एक पाठक ने पूछा कि क्या अध्यात्मिक होना व्यक्ति को कर्महीन बना देता है? मन में उठने वाले इस प्रश्न के उत्तर को जानने के लिए हमें सर्वप्रथम यह जानना होगा कि अध्यात्मिक कौन है? जो अध्यात्म से सम्बन्ध रखता है वह अध्यात्मिक है। अध्यात्म क्या है? आत्मा एवं परमात्मा सम्बन्धी ज्ञान ही अध्यात्म है।
अध्यात्म का व्यवहारिक अर्थ है स्वयं को जानना। यही सत्य है। जब तक आप अपना आत्मविश्लेषण नहीं करेंगे दूजे शब्दों में अपने का नहीं समझेंगे तब तक आप स्वयं को नहीं जान पाएंगे, अपनी क्षमताओं को नहीं समझ सकेंगे और फलत: लक्ष्य को सहजता में प्राप्त नहीं कर सकेंगे। स्वयं को नहीं समझ सकेंगे तो अध्यात्मिक भी नहीं बन पाएंगे। यदि आत्मविश्लेषण किए बिना स्वयं को अध्यात्मिक कहते हैं, आत्मा को जाने बिना स्वयं को अध्यात्मिक कहते हैं तो सत्य यही है कि आप ढोंगी हैं।
यह सर्वविदित है कि यदि शरीर में आत्मा नहीं है तो वह जड़ है क्योंकि चेतनतता रहित है। ऐसे में शरीर व्यर्थ है। माटी का तन माटी में मिल जाना है।
मनुष्य जन्म अनमोल है जिसने इसे सार्थक नहीं किया तो उसने क्या किया। मनुष्य जब जन्मता है तो उसकी मुट्ठी बन्द होती है यानि वह अपना भाग्य मुट्ठी में संग लेकर आया है। जब व्यक्ति जीवन यात्रा पूर्ण करके जाता है तो जाते समय उसके हाथ खुले और खाली होते हैं। कहने का तात्पर्य है कि जीवन जीने में जो कमाया वो सब यहीं रह गया। यदि अच्छे कर्म किए होते तो पुण्य कमाया होता और प्रतिफल में जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्ति मिलती यानि मोक्ष मिलता क्योंकि आत्मा परमात्मा में जो मिल जाती।
कर्महीन नर पावत नाहि। भाग्य भी पुरुषार्थ से फलीभूत होता है। योजना भी कर्म करने पर ही पूर्ण हो पाती है। सही अर्थों में आपने स्वयं को नहीं जाना है तो आप अध्यात्मिक नहीं हैं। जो स्वयं को जान लेता है, अपना आत्म विश्लेषण कर लेता है वही अध्यात्मिक बन पाता है। जो अध्यात्मिक है वो चैतन्य है, चैतन्य क्यों है क्योंकि उस सत्य भासित है। जो सत्य जानता है वह कतई कर्महीन नहीं हो सकता है।
अध्यात्म का आवरण ओढ़कर ढोंग मात्र करने से व्यक्ति अध्यात्मिक नहीं हो सकता है। जो वास्तव में अध्यात्मिक है वो अवश्य कर्मयोगी है। कर्महीन जीवन निरर्थक है। जो अध्यात्मिक होगा वही अधिक अत्यात्मिक होगा और अधिक चैतन्य भी होगा। वह अनमोल मानुष जीवन को व्यर्थ नहीं जाने देगा। वह कर्मपथ पर चलता हुआ जीवन के परमलक्ष्य को अवश्य प्राप्त करेगा। अत: अध्यात्मिक होना कर्मयोगी बनना है नाकि कर्महीन।
अध्यात्म का व्यवहारिक अर्थ है स्वयं को जानना। यही सत्य है। जब तक आप अपना आत्मविश्लेषण नहीं करेंगे दूजे शब्दों में अपने का नहीं समझेंगे तब तक आप स्वयं को नहीं जान पाएंगे, अपनी क्षमताओं को नहीं समझ सकेंगे और फलत: लक्ष्य को सहजता में प्राप्त नहीं कर सकेंगे। स्वयं को नहीं समझ सकेंगे तो अध्यात्मिक भी नहीं बन पाएंगे। यदि आत्मविश्लेषण किए बिना स्वयं को अध्यात्मिक कहते हैं, आत्मा को जाने बिना स्वयं को अध्यात्मिक कहते हैं तो सत्य यही है कि आप ढोंगी हैं।
यह सर्वविदित है कि यदि शरीर में आत्मा नहीं है तो वह जड़ है क्योंकि चेतनतता रहित है। ऐसे में शरीर व्यर्थ है। माटी का तन माटी में मिल जाना है।
मनुष्य जन्म अनमोल है जिसने इसे सार्थक नहीं किया तो उसने क्या किया। मनुष्य जब जन्मता है तो उसकी मुट्ठी बन्द होती है यानि वह अपना भाग्य मुट्ठी में संग लेकर आया है। जब व्यक्ति जीवन यात्रा पूर्ण करके जाता है तो जाते समय उसके हाथ खुले और खाली होते हैं। कहने का तात्पर्य है कि जीवन जीने में जो कमाया वो सब यहीं रह गया। यदि अच्छे कर्म किए होते तो पुण्य कमाया होता और प्रतिफल में जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्ति मिलती यानि मोक्ष मिलता क्योंकि आत्मा परमात्मा में जो मिल जाती।
कर्महीन नर पावत नाहि। भाग्य भी पुरुषार्थ से फलीभूत होता है। योजना भी कर्म करने पर ही पूर्ण हो पाती है। सही अर्थों में आपने स्वयं को नहीं जाना है तो आप अध्यात्मिक नहीं हैं। जो स्वयं को जान लेता है, अपना आत्म विश्लेषण कर लेता है वही अध्यात्मिक बन पाता है। जो अध्यात्मिक है वो चैतन्य है, चैतन्य क्यों है क्योंकि उस सत्य भासित है। जो सत्य जानता है वह कतई कर्महीन नहीं हो सकता है।
अध्यात्म का आवरण ओढ़कर ढोंग मात्र करने से व्यक्ति अध्यात्मिक नहीं हो सकता है। जो वास्तव में अध्यात्मिक है वो अवश्य कर्मयोगी है। कर्महीन जीवन निरर्थक है। जो अध्यात्मिक होगा वही अधिक अत्यात्मिक होगा और अधिक चैतन्य भी होगा। वह अनमोल मानुष जीवन को व्यर्थ नहीं जाने देगा। वह कर्मपथ पर चलता हुआ जीवन के परमलक्ष्य को अवश्य प्राप्त करेगा। अत: अध्यात्मिक होना कर्मयोगी बनना है नाकि कर्महीन।
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