एक बार की बात है दो सन्त तीर्थ यात्रा पर जा रहे थे। एक विशाल वृक्ष के नीचे उन्होंने आश्रय लिया और आगे बढ़े। पर्यटन के बाद एक वर्ष बाद जब वे वापस लौटे तो उन्होंने पाया कि जिस वृक्ष की छाया में उन्होंने भोजन किया था, विश्राम किया था, एक ओर गिरा पड़ा है।
एक सन्त ने दूसरे वरिष्ठ संत से पूछा-महात्मन! यह कैसे हुआ कि इतने कम समय में यह वृक्ष गिर गया?
उसकी बात सुनकर वरिष्ठ सन्त ने कहा-बन्धुवर! यह वृक्ष छिद्रों के कारण गिरा है। इस वृक्ष का प्राण इसका जीवन रस जो गोंद रूप में है, उसे लोगों ने पाने के लिए लालच में मनुष्य ने उसमें छेदकर उसे खोखला बना दिया। खोखली वस्तु कभी खड़ी नहीं हो सकती। तूफानों को सहन न कर पाने के कारण इसकी यह गति हुई।
यह सर्वमान्य तथ्य है कि ऊंचा उठने के लिए पहले गिराने वाले कदम रोकने पड़ते हैं। पूर्वार्द्ध है अपव्यय को रोकना, उत्तरार्द्ध है अर्जित सामर्थ्य का उपयोग करना। जो करते हैं वे सफल होते हैं और बहुत उन्नति करते हैं।
(मेरे द्वारा सम्पादित ज्योतिष निकेतन सन्देश अंक 74 से साभार। सदस्य बनने या नमूना प्रति प्राप्त
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