विवाह भारतीय संस्कृति में महत्वपूर्ण संस्कार है। कहते हैं कि जोड़ियां संयोग से बनती हैं जोकि परमात्मा द्वारा पहले से ही तय होती हैं। यह भी सत्य है कि अच्छी पत्नी व अच्छी सन्तान भाग्य से ही मिलती है। पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार ही जीवन साथी मिलता है, यदि सुकर्म अधिक हैं तो वैवाहिक जीवन सुखमय और कुकर्म अधिक हैं तो वैवाहिक जीवन दुखमय होता है।
जन्मकुंडली में विवाह का विचार सातवें भाव से होता है। इस भाव से पति एवं पत्नी, काम (भोग विलास), विवाह से पूर्व एवं पश्चात यौन संबंध, साझेदारी आदि का विचार मुख्य रूप से किया जाता है।
वैवाहिक सुख के विचार के कुछ अनमोल ज्योतिष योग एवं विचार
1. यदि कोई भाव, भावेश एवं उसका कारक(शुक्र) पाप ग्रहों के मध्य में स्थित हो, पापी ग्रहों से युत हों, निर्बल हों, शुभग्रह से युत व दृष्ट न हो, इन तीनों से नवम, चतुर्थ, अष्टम, पंचम तथा द्वादश स्थानों में पाप ग्रह हों, भाव नवांश, भावेश नवांश तथा भाव कारक नवांश के स्वामी भी शत्रु राशि में, नीच राशि में अस्त या युद्ध में पराजित हों तो उस भाव से संबंधित सुख की क्षति होती है।
2. यदि सप्तमेश शुभयुत न होकर षष्ठ, अष्टम या द्वादश भावस्थ हो और नीच या अस्त हो, तो जातक या जातका के विवाह में बाधा आती है।
3. यदि षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश सप्तम भाव में विराजमान हो, उस पर किसी ग्रह की शुभ दृष्टि न हो या किसी ग्रह से उसका शुभ योग न हो, तो वैवाहिक सुख में बाधा आती है।
4. सप्तम भाव में पापग्रह, सप्तमेश पर पापग्रह की दृष्टि हो तथा द्वादश भाव में पापग्रह हो तो वैवाहिक सुख में बाधा आती है।
5. यदि शुक्र सप्तमेश हो (मेष या वृश्चिक लग्न) और पाप ग्रहों के युत या दृष्ट हो, या शुक्र नीच व शत्रु नवांश का या षष्ठांश में हो, तो जातक की स्त्री कठोर और कुलटा होती है। ऐसे जातक का वैवाहिक जीवन बदतर हो जाता है।
6. यदि शनि सप्तमेश हो, पाप ग्रहों के साथ व नीच नवांश में हो या नीच राशिस्थ हो और पापग्रहों से दृष्ट हो, तो जीवन साथी के दुष्ट स्वभाव के कारण वैवाहिक जीवन कलहपूर्ण हो जाता है।
7. राहु अथवा केतु सप्तम भाव में हो व उसकी क्रूर ग्रहों से युति बनती हो या उस पर पाप दृष्टि हो, तो वैवाहिक जीवन तनावपूर्ण रहता है। यदि सप्तमेश निर्बल हो और त्रिक भाव (6, 8 या 12) में स्थित हो तथा शुक्र निर्बल हो तो जीवनसाथी विचार निम्न श्रेणी के होने के कारण वैवाहिक जीवन दु:खमय रहता है।
8. सूर्य लग्न में व स्वराशिस्थ शनि सप्तम भाव में हो तो विवाह में बाधा आती आती है या विवाह विलंब से होता है।
9. सप्तमेश वक्री हो व शनि की दृष्टि सप्तमेश व सप्तम भाव पर पड़ती हो, तो विवाह में विलंब होता है।
10. सप्तम भाव व सप्तमेश पाप कर्तरी योग में हो तो विवाह में बाधा आती है।
11. शुक्र शत्रुराशि में स्थित हो और सप्तमेश निर्बल हो तो विवाह विलंब से होता है।
12. शनि सूर्य या चंद्र से युत या दृष्ट हो, लग्न या सप्तम भाव में स्थित हो, सप्तमेश निर्बल हो तो विवाह में बाधा आती है।
13. शुक्र कर्क या सिंह राशि में स्थित होकर सूर्य और चंद्र के मध्य हो और शनि की दृष्टि शुक्र पर हो तो विवाह नहीं होता है।
14. शनि की सूर्य या चंद्र पर दृष्टि हो, शुक्र शनि की राशि या नक्षत्र में में हो और लग्नेश तथा सप्तमेश निर्बल हो तो विवाह में बाधा आती है।
15. सप्तम भाव, सप्तमेश और द्वितीय भाव पर क्रूर ग्रहों का प्रभाव वैवाहिक जीवन में क्लेश उत्पन्न करता है।
16. लग्न, सप्तम भाव, सप्तमेश की कारक शुक्र, राहु, केतु या मंगल से दृष्टि या युति हो तो दाम्पत्य में क्लेश रहता है।
