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गुरुवार, मई 27, 2010

अभ्यास से कार्य बनता है! -सत्यज्ञ




     जब हम किसी कार्य को हाथ में लेते हैं तो अनेक विचार, तर्क, वितर्क आदि हमें घेरने लगते हैं। अनेक भय हमारे सम्मुख आ खड़े होते हैं। हमारे चिन्तन में भटकाव उत्पन्न करते हैं। सुख-दुःख की अनुभूतियों का जाल प्रतिदिन बनता-बिगड़ता रहता है। इस  अवस्था में स्वयं को लक्ष्य तक पहुंचाने का एक ही मार्ग है-दैनिक अभ्यास। 
     अभ्यास से भटकाव उत्पन्न करने वाली स्थितियों से पार पाया जा सकता है। यह जान लें कि भटकाव के मूल में राग होता है। अभ्यास के द्वारा राग उत्पन्न किया जा सकता है। राग के विगत हो जाने को वैराग्य कहते हैं। वैराग्य का सामन्य अर्थ यही है कि हमारे लक्ष्य के लिए जो अनुपयोगी हो, अनावश्यक हो वह हमारे मार्ग में बाधक न बने और हमारा ध्यान लक्ष्य पर केन्द्रित रह सके। यदि आपको कानपुर जाना है तो आपका ध्यान कानपुर के अतिरिक्त किसी अन्य स्थान पर न हो। लक्ष्य तक पहुंचने के लिए आवश्यक है-दृढ़ इच्छाशक्ति, इन्द्रिय-निग्रह, शान्त और सम अवस्था से युक्त मन। यह मिल सकता है अभ्यास से। कहा भी गया है कि करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान। 
    अभ्यास से नित नई ज्ञान ज्योति मिलती है जो विकास करती है तथा लक्ष्य तक पहुंचाने में पूर्ण सहायक होती है। अभ्यास से चित्त की चंचलता पर काबू पाया जा सकता है। मन को धीर गम्भीर बना सकते हैं। चिन्तन की गहनता बढ़ जाती है। यह सब निर्भर करता है अभ्यास की दृढ़ता, गति और एकाग्रता पर। अभ्यास का लक्ष्य जागरूकता उत्पन्न करना होता है जिससे व्यक्ति की निष्ठा कर्म से होती है और फल कार्य की पूर्णता ही है।


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