एक बार तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अपने शिष्यों से कहा-'वत्स जो व्यक्ति असंयम अपनाता है तो वह पतनोन्तमुख हो डूब जाता है। यह एक शाश्वत नियम है।'
'गुरुवर! ऐसा कैसे होता है?'
महावीर स्वामी मुस्कराए और बोले-'हे वत्स! मेरे साथ आओ। वे उन्हें नदी किनारे ले गए और वहां जाकर जलधारा में उन्होंने दो कमण्डल एक साथ छोड़े। एक जिसमें छेद था, धीरे-धीरे पानी भर जाने के कारण थोड़ी दूर जाकर डूब गया एवं दूसरा भली-भांति तैरता चला गया। जैसे कमण्डल के साथ हुआ वैसे ही मनुष्य भी जीवन धारा में बहकर अपनी नाव भी पार लगा सकता है और डूब भी सकता है। इसमें परिस्थितियों का कहीं कोई हस्तक्षेप नहीं है। मन ही है जो इन्द्रियों को गुलाम बना देता है और सारा जीवनक्रम ही अस्त-व्यस्त एवं अव्यवस्थित हो जाता है।'
कहने का तात्पर्य यह है कि पतन एक सहज गति क्रम है। उठना पराक्रम है। अचेतन की पाशविक प्रवृत्तियां बार-बार मानव को घसीट कर विषयी बनने की ओर प्रवृत्त करती हैं। यह मनुष्य पर निर्भर है कि वह इन पर किस प्रकार अंकुश लगा पाता है और प्राप्त सामर्थ्य का सदुपयोग कर पाता है। जीवन संयम संग जीने में ही उत्थान है। असंयमित जीवन पतनोन्मुख हो जाता है।
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