव्यवस्थित हो जाता है। इसके प्रवाह में व्यतिक्रम या व्यतिरेक उठ खड़े होते हैं। इस स्थिति में व्यक्ति रोगी हो जाता है क्योंकि रोग उसे घेर लेते हैं। जैव विद्युत चक्र को लयबद्ध कर देने से रोग ठीक हो जाते हैं। यह जान लें कि मन्त्र जाप से प्राण विद्युत के चक्र में आने वाली बाधाओं का निराकरण किया जाता है और साधक को ब्र्र्रह्माण्डीय ऊर्जा का एक बड़ा अंश प्राप्त होता है।
अकर्मण्यता तभी आती है जब हममें ऊर्जा का स्रोत निर्बल होता है। तब हम स्वयं को शिथिल व निर्बल पाते हैं। मन्त्र जप से ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का प्रवाह मिलता है और अकर्मण्यता उत्साह में बदल जाती है।
दृढ़ता के विरूद्ध ही संशय है। इससे मानसिक ऊर्जा कई भागों में विभाजित हो जाती है। मन्त्र प्रयोग से संशय का कोई स्थान नहीं रहता है।
प्रमाद सदैव मन में होता है। ऐसे में मन मूर्छित अवस्था में होता है। होश खोया मन प्रमादी होता है। मन्त्र जप से मन को होश में लाया जा सकता है।
आलस्य एक प्रकार से जीवन के प्रति उत्साह खोना है। बच्चे कभी नहीं थकते क्योंकि उनके पास ऊर्जा का अक्षय भण्डार होता है। मन्त्र जाप से ऊर्जा का ऊर्ध्वगमन होने लगता है जिसके फलस्वरूप साधक में नए उत्साह की अनुभूति जागती है और वह आलसी नहीं रहता है।
विषयासक्ति शरीर और मन की एकत्र ऊर्जा का व्यय न हो पाने से होती है। मन्त्र साधना से ऊर्जा का उर्ध्वगमन या व्यय होता है जिससे विषयासक्ति छंट जाती है।
भ्रान्ति खुली आंखों से स्वप्न देखना है। मन्त्र जाप से जाग्रत हो जाता है साधक और भ्रान्ति रहती नहीं है।
दुर्बलता असहाय एवं दुर्बल करती है। सामर्थ्य पूर्ण न होने से विराट से स्वयं को अलग अनुभूत करने से दुर्बलता आती है। मन्त्र जाप से हम विराट चेतना से जोड़ता है जिससे सिद्धि वश साध्य दिखने लगता है और दुर्बलता दिखती नहीं है।
अस्थिरता बहाने ही हैं। कुछ करने से पूर्व ही न करने के अनेक बहाने ढूंढ या गढ़ लेते हैं। बहाने बनाना अस्थिरता ही है। मन्त्र जप दृढ़ता से होने पर सजगता आ जाती है और चित्त साधना में रत रहता है।
इसमें निरन्तरता आती रहे तो सब विक्षेप हट जाते हैं और साधक साध्य की प्राप्ति में खो जाता है और एक नई अनुभूति में लिप्त होकर दूजों को मार्ग दिखाने लगता है।
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