नाड़ी मानसिक मार्ग को कहते हैं। इस भौतिक शरीर में नाड़ियां प्रवाहमान प्राण का मार्ग है। नाड़ी ज्ञान आवश्यक है। स्नायु तथा नाड़ियां दो अलग-अलग वस्तुएं होते हुए भी इनके विषय में भ्रम उत्पन्न हो जाता है। यह जान लें कि स्नायुओं का सम्बन्ध भौतिक शरीर से और नाड़ियों का सम्बन्ध प्राणिक शरीर व सूक्ष्म कोषों से है। नाड़िया शरीर के भीतर प्राण के यातायात स्नायु संस्थान को शक्ति प्रदान करती तथा उसे आगे-पीछे इच्छित स्थान पर ले जाती हैं। कुण्डलिनी योगानुसार शरीर में 72000 या इससे भी अधिक नाड़ियां हैं जिनसे प्राण या अन्यायन्य ऊर्जाएं विद्युत तरंगों सदृश बहती हैं। ये शरीर के विभिन्न कोशों और अंगों के स्वास्थ्य तथा तालबद्धता को स्वस्थ रखती है। इनमें से दस नाड़ियां प्रमुख हैं जोकि शरीर में चेतना तथा प्राण का वितरण व नियन्त्रण करती हैं। किसी भी नाड़ी के दूषित होने पर वहां रोग उत्पन्न हो जाता है। सिद्धासन लगाने से इन नाड़ियों का शोधन होता है।
प्रमुख दस नाड़ियां इस प्रकार हैं-इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, गान्धारी, हस्ति-जिह्ना, पूषा, यशस्विनी, अलम्बुषा, कुहू व शंखिनी।
मेरूदण्ड के बायें भाग में इड़ा, दाहिने भाग में पिंगला, मध्य में सुषुम्ना, बायें नेत्र में गांधारी, दायें नेत्र में हस्ति-जिह्ना, बायें कान में यशस्विनी, दायें कान में पूषा, मुख में अलम्बुषा, लिंग में में कुहु तथा गुदा में शंखिनी का वास है। अतः शरीर के दस द्वारों में दस नाड़ियां विद्यमान हैं।
दस में भी तीन नाड़ियां प्रमुख हैं जोकि समस्त पर नियन्त्रण रखती हैं। ये तीन हैं-
1 इड़ा
2. पिंगला
3. सुषुम्ना
इड़ा बायें नासारन्ध्र से चलने वाली इन्द्र नाड़ी है जिसका रंग शुभ है और इसे अमृत विग्रहा भी कहते हैं।
पिंगला दायें नासारन्ध्र से चलने वाली सूर्य नाड़ी है जिसका रंग लाल है औ इसे रौद्रात्मिका भी कहते हैं।
ये दोनों नाड़िया काल स्वरूप दिखती हैं। जब इनकी समगति होती है तो सुषुम्ना नाड़ी में इसका लय होता है। इसी अवस्था में कुण्डलिनी प्रवेश करती है।
मूलाधार से जहां से ये तीनों निकलती हैं, उसे मुक्त त्रिवेणी और आज्ञा चक्र के समीप जहां ये मिलती हैं, उसे युक्त त्रिवेणी कहते हैं। इड़ा गंगा रूपा, पिंगला यमुना स्वरूपा एवं सुषुम्ना सरस्वती रूपिणी है। ये तीनों आज्ञा चक्र के ऊपर मिलती हैं उस स्थान को त्रिकुट या त्रिवेणी कहते हैं।
बाह्य स्नान से कोई फल नहीं मिलता है।
गुरुकृपा से आत्मतीर्थ में आज्ञाचक्र के ऊपर तीर्थ राज त्रिवेणी में मानस स्नान अर्थात् यौगिक स्नान करता है, वह निश्चय ही मुक्ति पद पाता है।
इन तीन नाड़ियों में भी सुषुम्ना सर्वप्रधान है। इसके गर्भ में वज्राणी नामक नाड़ी है जो शिश्न प्रदेश से निकलकर शिरःस्थान तक जाती है। इस वज्र नाड़ी के मध्य में त्रिलोक स्वरूपा प्रणव युक्ता एवं अन्त में मकड़ी के जाले सदृश बहुत सूक्ष्म चित्राणी नाड़ी के मध्य में एक विद्युत सदृश ब्रह्म नाड़ी है जोकि मूलाधार पद्म स्थित महादेव के मुख से निकलकर सिर स्थित सहस्त्र दल तक फैली हुई है।
सिद्धासन में बैठकर जाप किया जाए तो नाड़ियां शोधित होती हैं। जल पीकर इस जाप को किया जाए तो पिया जल नाड़ी शोधन में अवश्य काम आएगा।
ब्रह्म नाड़ी से ही योग साधना का परम फल प्राप्त होता है। आत्मसाक्षात्कार होता है और मुक्ति लाभ मिलता है। इड़ा शीतल और पिंगला उष्ण है। इनमें से प्रत्येक नाड़ी एक घंटा चलती है। इनके चलते रहने से मुनष्य सांसारिक कर्मों में लिप्त रहता है। योगी सदैव अपने प्राण को सुषुम्ना में चलाने का प्रयास करते हैं। सुषुम्ना के समय ध्यान अच्छा लगता है। इसमें अभ्यास करने से कुण्डलिनी जागृत हो जाती है और सुषुम्ना में होकर षट्चक्रों को भेदन करती हुई ऊपर चढ़ने लगती है और साधक को आनन्द और शक्ति का अनुभव होता है।
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