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शुक्रवार, अक्तूबर 02, 2009

दोहा शतक - ज्ञानेश्वर


सनातन मूल्य खोये, रहती मात्र ग्लानि।
नैतिकता शेष न रहे, होती आत्महानि॥१॥
चैनल दे रहे सबको, रेडीमेड विचार।
स्वाध्याय है खोया, चिन्तन रहे बीमार॥२॥
सभी सजी पुस्तकें तो, हैं धूल संग अटीं। 
पड़ी-पड़ी सोचती हैं, पाठकों ने न पढ़ीं॥३॥
सीरियल देखें स्त्रियां, बिछा रहीं बिसात।
अपनों की बनकर शत्रु, देतीं अनोखी मात॥४॥
घर सारे बन चले हैं, शतरंज की बिसात।
नित चालें चलीं जातीं, देने को है मात॥५॥
घूम-घूम जग में सदा, मिली न कहीं शान्ति।
मन थका-थका सा रहे, रहती सदा भ्रान्ति॥६॥
काम फिर संलग्न हुआ, पाकर नया ध्येय। 
पल-पल जीवन जी लिया, पाने को एक श्रेय॥७॥
सफलता उतनी पाये, जितना ध्येय संग।
सभी बढ़ता देखकर, हो जाते हैं दंग॥८॥
तुम जब हंसती हो तो, लगे खिलता गुलाब।
यौवन तुम्हारा दिखे, फूल जैसा शबाब॥९॥
प्रेम किया जब तुझ संग, रहा न खुद में शेष।
समझ न आए अब मुझको, धरूं कौन सा वेष॥१०॥
होता जब निश्चित लक्ष्य, मन में ले आकार।
प्राप्ति का पागलपन, करे उसे साकार॥११॥
निज ध्येय से जब कभी, होता मन व्याप्त। 
प्रयास होते फिर सभी, दें सफलता प्रर्याप्त॥१२॥
जिस अनुपात संग किया, निज शक्ति का प्रयोग। 
उतनी पायी सफलता, पाकर उन्नति योग॥१३॥
घंटे बजे मंदिर में, प्रभु दर झुकते माथ। 
थका-मांदा मनु लौटा, पाने को एक साथ॥१४॥
नववधू करे प्रतीक्षा, कर सोलह श्रृंगार। 
मोरे पिया आयेंगे, सजा स्वप्न हजार॥१५॥
हिना से रचाये हाथ, पांव में है पायल। 
लाली चुनरिया ओढ़, चले, तो हों घायल॥१६॥
आया है तो जायेगा, तू यह ध्रुव सत्य जान। 
जीवन की क्षणभंगुरता, बुलबुले ने ली मान॥१७॥
याद में राह निहारूं, करूँ न कोई काज। 
दाना चुग लौटे विहग, बजाने लगे साज॥१८॥
गोधूलि छायी नभ पर, आती देखकर शाम। 
भानु चला घर आपने, दे दिवस को विराम॥१९॥
तूफान का मंजर देख, लाया नाव कगार। 
अंबुज संग चपला से, वर्षा करे आगाज॥२०॥
मादक मांसल देह में, रहे एक मोहपाश। 
संयम न रहे फिर कभी, मन घूमे आकाश॥२१॥
रात बने महारानी, फैलते अंधियार। 
जीत ही ली सपनों में, बाजी हजार बार॥२२॥

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