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सोमवार, जुलाई 19, 2010

कर्महीन



य इन्द्र सस्त्यव्रतोऽनुष्वापमदेवयुः। स्वैः ष एवैर्मुमुरत्‌, पोष्यं रयिं सनुतर्धेहि तं ततः॥-ऋग्वेद 8.97.3
     हे परमात्मन्‌ ! नास्तिक, कर्महीन, आलसी, निद्राशील होकर सोता रहता है। वह अपने कर्मों से, चाल-चलन से मरता है, उसका संचित धन दूसरे के पास सुरक्षित रखो।
लक्ष्मी स्थायी नहीं रहती । जो आलसी, प्रमादी, व्यसनी और अधार्मिक है, वह कर्महीन है। उसका प्रमाद उसे नष्ट कर देता है। वह पापी हाकर अपने कर्मों से मरता है। उसका ऐश्वर्य किसी दूसरे के पास चला जाता है।
नास्तिक, कर्महीन व्यसनी यदि बनोगे। मान, सुख-ऐश्वर्य और प्राण खोओगे॥

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