दो व्यक्तियों ने आमने-सामने दुकानें खोलीं। दोनों दुकाने चल निकली और खूब कमाई होती। लेकिन दोनों व्यक्ति दुःखी ही रहते, उन्हें कई रोग लग गए। वे सूखकर कांटा हो गए। बहुत ईलाज कराया पर कोई लाभ न हुआ।
कुछ मित्रों ने सलाह दी नदी किनारे वटवृक्ष के नीचे एक तपस्वी रहते हैं। दोनों उसके पास जाओ वे सही सलाह देंगे और आप लोग सही हो जाओगे।
तपस्वी ने दोनों की अन्तर्व्यथा एकान्त में सुनी।
सही मायने में दोनों ईर्ष्या के रोगी थे। सामने वाले की उन्नति सहन न कर पाते और मन ही मन कुढ़ते रहते। यह उनके रोग का मूलकारण था।
तपस्वी ने कहा वे दोनों काउंटर बदल लें और मालिक दूसरे को समझें व स्वयं नौकर की तरह कार्य करें।
दोनों ने तपस्वी की बात मान ली। इससे वे ईर्ष्या से मुक्त हो गए। कुछ ही समय में दोनों नीरोग हो गए।
अब वे समझ गए थे कि ईर्ष्या कदापि नहीं करनी चाहिए। ईर्ष्या रोगों का घर है, ईर्ष्या करने से किसी का कुछ नहीं जाता अपना ही सबकुछ खो जाता है। यहां यही सीख मिलती है कि ईर्ष्या कभी किसी से न करो नहीं तो अपना ही अहित होगा।
कुछ मित्रों ने सलाह दी नदी किनारे वटवृक्ष के नीचे एक तपस्वी रहते हैं। दोनों उसके पास जाओ वे सही सलाह देंगे और आप लोग सही हो जाओगे।
तपस्वी ने दोनों की अन्तर्व्यथा एकान्त में सुनी।
सही मायने में दोनों ईर्ष्या के रोगी थे। सामने वाले की उन्नति सहन न कर पाते और मन ही मन कुढ़ते रहते। यह उनके रोग का मूलकारण था।
तपस्वी ने कहा वे दोनों काउंटर बदल लें और मालिक दूसरे को समझें व स्वयं नौकर की तरह कार्य करें।
दोनों ने तपस्वी की बात मान ली। इससे वे ईर्ष्या से मुक्त हो गए। कुछ ही समय में दोनों नीरोग हो गए।
अब वे समझ गए थे कि ईर्ष्या कदापि नहीं करनी चाहिए। ईर्ष्या रोगों का घर है, ईर्ष्या करने से किसी का कुछ नहीं जाता अपना ही सबकुछ खो जाता है। यहां यही सीख मिलती है कि ईर्ष्या कभी किसी से न करो नहीं तो अपना ही अहित होगा।
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