चातुर्मास का अर्थ है चार महीने। आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक के चार मास का समय चातुर्मास कहलाता है। शास्त्रों में इस दौरान आने वाले सावन, भादौ, आश्विन और कार्तिक मास में खान-पान और व्रत के नियम और संयम बताए गए हैं। इनमें स्वेच्छा से नियमित उपयोग के पदार्थों का त्याग एवं ग्रहण करने का विधान है। जैसे मधुर स्वर के लिये गुड़, लंबी उम्र एवं संतान प्राप्ति के लिये तेल, शत्रु बाधा से मुक्ति के लिये कड़वा तेल, सौभाग्य के लिये मीठा तेल आदि का त्याग किया जाता है। इसी प्रकार सुंदरता के लिए नियत मात्रा में पंचगव्य यानि गाय के दूध, दही आदि पांच पदार्थों से बने खाद्य का सेवन करना चाहिए। वंश वृद्धि के लिये नियमित दूध का सेवन, बुरे कर्म फल से मुक्ति के लिये एक समय भोजन या उपवास करने का व्रत लिया जाता है। जो लोग चातुर्मास का व्रत करते हैं, उनको सावन में हरी सब्जी़, भादौ में दही, आश्विन में दूध और कार्तिक में दाल नहीं खाना चाहिए। इसके अलावा पलंग पर सोना, पत्नी के संग, झूठ बोलना, मांस, शहद और दूसरे से मिले दही-भात का भोजन करना, मूली एवं बैंगन का भी त्याग के भी शास्त्रोक्त विधान है।
इस वर्ष का चातुर्मास व्रत 25 जुलाई, गुरु पूर्णिमा के साथ इस व्रत का शुभारंभ होगा।चातुर्मास देवशयनी एकादशी 21 जुलाई से प्रारंभ होगा और समापन देवउठनी ग्यारस से होगा। इस दौरान एक स्थान पर रहकर बह्मचर्य का पालन किया जाता है। चार माह संत जमीन पर सोते हैं और रसदार पदार्थ भी त्याग देते हैं। चातुर्मास के दौरान भगवान विष्णु की आराधना करें तो सभी पापों से मुक्ति मिल जाती है। इसके अलावा गुरुवार को उपवास और विष्णु सहस्त्रनाम का पाठ किया जाना भी लाभप्रद होता है।
पुराणों के अनुसार चार मास तक विष्णु भगवान क्षीरसागर में शयन के लिए चले जाते हैं। तीनों लोकों के स्वामी होने से भगवान का शयनकाल संपूर्ण संसार का शयनकाल माना जाता है। देवशयनी या हरिशयनी एकादशी या देवसोनी ग्यारस आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की ग्यारहवीं तिथि को मनाई जाती है। चूँकि एकादशी व्रत भगवान विष्णु की आराधना का व्रत है, इसलिए देवसोनी व देवउठनी एकादशियों का विशेष महत्व है। आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक का चार माह का समय हरिशयन का काल समझा जाता है। इन चार माहों का संयुक्त नाम चातुर्मास्य दिया गया है।
इस अवधि में पर्व, व्रत, उपवास, साधना, आराधना, जप-तप किए जाते हैं उसी को एक शब्द में 'चातुर्मास्य' कहलाता है। पुराणों और भागवत में इन चार माहों की तपस्या को एक यज्ञ की संज्ञा दी गई है। चार माहों तक सोते-जागते, उठते-बैठते 'ॐ नमो नारायणाय' के जप की अनुशंसा की गई है। भगवान विष्णु सर्वव्यापी हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उनकी शक्ति से ही संचालित होती है।
हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार, आषाढ मास के शुक्लपक्ष की एकादशी की रात्रि से श्रीहरिचार मास के लिए योगनिद्रा में लीन हो जाते हैं। विष्णुधर्मोत्तरपुराणमें लिखा गया है कि भगवान विष्णु वर्षाऋतु के चारों मास में लक्ष्मी जी की सेवा पाकर शेषनाग की शय्यापर शयन करते हैं। श्री विष्णु जी की वंदना इस प्रकार की जाती है:
शांताकारंभुजगशयनंपद्मनाभंसुरेशं।
विश्वाधारंगगनसदृशंमेघवर्णशुभाङ्गम्॥
लक्ष्मीकान्तंकमलनयनंयोगिभिध्र्यानगम्यं।
वन्दे विष्णुंभवभयहरंसर्वलोकैकनाथम्॥
स्पष्ट है कि जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शय्यापर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो सब देवताओं द्वारा पूज्य हैं, जो संपूर्ण विश्व के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीले मेघ के समान जिनका वर्ण है, जिनके सभी अंग अत्यंत सुंदर हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किये जाते हैं, जो सब लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरणरूप भय को दूर करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति,कमलनयन,भगवान विष्णु को मैं प्रणाम करता हूं।
चौमासे के शुभाशुभ फल
जो मनुष्य केवल शाकाहार करके चातुर्मास व्यतीत करता है, वह धनी हो जाता है। जो श्रद्धालु प्रतिदिन तारे देखने के बाद मात्र एकबार भोजन करता है, वह धनवान, रूपवानऔर गणमान्य होता है। जो चातुर्मास में एक दिन का अंतर करके भोजन करता है, वह बैकुंठ जाने का अधिकारी बनता है। जो मनुष्य चातुर्मासमें तीन रात उपवास करके चौथे दिन भोजन करने का नियम साधता है, वह पुनर्जन्म नहीं लेता। जो साधक पांच दिन उपवास करके छठे दिन भोजन करता है, उसे राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञों का संपूर्ण फल मिलता है। जो व्यक्ति भगवान मधुसूदन के शयनकाल में अयाचित (बिना मांगे) अन्न का सेवन करता है, उसका अपने भाई-बंधुओं से कभी वियोग नहीं होता है। चौमासे में विष्णुसूक्त के मंत्रों में स्वाहा संयुक्त करके नित्य हवन में तिल और चावल की आहुतियां देने वाला आजीवन स्वस्थ एवं निरोगी रहता है। चातुर्मासमें प्रतिदिन भगवान विष्णु के समक्ष पुरुषसूक्त का जप करने से बुद्धि कुशाग्र होती है। हाथ में फल लेकर जो मौन रहकर भगवान नारायण की नित्य 108परिक्रमा करता है, वह कभी पाप में लिप्त नहीं होता। चौमासे के चार महीनों में धर्मग्रंथों के स्वाध्याय से बडा पुण्यफल मिलता है। श्रीहरि के शयनकाल में वैष्णव को अपनी किसी प्रिय वस्तु का त्याग अवश्य करना चाहिए। मनुष्य जिस वस्तु को त्यागता है वह उसे अक्षय रूप में प्राप्त होती है। चातुर्मास आध्यात्मिक साधना का पर्व काल है जिसका सदुपयोग आत्मोन्नति हेतु करना चाहिए।
बहुत ही अच्छी प्रस्तुती,हरी की लीला अपरम्पार है, ॐ नमो नारायणाय ...ॐ नमो नारायणाय
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