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सोमवार, जून 22, 2009

मणिमाल उमेश पुरी 'ज्ञानेश्वर'


चिन्तन के कुछ क्षण
मानव सामाजिक जीव है, उसे समाज से अलग रहना भाता नहीं है। वह अपने समाज के अन्य लोगों के कार्य-कलापों, विचारों व अन्य सांसारिक बातों को जानने तथा निज की अभिव्यक्ति में आनन्द का अनुभव करता है। काव्य के रूप में नीति के वचन जितना आकर्षण उत्पन्न करते हैं, उतना तत्त्व-ज्ञान के रूप में नहीं।
ज्ञान हमारी नैतिकता का दर्शन है और विज्ञान हमारी विलासिता का साधन।
जगत्‌ का कण-कण उपयोगी है, बात सिर्फ उपयोग में लाने की है। प्रकृति के विभिन्न रूपों में रस ही रस है। सृष्टि में अनन्त ध्वनियां हैं, इनमें से अल्प ही हैं जो शब्दों में ढलकर गायी जाती हैं। मौन जब मुखर होता है तो साहित्य की प्रेरणा बनकर सर्जन हार बन जाता है।
हमारे तृषित हृदय मृगतृष्णा में फंसकर तृप्त होने की चाह संजोकर भटक रहे हैं और जीवन के एक छोर(जन्म) से दूसरे छोर(मृत्यु) तक पहुंचते-पंहुचते जीवन खो देते हैं, पर तृप्त नहीं हो पाते। तृप्त हो भी नहीं सकते क्योंकि हमें विकारों ने अपने पाश में जकड़ रखा है। क्रोध, काम, लोभ, मोह और अहंकार रूपी समस्त विकार दुःखों के हेतु हैं।
आवश्यकता आविष्कार की जननी है, साथ ही दुःखों की उत्प्रेरक भी है। आवश्यकताओं में वृद्धि दुःखों की मांग बढ़ा देती है। कहते हैं जहां चाह है, वहां राह है किन्तु यह आवश्यक भी नहीं है, क्योंकि जब बुद्धि विकारमय होगी तो जहां चाह होगी वहां आह भी होगी।
क्रियाहीन जीवन जड़ है। कुछ पाने के लिए तप करना पड़ता है। तप से तात्पर्य जंगल में जाकर तपस्या करना नहीं है, यहां तप से तात्पर्य कर्मयोगी बनकर सतत्‌ कर्म करने से है। इसके लिए जीवन से युद्ध करना होगा। जो संघर्ष नहीं कर सकता, वो कुछ नहीं कर सकता।
अंधेरे से भागों नहीं। दीपक तले भी अंधेरा है, किन्तु दीपक फिर भी सबका जीवन प्रकाशित करता है। दुःख जीवन का अंधेरा है तो क्या हुआ? दुःख ताप से जीवन में सुख आ ही जाता है।
कोई संग नहीं जाता, सब अकेले आए थे, अकेले हैं और अकेले ही जाएंगे। साथ का तो मात्र भ्रम है। जो अकेला कुछ नहीं कर सकता वो साथ पाने पर भी कुछ नहीं कर पाता। कोई अकेला जब जीवन-पथ पर चल पड़ता है तो दुनिया भी साथ चलने लगती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारी प्रवृत्ति अनुकरण की है। हम सीखते हैं तो अनुकरण से। खोने-पाने का सार अनुकरण में है। मानव समाज में एक रूपता लाने के लिए अनुकरण को ही अपनाता है तभी तो फैशन चाहे किसी का भी हो, प्रचलित हो जाता है।
समय में गेयता है। परिवर्तन समय की गेयता का भ्रम है। गति में जीवन है जो उपलब्धि बन सकता है, यदि हम चाहें...।
संघर्षों में ही उत्कर्ष है। सोना आग में तपकर निखरता है। मनुज भी दुःख ताप से हर्ष की चमक पाकर निखरता है और सुख उसका अपना बन जाता है।
सुख-दुःख, सत्य-असत्य, रस-अरस, हंसना-रोना, यश-अपयश, रीझना-खीझना, शान्ति-क्रान्ति आदि जीवन-यात्रा में मनुज के संसर्ग में आकर उसे जीवन सत्य से परिचित कराते हैं। ये सब जीवन में न आएं तो जीवन ही क्या जिया? जीवन का आनन्द संघर्ष में है। प्रकृति तूफानों से लड़-लड़कर खिलती है। इसी प्रकार वृक्ष भी वायुमंडल से संघर्ष कर-करके फलते-फूलते हैं। इसी प्रकार मनुज भी जब संघर्ष करता है तो जीवन-सत्यों को पाता है।
दिवस का प्रकाश और रजनी का अंधेरा जो ध्वनियां दे गया, वे सब मणिमाल में गुंथ गयीं। जीवन का दर्शन समझ लेने पर सर्वोच्च शिखर पर पहुंचना सहज है।
जीवन दर्शन क्या है? अब इस पर कुछ चिन्तन करते हैं।
