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रविवार, अगस्त 02, 2009

भाव


भाव
-ज्ञानेश्वर
स्वामी विवेकानन्द शिष्यों के साथ संध्या भ्रमण पर निकले। निर्माणधीन मन्दिर के पास तीन मजदूरों पर उनकी दृष्टि पड़ी। उन्होंने पहले मजदूर से पूछा-'क्यों भाई क्या कर रहे हो?' वह प्रत्युत्तर में बोला-'गधे की तरह जुटे हैं, देख तो रहे हो। दिन भर के काम के बाद थोड़ा मिलता है, पर ठेकेदार जान ही निकाल लेता है।' यही प्रश्न दूसरे से पूछा तो वो प्रत्युत्तर में बोला-'हमारा तो यही भाग्य है, मजूरी कर पेट भरते हैं।' यही प्रश्न उन्होंने तीसरे मजदूर से पूछा तो वह भाव भरे हृदय से बोला-'ईश्वर का घर बन रहा है। मुझे खुशी है कि मेरा पसीना भी इसमें शामिल है। जो मिलता है उसी में मुझे खुशी है। गुजारा चल जाता है और प्रभु का कार्य भी हो रहा है।' स्वामी जी शिष्यों से बोले-'काम तीनों कर रहे हैं, पर काम करने के ढंग का अन्तर है। एक गधे सदृश मजदूरी करता है, दूसरा यन्त्रावत्‌ और तीसरा समर्पण भाव से काम करके सन्तुष्ट है। यही अन्तर उनके कार्य की गुणवत्ता में भी दिख रहा है। यह जान लो कि कार्य किया जा रहा है यह महत्वपूर्ण नहीं है, उसे किस भाव से किया जा रहा है यह अर्थ रखता है।'
शिष्य यह जान चुके थे कि काम नहीं भाव की महत्ता सर्वोपरि है। जो इस पर ध्यान देता है वही कार्य की समाप्ति पर सन्तुष्ट होता है।

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