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शनिवार, मार्च 26, 2011

पहला कर्त्तव्य मस्तिष्क का विकास करना है!



    मानव बुद्धि के कारण सर्वोपरि है इसीलिए उसका पहला कर्त्तव्य मस्तिष्क का विकास करना है।  यह विकास ज्ञानोपार्जन से होता है। ज्ञानोपार्जन स्वाध्याय से होता है।
    यह जान लें कि ज्ञान की कोई सीमा और आयु नहीं होती है। ज्ञान कितना भी बढ़ा लो कम है और किसी भी आयु तक या मरते दम तक पा लो कम है।
    ज्ञान असीम है और प्रत्येक पल किसी न किसी रूप में किसी न किसी प्रकार मिलता रहता है।
    मनुष्य चाहे तो अल्पायु में भी ज्ञान पाकर ज्ञानी हो सकता है।
    संकल्प के साथ अभ्यास करने से अल्प समय में भी मस्तिष्क को प्रखर एवं ज्ञान से परिपूर्ण बनाया जा सकता है।
    लोक में चर्चित है यह कहावत-करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान। सीखना अभ्यास से होता है। कोई भी ज्ञान व्यवहार में लाने से और निरन्तर अभ्यास करने से परिपक्व हो जाता है।
    गागर में सागर सदृश मस्तिष्क एक छोटी से खोपड़ी में समाया हुआ ब्रह्माण्ड है जिसमें परम पिता शिव जन्म से ही रहते हैं। वरदान के लिए मात्र साधना की आवश्यकता है।
    ज्ञान पाने की साधना जिज्ञासा वश स्वाध्याय में छिपी है। ज्ञान को स्वाध्याय से पाकर या गुरु से पाया जा सकता है। किसी सफल व्यक्ति का अनुसरण करके या अनुभवी के ज्ञान को उससे पाकर मस्तिष्क का विकास किया जा सकता है। विकसित मस्तिष्क ज्ञान से परिपूर्ण होता है और जीवन को लक्ष्य तक पहुंचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। लक्ष्य प्राप्ति में ही जीवन की सफलता है!

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