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रविवार, जून 20, 2010

जैसा अन्‍न वैसा मन -योगानन्‍द स्‍वामी


यह सब जानते हैं कि आहार अशुद्ध हो तो मन कदापि शुद्ध नहीं रह सकता है। आत्म-कल्याण के पथ पर अग्रसर होने का मूलाधार आहार शुद्धि है। आहार पर ही मन की शुद्धि निर्भर है।  मन को शरीर का ही एक भाग माना गया है। मन को ग्याहरवीं इन्द्रिय भी कहते हैं।  
शरीर की उन्नति व अवनति आहार पर ही निर्भर रहती है। आहार के शरीर पोषक स्थूल भावों को हम सभी जानते हैं। किस वस्तु के खाने से शरीर पर क्यो प्रभाव पड़ता है, विज्ञान ने इस पर बहुत खोज की है। यह खोज स्थूल है क्योंकि अभी यह जानना शेष है कि किस आहार में कौन-कौन से सूक्ष्म गुण विद्यमान हैं एवं इनका मन पर क्या प्रभाव पड़ता है। 
ऋषि और मुनियों ने इस पर विचार और व्यवहार किया है। उनके अनुसार सभी पदार्थों में तीन गुण होते हैं-
1. सात्तिवक  
2. राजसिक
3. तामसिक
आप जिस गुण के पदार्थ का सेवन करेंगे, आपकी बुद्धि भी वैसी हो जाएगी।
अनीति से कमाए गए धन से बना आहार भी अपना प्रभाव अशुभ ही डालेगा।
शुद्ध मन से बनाया गया भोजन स्वाद  और स्वास्थ्यवर्धक होता है।
सुमन एवं स्वास्थ्य के लिए सात्त्िवक आहार का सेवन करने का निर्देश दिया जाता है। 
मद्य, मांस, प्याज, लहसुन, मसाले, चटपटे, उत्तेजक, नशीले, गरिष्ठ, बासी, फफूंदी, तमोगुणी प्रकृति के पदार्थ त्याज्य हैं, इनको ग्रहण नहीं करना चाहिए।
दुष्ट प्रवृत्ति के लोगों द्वारा बनाया गया आहार भी कुप्रभाव ही छोड़ता है। यह अच्छा प्रभाव नहीं छोड़ता है। आहार बनाते समय मन शुद्ध होना चाहिए। यदि बनाने वाला मन से एवं पे्रम सहित भोजन नहीं बनाता है तो बनाया गया भोजन कदापि अच्छा प्रभाव नहीं छोड़ेगा। इसीलिए तो कहा गया है कि जैसा अन्न वैसा मन।
छान्दोग्य उपनिषिद में आहार के संबंध में कहा गया है कि-
खाया गया अन्न तीन प्रकार का हो जाता है। उसका जो स्थूल भाग है वह मल बनता है, जो मध्यम भाग है वह मांस बनता है और सूक्ष्म भाग है वह मन बनता है। 
इसी प्रकार पिया हुआ जल तीन प्रकार का हो जाता है। जल का स्थूल भाग मूत्रा बनता है, मध्यम भाग रक्त बनता है और सूक्ष्म भाग प्राण बन जाता है।
इसीलिए कहा गया है कि मन अन्नमय है, प्राण जलमय है, वाक्‌ तेजोमय है।
इसी उपनिषद में आगे कहा गया है कि अन्न ही बल से बढ़कर है, यदि दस दिन भोजन न मिले तो प्राणी की समस्त शक्तियां क्षीण हो जाती हैं और वे फिर तभी लौटती हैं जब वह पुनः भोजन करने लगे। तुम अन्न की उपासना करो क्योंकि अन्न ही ब्रह्म है।
आहार में अभक्ष्य को त्याग देने से चित्त शुद्ध हो जाता है। आहार शुद्धि से चित्त शुद्धि स्वतः हो जाती है। जब चित्त शुद्ध हो जाता है तो अज्ञान की ग्रन्थियां टूटती हैं और अविद्या का नाश होने से ज्ञान की प्राप्ति होती है। 
यह जान लें कि आहार शुद्ध होने से अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है। अन्तःकरण शुद्ध होने से भावना दृढ़ होती है और भावना दृढ़ होने से हृदय की समस्त गांठें खुल जाती हैं।
तैत्तरीय उपनिषद में अधिक स्पष्ट कहा गया है कि आत्मकल्याण हेतु आहार शुद्धि का विशेष ध्यान रखना चाहिए। पृथ्वी पर रहने वाले समस्त प्राणी अन्न से ही उत्पन्न  होते हैं और फिर अन्न से ही जीते हैं। अन्त में अन्न में ही विलीन हो जाते हैं। अन्न ही सबसे श्रेष्ठ है। वह औषधि रूप है। जो साधक अन्न की ब्रह्म रूप में उपासना करता है, वो उसे प्राप्त कर लेता है।
भगवान्‌ सनत कुमार ने नारद को बताया था कि अन्न शुद्ध होने से अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है और विवेक बुद्धि ठीक काम करती है। 
विवेक से अज्ञान जन्य ग्रन्थियां खुल जाती हैं।
यहा कहा जाता है कि मनुष्य जैसा अन्न खाता है उसके देवता भी वैसा ही अन्न खाते हैं।
अशुद्ध आहार खाकर तो साधनारत्‌ साधक का इष्ट ही भ्रष्ट हो जाता है और उससे जिस प्रतिफल की आशा की गयी थी, वह प्रायः प्राप्त नहीं होती है।
निष्कर्षतः यही कहा जा सकता है कि आहार सैदव शुद्ध लेना चाहिए। अशुद्ध आहार के सेवन से मन भी अशुद्ध हो जाता है। यदि मन अशुद्ध होगा तो बुद्धि भी अशुद्ध होगी। ऐसे में बुद्धि में विवेक नहीं रहेगा। इस स्थिति में सही निर्णय न होने से भटकाव की स्थिति होगी।
भटकाव से बचना है तो बुद्धि विवेक सम्मत होनी चाहिए। बुद्धि में विवेक साधना एवं आहार शुद्धि से ही आता है। 
खाओ ऐसा अन्न जिससे शुद्ध रहे मन। इस वाक्य को अपनाओ और भटकाव से बचकर अपनी जीवन नैया को पार लगाओ। जीवन तभी सही राह पर लगता है जब मन शद्ध हो, उसमें विवेक सम्मत बुद्धि का वास हो। यह हो तो जीवन उन्नति पथ पर अग्रसर हो ही जाता है। जीवन के पथ में कांटे न रहें इसलिए खाओ शुद्ध अन्न। शुद्ध अन्न ही भवसागर पार कराएगा।

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