एक मंदिर में भगवान की मूर्ति के समक्ष एक वीणा रखी हुई थी। मंदिर में लोग आते व वीणा के दर्शन कर चले जाते। कुछ उसे बजाने की इच्छा करते पर रक्षक उसे मना कर देता। वीणा वहीं रखी रहती कोई उसका उपयोग न कर पाता। एक दिन एक व्यक्ति आया। उसने वीणा बजाने की इच्छा व्यक्त की तो उसे भी रक्षक ने मना कर दिया। थोड़ी देर में सब चले गए और रक्षक भी किसी कार्य से चला गया तो उस व्यक्ति ने वीणा उठा ली और उसका लयपूर्वक वादन करने लगा। वीणा का मधुर स्वर सुनकर लोग वापस आ गए और कई घंटों ताक वीणा वादन चलता रहा एवं लोग मन्त्रमुग्ध सुनते रहे। वीणा वादन में उन्हें ईश्वरीय आनन्द की अनुभूति हुई तो सब एक स्वर में बोले-आज वीणा सार्थक हो गई।
मानव जीवन बहुत भाग्य से मिलता है। सबको यह काया मिली है पर इसकी महत्ता कोई नहीं जानता। लकीर के फकीर बने इस मानुष जन्म को यूं गवांते जा रहे हैं। इसकी सार्थकता तो तभी है जब इसका उपयोग जीवन के विकास व दुष्प्रवृत्तियों के विनाश के लिए हो। जो सुकर्म रत रहकर शरीर रूपी वीणा से मधुर स्वर लहरियां निकाल पाते हैं वे ही अपना जीवन सार्थक कर पाते हैं। जिसने तन का सदुपयोग विकास व दूजों के हित में किया उसने जीवन को सार्थक कर लिया। जीवन के प्रत्येक पल में किए गए सुकार्य जीवन को सार्थक बनाते हैं और प्रतिफल में सफलता, यश व मान सम्मान के साथ-साथ जीवन मरने के बाद नाम अमर हो जाता है।
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