यह सब जानते हैं कि यद् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे के अनुसार जैसा यह विश्व बना, वैसा ही मनुष्य का शरीर भी बना है। समस्त विश्व में जितने देवता हैं, उतने ही देवता शरीर में स्थित हैं। तभी तो यह कहा गया है कि 'देहो देवालयः प्रोक्तो जीवो देवः सनातनः।'
हमारे शरीर में साढ़े तीन करोड़ नाड़ियां हैं और उतने ही देवता भी हैं। उसमें और सब तो अप्रकट रूप से, किन्तु चौदह देवता अर्थात् दस इन्द्रियां, चार अन्तःकरण के स्वामी प्रकट रूप में हैं। इनके बारे में यहां बताते हैं।
चक्षु के देवता सूर्य हैं। इनका निवास चक्षुओं में है। सूर्य चक्षु इन्द्रिय के देवता होने के कारण ही इससे रूप दर्शन सम्भव हो पाता है।
घ्राण के देवता अश्विनी कुमार हैं। इनका निवास नासिका में है।
श्रोत्रोन्द्रिय के द्वारा श्रवण होता है इसके देवता दिक् हैं। इससे शब्द का ज्ञान होता है।
जिह्ना के देवता वरुण हैं। इससे रस का ज्ञान होता है। इसीलिए जिह्ना को रसना भी कहा जाता है।
त्वक् के देवता वायु हैं। इससे स्पर्श का ज्ञान होता है। त्वचा में वायु देवता का निवास हाता है।
हाथों के देवता इन्द्र हैं। ग्रहण, त्याग, बल व पराक्रम से सम्बद्ध सभी कार्य हाथों के द्वारा सम्पन्न होते हैं। हस्तेन्द्रिय के देवता इन्द्र का वास इसमें होता है।
चरणों के देवता विष्णु हैं। चरणों से धर्म की सिद्धि के लिए तीर्थयात्रा आदि सेवा धर्म होते हैं।
वाणी के द्वारा समस्त शब्दों का उच्चारण होता है। जिह्ना में दो इन्द्रियां होती हैं-
एक रसना एवं दूसरी वाणी।
वाणी में देवी सरस्वती का वास होता है, जबकि जीभ में वरुण देवता होते हैं।
मेद उपस्थ के देवता प्रजापति हैं। गुह्योन्द्रिय में आनन्द का अधिष्ठान होता है। इससे प्रजा अथवा संतति की सृष्टि होती है।
वायु-गुदा के देवता मित्रा हैं। इस इन्द्रिय से शरीर के मल का निःसरण होता है। इससे शरीर की शुद्धि होती है।
दस बाह्यन्द्रियां होती हैं। पांच ज्ञानेन्द्रियां एवं पांच कर्मेन्द्रियां होती हैं।
अन्तःकरण भीतरी इन्द्रियां हैं। ये चार हैं-
1. बुद्धि
2. अहंकार
3. मन
4. चित्त
बुद्धि इन्द्रिय के देवता ब्रह्मा हैं।
इसके द्वारा सांसारिक विषयों का तथा सम्पूर्ण विवेक का ज्ञान होता है। बुद्धि निर्मल होती है एवं उतना ही उसमें सूक्ष्म ज्ञान होता चला जाता है।
अहंकार इन्द्रिय के देवता रुद्र हैं।
अंह तत्व के द्वारा अहं(मैं) का बोध हाता है, यह सत्त्व, रज, तम तीन प्रकार का होता है और सत्त्व प्रधान अहंकार तत्व से सोऽहं की भावना होती है। इस अहं के अभिमानी देवता रुद्र हैं।
मन के देवता चन्द्रमा हैं।
मन का धर्म संकल्प विकल्प है। सांसारिक और पारमार्र्थिक सभी अवस्थाओं में मन का बड़ा महत्त्व है।
यह मन ही परम कारण है-मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।
यही मन मननीय शक्ति बनने पर ईश्वर की प्राप्ति करा देता है और इसी मन के निग्रह करके के लिए ही व्रत, दान, नियम, यम, दम, धर्म, कथा तथा सत्कर्म अनुष्ठित होते हैं। मन का एकाग्र हो जाना ही बड़ा योग है, समाधि है।
इस प्रकार मन बड़ा प्रबल है। उसका निग्रह कर लने से सांसारिक सुखों की उपलब्धि होती है और परतत्व की भी प्राप्ति हो जाती है। मन के अधिष्ठाता देवता चन्द्रमा हैं।
चित्त ही चैतन्य है। शरीर में जहां जो कुछ स्पंदन होता है, चलन होता है-यह सब चित्त के द्वारा होता है।
सच्चिदानन्द में तीन शब्द हैं, उसमें से सत् निराकार निगुर्ण ब्रह्म की जो इच्छा शक्ति(एकोऽहं बहु स्याम) है, वह इच्छा शक्ति चिद्विलास है। सत् के बाद चित्त तत्त्व है, यही चैतन्यरूपा शक्ति है। इसी के द्वारा मनुष्य के शरीर में तत्व शक्तियों का आभिर्वाव होता है।
ईश्वर ने ब्रह्माण्ड बनाया और वे सब देवता आकर उसमें सिथत हो गए, तब भी ब्रह्माण्ड में चेतना नहीं आयी और वह विराट् पुरुष उठा नहीं, किन्तु जब चित्त के देवता क्षेत्राज्ञ ने चित्त के सहित हृदय में प्रवेश किया तो विराट् पुरुष तुरन्तर उठकर खड़ा हो गया।
इसी प्रकार समस्त विश्व को चेतन करने वाली यही चित् शक्ति ही है। उपासना के द्वारा चित्त बन जाता है। आगमों में विशेषकर काश्मीर शिवाद्वेत दर्शन में इसी का स्पन्द-रूप में वर्णन किया गया है। इसी का चित्-शक्ति नाम है। तन्त्रों में इसी को शक्ति-रूप मानकर भगवती के नाम रूपों का वर्णन किया गया है। प्रकृति की शक्ति ही इसके देवता हैं। शक्ति की उपासना के द्वारा शिव का ज्ञान-ब्रह्म का ज्ञान होता है। शरीरस्थ देवता के ज्ञान से यह सिद्ध हो जाता है कि जगत् शरीर में है।
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