पूजा से तात्पर्य सम्मान करना, सादर स्वागत करना, आराधना करना, अर्चना करना, पूजा करना, आदर सहित भेंट चढ़ाना। प्राचीनकाल से ही हमें देवार्चन की दो रीतियां ज्ञात हैं-योग और पूजा।
अग्निहोत्र द्वारा अर्चन करना योग अर्थात् यज्ञ है। यह अनेक के सहयोग से होता है और इसके भी कई भेद हैं सकाम व निष्काम आदि। मन्त्रों व परम्पराओं का एक विशिष्ट क्रम होता है।
पूर्व निश्चित द्रव्यों के साथ देवार्चन को पूजा कहते हैं। पत्र, पुष्प और जल द्वारा अर्चन करना ही पूजा है। पूजा द्वारा मनुष्य निज आराध्य देव को प्रसन्न कर अभिलाषित वर मांगता है। पूजा वैदिक व पौराणिक परिपाटी दो प्रकार से होती है। वैदिक पूजा उनको करनी चाहिए जोकि यज्ञोपवीतधारी द्विज हो। जिनके यज्ञोपवीत न हो उन्हें पौराणिक मन्त्रों द्वारा पूजा करनी चाहिए।
पूजन पंचोपचार, दशोपचार एवं षोडशोपचार होता है। पंचोपचार पूजा गंधाक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेध इन पांच प्रकार के पदार्थों द्वारा की जाती है। दशोपचार पूजा दस उपचारों द्वारा की जाती है जोकि निम्न हैं-पाद्य, अर्य, आचमन, स्नान, वस्त्रा, गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य। षोडशोपचार पूजा सोलह उपचारों के साथ की जाती है जोकि निम्न हैं-ध्यान, आवह्न, आसन, पाद्य, अर्ध्य, आचमन, स्नान दूध व दही आदि से, वस्त्र, यज्ञोपवीत आभूषण आदि, गंध, पुष्प-पत्र, धूप, दीप, नैवेद्य में फल, प्रसाद एवं सूखा मेवा आदि, तांबूल, दक्षिणा, नीरांजन, आरती आदि, पुष्पांजलि एवं प्रदिक्षणा व नमस्कार स्तुति आदि।
षोडशोपचार पूजा के अतिरिक्त छत्र, चामर, पादुकादि एवं रत्नों से विविध सामग्री व सज्जा से की गई पूजा राजोपचार कहलाती है।
पूजा में बासी जल, पत्ते, पुष्प, फल आदि वर्जित हैं। मात्र गंगाजल, तुलसी पत्र, बिल्वपत्र और कमल वर्जित नहीं है। कमल पांच रात, बिल्व दसात, तुलसी ग्यारह रात तक बासी नहीं होते। सड़े, गले कटे असुगंधित पुष्प पूजा के वर्ज्य हैं। घर की मूर्ति 16अंगुल से अधिक नहीं होनी चाहिए। सूर्य, गणपति, देवी, रुद्र और विष्णु शिव पंचायत के नाम से जाने जाते हैं। इन पांचों की पूजा करने से समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
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