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बुधवार, जून 16, 2010

योग में प्राणायाम(भाग एक) -योगानन्द स्वामी



यह जान लें कि योग शब्द जितना व्यापक है उतना ही प्राण शब्द। प्राण से तात्पर्य श्वास, जीवन, चैतन्य, वायु, ऊर्जा, श्वासोच्छ्वास, या शक्ति है। इसी प्रकार आयाम का शाब्दिक अर्थ है लम्बाई, विस्तार, नियन्त्राण आदि। सम्पूर्ण प्राणायाम शब्द का अर्थ है श्वासों का विस्तार एवं नियन्तत्रण। 
श्वास का सम्पादन भी तीन प्रकार से होता है-
1. श्वसन, जिसे पूरक कहते हैं अर्थात्‌ वायु से भरना।
2. रेचक, उच्छ्वसन कहते हैं, इसमें फेफड़ों को वायु से रिक्त करते हैं। 
3. कुम्भक, श्वासों की रोकथाम को कहते हैं। एक प्रकार से यह वह स्थिति है जब श्वास लेने व श्वास निकालने की दोनों स्थितियां ही नहीं होती हैं। कुम्भक के व्यापक अर्थ में भी दो स्थितियां होती हैं। एक तो पूर्ण श्वास लेने के बाद जब श्वसन क्रिया कुछ समय के लिए रुक जाती है। दूसरा पूर्ण श्वास बाहर निकालने के बाद श्वसन क्रिया कुछ समय के लिए रुक जाती है। प्रथम स्थिति में जब श्वास क्रिया नहीं होती तो उसे अंतर कुम्भक कहते हैं। दूसरी स्थिति जब पूर्ण श्वास निकाल लेने के बाद  जब श्वास क्रिया बिल्कुल नहीं होती तो उसे बाह्य कुम्भक कहते हैं।
अतः स्पष्ट है कि आसन के सिद्ध होने पर श्वास-प्रश्वास की गति को यथाशक्ति  नियंत्रिात करना प्राणायाम कहलाता है। योगदर्शन अध्याय 2 के श्लोक 49 में कहा ही गया है-तस्मिन्‌ सति श्वासप्रश्वासयोर्गति विच्छेदः प्राणायामः।
सरलता से समझें तो प्राणायाम श्वास का विज्ञान है। यह वह विज्ञान है जिसके चारों ओर जीवन चक्र घूमता है। प्राणायाम  के अभ्यास से वासनाओं के मिट जाने पर शरीर के अन्दर की दिव्य ज्योति अपनी पूर्ण महिमा सहित प्रकाशमान हो जाती है। मन को भ्रम से मुक्त करना ही शुद्ध रेचक है। मैं आत्मा हूँ की अनुभूति ही सत्य पूरक है और इस पर विश्वास पर मन का स्थिरीकरण  सत्य कुम्भक है।
प्राणायाम को बलपूर्वक करने से अनेक रोग होने का खतरा रहता है। इसलिए इसे ध्यान से समझकर ही योग शिक्षक से जान ले और तब अभ्यास करें।
जिस प्रकार प्रत्येक जीवित प्राणी श्वास के साथ मानसिक स्तर पर बिना जप किए अनजाने ही सोहम (सः वह, अहम मैं वह अविनाशी पुरुष मैं ही हूँ) का जप करता है उसी प्रकार वह उच्छ्वास से हं सः(मैं वह हूँ) का जप करता है।  
जप की चार अवस्थाएं है-
1. वाचिक जप
2. उपांशु जप
3. मानसिक जप
4. अजपा जप
ऊँ  के पवित्र शब्द के साथ उच्चारण सहित जप करना ही वाचिक जप है।
जप करते समय होंठ हिले पर ध्वनि प्रकट नहीं हो अर्थात्‌ जप करने वाले के पास से काई अन्य ध्वनि सुनाई न दे तो इसे उपांशु जप कहते हैं।
मन ही मन ऊँ का जप करते हुए वाणी की परा, पश्यन्ति, मध्यमा रूप की अनुभूति ही मानसिक जप कहलाती है। जब वाणी वैखरी रूप में प्रकट होती है तब उसे वाचिक जप कहते हैं।
मन से पार जाकर चेतना के परम स्थान में जब पूर्ण जगत्‌ ब्रह्म से आच्छादित प्रतीत होने लगे तो उसे अजपा जप कहते हैं। 
एक प्रकार से प्राणायाम के अभ्यास द्वज्ञरा व्यक्ति के श्वास(पिण्ड प्राण) को जागतिक श्वास(ब्रह्माण्ड प्राण) से समस्वरता में लाने का प्रयास किया जाता है। यह व्यष्टि को समष्टि में एवं समष्टि को व्यष्टि में आत्मसात्‌ करने की साधना है।
चित्त(मन, बुद्धि एवं अहंकार) शक्ति- शाली अश्वों द्वारा खींचे जाने वाले रथ के समान है। इन अश्वों में एक प्राण(श्वास) और दूसरी वासना है। इन दोनों में जो शक्तिशाली है, उस दिशा में ही रथ(मन)चलता है। यदि श्वास प्रबल रहा तो इच्छाएं वशीभूत होती हैं, इन्द्रियों पर नियन्त्रण रहता है और चित्त स्थिर रहता है। यदि वासना प्रबल है तो श्वास अव्यवस्थित होता है, चित्त अस्थिर व दुःखी हो जाता है। 
इसीलिए योगी प्राण पर अधिकार करते हैं और चित्त को वश में करके उसकी हलचल को स्थिर कर देते हैं।
प्राणायाम करते समय मन को इधर- उधर भटकने से रोकने के लिए आंखें बंद की जाती हैं। जब प्राण और मन का संयोग हो जाता है तब अनिर्वचनीय आनन्द की प्राप्ति होती है।
योग का मुख्य लक्ष्य चित्त को वशीभूत एवं स्थिर करना है, योगी श्वास पर नियन्त्राण करने के लिए सर्वप्रथम प्राणायाम सीखता है। इससे वह इन्द्रियों को वश में करने के योग्य बनाता है, जिससे वह प्रत्याहार की अवस्था में पहुंच सके। तभी मन ध्यान क लिए तैयार होता है। 
    मन शुद्ध या अशुद्ध होता है। वासन रहित मन शुद्ध और वासना युक्त मन अशुद्ध होता है। मन को निश्चय(स्थिर) करने तथा आलस्य और विनों(व्याकुलताओं) से मुक्त करने से व्यक्ति अमनस्क अवस्था में आता है, जो समाधि की सर्वोत्तम अवस्था है। यह चेतनावस्था है। यह सब प्राणायाम के द्वारा सीखने के लिए प्राण को नियन्त्रण करना ही होगा।

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