17. द्वितीय भाव में सूर्य के सप्तम, सप्तमेश, द्वादश और द्वादशेश पर (राहु पृथकतावादी ग्रह) प्रभाव से दाम्पत्य जीवन में क्लेश की, यहां तक कि तलाक की नौबत आ जाती है।
18. राहु, सूर्य, शनि व द्वादशेश पृथकतावादी ग्रह हैं, जो सप्तम (दाम्पत्य) और द्वितीय (कुटुंब) भावों पर विपरीत प्रभाव डालकर वैवाहिक जीवन को नारकीय बना देते हैं। दृष्टि या युति संबंध से जितना ही विपरीत या शुभ प्रभाव होगा उसी के अनुरूप वैवाहिक जीवन सुखमय या दुखमय होगा।
19. अष्टम और द्वादश भाव में क्रूर व पापी ग्रह जीवनसाथी से अलग कराते हैं।
20. सप्तमेश व द्वितीयेश षष्ठ भाव में, सप्तम भाव पर शनि की नीच दृष्टि व षष्ठेश की दृष्टि, केंद्र में शुभ प्रभाव की कमी इन सभी योगों के फलस्वरूप अत्यधिक विवाह बाधा योग अर्थात अविवाहित योग बनता है।
21. यदि सर्वाष्टक वर्ग में सातवें विवाह भाव में शुभ बिंदुओं की संख्या जितनी कम हो, दाम्पत्य जीवन उतना ही दुखद होता है। वर्ग में बिंदुओं की संख्या 25 से कम होने की स्थिति में वैवाहिक जीवन अत्यंत दुखद होता है।
22. सूर्य और बुध के साथ शुक्र की युति किसी भी भाव में होने पर वैवाहिक जीवन में कुछ न कुछ दोष अवश्य ही उत्पन्न होता है, जिससे दाम्पत्य जीवन दुखमय रहता है।
23. लाल किताब के अनुसार शुक्र एवं राहु की किसी भी भाव में युति वैवाहिक जीवन के लिए दुखदायी होती है। यह युति पहले भाव 4 या 7 में हो, तो पति-पत्नी में तलाक की स्थिति आ जाती है या अकाल मृत्यु की संभावना रहती है। इसका उपाय लालकिताब में है कि चांदी के लोटे में बहती नदी का जल और चौकोर शुद्ध चांदी का टुकड़ा डालकर घर के उत्तर में रखें और प्रतिदिन सूर्योदय के बाद जल पूरा करें यदि कम हो गया हो तो। यदि सातवें भाव में राहु हो, तो विवाह के संकल्प के समय बेटी वाला चांदी का एक टुकड़ा बेटी को दे। इससे बेटी के दाम्पत्य जीवन में क्लेश की संभावना कम रहती है। यह उपाय लग्न में राहु रहने पर भी कर सकते हैं, क्योंकि इस समय राहु की दृष्टि सातवें भाव पर होती है। यदि भाव 7 या 1 में राहु अकेला या शुक्र के साथ हो, तो 21 वें वर्ष या इससे पूर्व विवाह होने पर वैवाहिक जीवन दुखमय होता है। अतः उपाय के तौर पर विवाह 21 वर्ष के पश्चात ही कुंडली मिलान करके करें।
24. कभी-कभी जन्मकुंडली में द्विविवाह योग होता है, जिसके फलस्वरूप जातक या जातिका का वैवाहिक जीवन कष्टमय हो जाता है। ऐसे में दोनों को पंडित से विवाह के पूर्व ही तुलसी या विष्णु जी से विवाह की रस्म करा देनी चाहिए।
25. विवाह शुभ मुहूर्त या लग्न में ही करना चाहिए, अन्यथा दाम्पत्य जीवन के कलहपूर्ण होने की प्रबल संभावना रहती है। यदि ऐसा नहीं हुआ हो अर्थात यदि विवाह शुभ मुहूर्त या शुभ लग्न में नहीं हुआ हो, तो विवाह की तिथि व समय का विद्वान ज्योतिषाचार्य से विश्लेषण करवाना चाहिए और शुभ मुहूर्त या लग्न में पुनः विवाह करना चाहिए।
26. मांगलिक दोष विचार आवश्यक है। मंगल दोष भी पति-पत्नी के मध्य तनाव का कारक होता है। स्वभाव से गर्म व क्रूर मंगल यदि प्रथम (अपना), द्वितीय (कुटुंब, पत्नी या पति की आयु), चतुर्थ (सुख व मन), सप्तम (पति या पत्नी, जननेंद्रिय और दाम्पत्य), अष्टम (पति या पत्नी का परिवार और आयु) या द्वादश (शय्या सुख, भोगविलास, खर्च का भाव) भाव में स्थित हो या उस पर दृष्टि प्रभाव से क्रूरता या गर्म प्रभाव डाले, तो पति-पत्नी के मध्य मनमुटाव, क्लेश, तनाव आदि की स्थिति पैदा होती है।
27. अष्टकूट मिलान(वर्ण, वश्य, तारा, योनि, ग्रह मैत्री, गण, भकूट और नाड़ी) आवश्यक है और ठीक न हो तो भी वैचारिक मतभेद रहता है।
उक्त योगों को अपनी कंडली में खोजिए और जानिए कि वैवाहिक सुख कैसा रहेगा।
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