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शनिवार, मई 29, 2010

योग आपको परमात्मा से मिलाता है! -योगानन्द स्वामी



    यह जान लें कि योग का अन्तिम लक्ष्य आत्मा को परमात्मा में मिला देना है। परमात्मा को निराकार भी माना है और  साकार में भी। किसी ने उसे ब्रह्म कहा है तो किसी ने उसे देहधारी। हिन्दु धर्म में परमात्मा ब्रह्मा, विष्णु, महेश के रूप में भी माने जाते हैं। ब्रह्मा रचयिता है, विष्णु पालक है और महेश संहारक है। 
    षड् दर्शन में सांख्य और मीमांसा ईश्वर को नहीं मानते हैं। बौद्ध और जैन धर्म भी नहीं मानते हैं। लेकिन हिन्दु मन ईश्वर से जुड़ा हुआ है और किसी शक्ति को मानता है  जो सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है, दयालु है, न्यायी है, शुभ या अशुभ का निर्णय करता है और उसी के अनुसार पुरस्कार या दण्ड देता है। 
    ईसाई भी एक दयालु, न्यायी, सर्वशक्तिमान ईश्वर पर विश्वास करते हैं। 
    मुसलमान भी दयालु ईश्वर पर विश्वास करते हैं, हालांकि वे निराकार मानते हैं। 
    हिन्दुओं ने देहधारी के रूप में ईश्वर के अनेक रूप ग्रहण किए हैं-शिव(पार्वती), राम(सीता), कृष्ण(राधा) आदि।
यदि आप जगनियन्ता, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, दयालु तथा न्यायी ईश्वर पर विश्वास करते हैं और उसके भक्त हैं आप पूर्वाग्रह से मुक्त होकर युक्ति संगत रूप में इन प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास करें-
वह सब जीवों में अपने सम्बन्ध में पूर्ण ज्ञान नहीं दे सकता?
यदि नहीं देता तो क्यों?
क्या वह इसकी आवश्यकता नही समझता?
तो फिर भिन्न-भिन्न मतों, धर्मों को उसके सम्बन्ध में ज्ञान देने की क्या आवश्यकता है और क्यों?
ईश्वर अपने सम्बन्ध में दूजों को संशय में क्यों डालता है?
वह सब कुछ बना चुकने के बाद यदि कोई खराबियां रह गई थीं तो उनमें सुधार क्यों नहीं करता है? क्या वह इतना बुद्धिमान नहीं था जो उसने बनाते समय खराबियां रखीं? प्रारम्भ में ही सबकुछ अच्छा बनाता।
उसने कर्म सिद्धान्त बनाया तो सबको इतनी शक्ति देता जिससे वे बुरे कार्य करते ही नहीं। यदि पहले उससे गलती हो गई थी तो बाद में उसने आज तक सुधारा क्यों नहीं?
क्या वह हीनभावना से युक्त है जो उसे सदैव प्रशंसा सुनाना पसन्द है तभी तो जो उसकी प्रशंसा करता है उसे पुरस्कार और जो उपेक्षा करता है उसे दण्ड देता है। उसे प्रशंसा पसन्द है तो सबको जन्म देने से पूर्व ही ऐसा बनाता जिससे वे उसकी प्रशंसा ही करते बुराई करते ही नहीं। इससे क्या स्पष्ट होता है यह आप भी समझते हैं।
क्या वह इतना क्रूर है जो उसे दूजों को कष्ट में देखकर आनन्द आता है। आप सोचकर देखें कि आप अच्छे चित्रकार हैं तो आप जानबूझकर बुरा चित्र क्यों बनाएंगे? यदि बन भी गया है तो मिटाकर पुनः अच्छा ही चित्र बनाएंगे।
हिन्दु पुनर्जन्म को मानता है और यह जानता है कि कर्मानुसार उसे जन्म मिलता रहता है। मुसलमान और ईसाई मानते हैं कि ईश्वर ने आदमियों को बना दिया और उसे कर्म करने की स्वतन्त्रता दे दी। मृत्यु के बाद आत्मा प्रतीक्षा करती है जब ईश्वर निर्णय करेगा और इच्छानुसार जहां चाहे नरक या स्वर्ग या अनन्त जीवन में भेज देगा।
ईश्वर ने अपने पैगम्बरों, सन्देशवाहकों, अवतारों के द्वारा परस्पर विरोधी सिद्धान्त क्यों भेजे? यदि ईश्वर एक है और उसके नियम भी एक हैं तो संसार में एक ही धर्म क्यों नहीं है?
क्या ईश्वर संबंधी इतनी मान्यताएं व विचार आत्म-सम्मोहन तो नहीं है????
उक्त प्रकार के अनेक प्रश्न बन सकते हैं पर इनका उत्तर कोई नहीं दे पाता है? सामान्य जन तो कदापि नहीं दे सकता है। तर्क करते-करते अन्त में शून्य ही आ जाता है? जो उत्तर सूझते हैं वे तर्क संगत नहीं लगते हैं।
धर्मों एवं मतों में चर्चित ईश्वर तो सच में ईश्वर नहीं है। इतना अवश्य है कि वह सर्वशक्तिमान है जो सृष्टि को रचकर उसकी पालना करता है और सन्तुलन बनाए रखने के लिए संहार करता है। यह सब चराचर प्राणियों को उसने बनाकर बाकी सभी नियम उसने सन्तुलन बनाए रखने के लिए बनाए। 
    विश्वास सजीव हो उठता है यह आपने भी अनुभूत किया होगा। आस्था और विश्वास जितना प्रबल है उतना ही आपका ईश्वर प्रार्थना में मांगी गई मांग या मनोकांक्षा को पूरा करता है। आपका उसके प्रति अटूट विश्वास ही आपको उसे जोड़ता है और आपके कार्यों को पूर्ण करता है, हालांकि कार्य आपसे ही कराता है। 
    ध्यान में मन को एकाग्र करने के लिए एक विश्वास को उत्पन्न करना होता है जोकि किसी पर भी हो सकता है। नेत्र बन्द करके आप शून्य में उस शक्ति पर अपना ध्यान एकाग्र करते हैं और उसे ईश्वर का नाम देते हैं। उस पर विश्वास जमाते हैं और अपनी अटूट आस्था के बल पर एकाग्र होकर अपने किए गए कर्मों को सिद्ध कर लेते हैं। शरीर में एकाग्र व सबल मन होगा तो शरीर स्वस्थ और दीर्घायु होगा। यही सच्चा योग है। योग वास्तव में परमात्मा से मिलन का नाम है। जो समझ गया वह ही सिद्ध है और दूजों के दुःख को हरता है।

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