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सोमवार, सितंबर 28, 2009

योग और अध्यात्म

योग और अध्यात्म

-योगानन्द स्वामी
महर्षि पतंजलि ने योग दर्शन में योग के समस्त पक्षों को विस्तार से बताया है। उनकी दृष्टि में योग के तीन मुख्य ध्येय हैं-१. शरीर के समस्त क्लेशों का शमन, २. चित्त वृत्तियों का निरोध कर समाधिस्थ होना एवं ३. स्व में अवस्थित हाकर कैवल्य की प्राप्ति।
शरीर के समस्त क्लशों का शमन साधक अन्नमय एवं प्राणमय कोश की साधना के द्वार कर लेता है।चित्त वृत्तियों का निरोध प्राणमय, मनोमय एवं विज्ञानमय कोश की साधना से साधक प्राप्त कर लेता है। विज्ञान मय कोश की साधना का मुख्य अवयव बुद्धि है। मन की निर्णय प्रक्रिया का नाम ही बुद्धि है। मनोमय कोश इससे परिपूर्ण है। इसी से प्रेरणा पाकर कर्मों का विस्तार होता है। बुद्धि की प्रखरता या उसका अप्रतिहत होना ही विज्ञानमय कोश की साधना है।
बुद्धि के प्राथमिक परिष्कार से सांसारिक सफलताएं प्राप्त होती हैं।
बुद्धि के माध्यमिक परिष्कार से चित्त वृत्तियों के निरोध का साधक है।
बुद्धि का उच्च परिष्कार धारणा को सिद्ध करता है।
बुद्धि का उच्चतम परिष्कार ध्यान की सिद्धि है।
यह जान लें कि चित्त प्रसादन से प्राप्त निर्मल बुद्धि द्वारा अविद्यादि क्लेशों का सुगमता से निराकरण हो जाता है। इन अविद्यादि क्लेशों व अवरोधों के हट जाने से और वृत्तियों के शान्त हो जाने से साधक ध्यान मार्ग पर अबाध गति से बढ़ता हुआ समाधि में प्रवेश कर जाता है।
यह सार तत्त्व जान लें कि ध्यान से समाधि में प्रवेश कर रही बुद्धि मूलतः संसार से अध्यात्म में प्रवेश कर रही होती है। समाधि में पहुंच कर भी बुद्धि का रूपान्तरण अवरूद्ध नहीं होता है। बुद्धि का परिष्कृत रूप को ऋतंभरा प्रज्ञा कहते हैं। समाधि में पहुंचते-पहुंचते ध्येय मात्रा का अस्तित्व रह जाता है। ध्याता और ध्यान स्वरूप से शून्य जैसे हो जाते हैं।
ध्येय के रूप में परमात्मा को ही अवलंबन किया जाता है। ध्यान करते-करते समाधिस्थ साधक को न तो अपना भास रहता है और न ही इस तथ्य का कि वह ध्यान कर रहा है, केवल ध्येय के रूप में अवलंबित परब्रह्म ही अर्थमात्रा से भासता है। समाधि में ठहरा साधक शरीर के आनन्दमय कोश की परिधि में पहुंच चुका होता है।
पतंजलि ने समाधि के संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात नामक दो मुख्य भेद किए हैं। बाद में इनके भी कई भेद हैं जो समाधि के विभिन्न स्तरों को अभिव्यक्ति देते हैं। समाधि से प्रज्ञा उत्पन्न होती है। प्रज्ञा प्राप्त हो जाने के बाद साधक को अन्य विधियों से ज्ञान अर्जित करने की आवश्यकता नहीं रहती है। साधक समाधि में आत्मा को अपने शुद्ध स्वरूप का साक्षात करता है। यही स्थिति मुक्ति है, यही कैवल्य है, यही अपवर्ग और मोक्ष है, यही निर्वाण है। समस्त दुःखों का यहां नाश हो जाता है। यहां तक पुरुषार्थ चतुष्टय के व्रत की यहां पूर्णाहुति हो जाती है। इसी को शाश्वत अहोभाग्य कहते हैं। आध्यात्मिक जीवन की कृतकार्यता है। यही योगानुष्ठान या साधना का परम प्रसाद है।
तभी तो मनुष्य के लिए आत्मसाक्षात्कार सर्वोत्कृष्ट है। इस आत्मसाक्षात्कार से लाभ क्या है? इसके लिए प्रयत्न क्यों करें? एक मात्रा आत्मज्ञान की प्राप्ति से ही जन्म-मृत्यु के चक्र से तथा उसके सहयोगी रोग, जरा, दुःख, कष्ट, विपत्ति, चिन्ता तथा नानाविध क्लेशों को समाप्त कर सकता है। आत्म ज्ञान से शाश्वत आनन्द, परम शान्ति, सर्वोत्कृष्ट ज्ञान तथा अमरत्व मिलता है।
अध्यात्म हवा में विकसित नहीं होता है। योग साधना तपस्या पूर्ण नैतिक जीवन का ही आचरण है। यह जीवन पूर्व जीवन का परिणाम है और अगला जीवन इस जीवन की प्रस्तावना है। भौतिक से आध्यात्मिक तक सभी मूल्य अखण्ड जीवन का संरक्षण करने के लिए है। योग में सामाजिकता आध्यात्मिक जीवन का ही अंग है। सामाजिक और पारिवारिक मूल्यों के लिए आध्यात्मिक मूल्यों की उपेक्षा नहीं की जा सकती है।





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