संसार एक रंगमंच है जिस पर जीवन से मृत्यु तक का नाटक खेला जाता है। प्रभु ने सृष्टि रचने के लिए सबसे पहले नारी को उत्पन्न किया होगा। नारी सौन्दर्य की प्रतिमा है जिसकी हंसी और लाज में एक मोहिनी है। बाद में उसकी सहायता के लिए नर को भेजा होगा। नारी की मोहिनी में नर उलझा तो प्रेम का सूत्रपात हुआ और फिर दोनों एक दूजे के पूरक बने। नारी ने मां बनकर काया को जन्म देकर ईश्वर के सृष्टि के विस्तार का सपना सच किया। प्रभु ने इस काया में चेतनता लाने के लिए आत्मा को प्रतिस्थापित किया, फलस्वरूप जीवन का प्रादुर्भाव हुआ। जीवन में कलात्मकता कलाकार लाता है और कवि सारे सुख-दुःख गाता है। आत्मा में चेतनता मन से है और मन में इच्छा का वास होता है। इच्छाओं में वृद्धि करने से दुःख और इसमें अल्पता लाने से सुख मिलता है। दुःखों के मूल में काम, क्रोध, अहंकार, लोभ व मोह रूपी पांच विकार हैं। इन्हीं के कारण दूजों से ईर्ष्या होती है और व्यक्ति कामी, पापी व अत्याचारी बन जाता है। तब युद्ध होता है और विनाश के रूप में अपनी विभीषिका लिख जाता है। रक्षा व एकता के लिए संघ बनता है जिसका नेतृत्व नेता के हाथ में होता है और जग को उपदेश के रूप में शान्ति का संदेश दिया जाता है। यह सब बुद्धि की अल्पता और मन पर छा जाने वाली प्रभुता के कारण है। तभी तो व्यक्ति विकारों के वशीभूत होकर अपना पतन करता है और अपयश का भागी बनता है। बौद्धिक विकास से ज्ञान का उद्भव होता है। विद्या से ज्ञान मिलता है, जबकि विद्या पुस्तक पढ़ने अर्थात्‌ सतत्‌ स्वाध्याय के फलस्वरूप मिलती है। तब समय की महत्ता ज्ञात होती है और फिर वर्तमान को सुधारने के लिए यत्न करना पड़ता है। यत्न के लिए कर्म का सहारा लेना पड़ता है। सतत्‌ कर्म करने से अभ्यास के रूप में योग्यता प्राप्त होती है। योग्यता के बल पर प्रत्येक कार्य में सफलता मिलने से खुशी होती है और फिर आनन्द की प्राप्ति होती है। गुणी बनने पर विकारों से मुक्ति व सच्चे-सुख के रूप में आत्मज्ञान मिलता है। तब जीवन दर्शन समझ आने लगता है। जो नियम और अनुशासन से रहता है उसे सिद्धान्त के अनुरूप जीवन जीना अच्छा लगता है। नियम से जीने वाला स्वास्थ्य को पाता है और उसे आलस्य कदापि नहीं घेरता है। उसकी बोली मीठी और आचरण शुद्ध होता है। उससे गलती नहीं होती है। जीवन जीने के लिए धन की आवश्यकता पड़ती है। धन कमाने के लिए विचार के बल पर उपयोग करना पड़ता है जिसमें सफलता आशा, आत्मबल, श्रम ओर पुरुषार्थ के बल पर मिलती है। अवसर कभी नहीं खोना चाहिए क्योंकि पता नहीं कौन सा क्षण स्वर्णिम बन जाए। जरूरत तभी पूरी होती है जब जीवन में प्राप्त अनुभव का सही प्रयोग किया जाए। समय में गेयता है इसलिए जीवन में परिवर्तन आता रहता है। इससे कायर डरते हैं। साहस जिसके पास है, वह सत्य के बल पर झूठ और भ्रष्टाचार का मुकाबला करता है। अन्याय उसे कदापि सहन नहीं होता है। वह कथनी-करनी में अन्तर न होने के कारण कानून का रक्षक बन जाता है, इसीलिए वह दूसरों का सच्चा साथी और मित्र बनता है। सेवा, दया, नम्रता और उदारता पर उसका अधिकार है जिसके बल पर वह अहिंसा का पुजारी बनकर उपकार करता है और दान देकर परोपकारी कहलाता है। उसकी मानवता का सभी मान करते हैं और उसे सच्चे मानव की उपाधि से विभूषित करते हैं। मानव कभी निर्धन नहीं होता है। उसके पास तो स्वावलम्बन के बल पर संतोष का धन एकत्र हो जाता है। तब उपहार में उसे आत्म-सम्मान मिलता है। उसके जीवन का अंधेरा छंट जाता है और सच्चे धर्म को स्वीकार कर मौन रहते हुए अपनी भक्ति के बल पर साधक बन जाता है। अन्ततः आजादी के लिए जीवन के इस नाटक का पटाक्षेप करते हुए पंचभूत की काया त्याग कर नींद के रूप मं मृत्यु को पाता है।
मणिमाल अर्थात्‌ मणियों की माला के रूप में मेरा अन्तर्जगत्‌ अभिव्यक्ति पा सका है। हमारे धर्मशास्त्रों में सर्व कार्य-सिद्धि के लिए १०८ मणियों की माला द्वारा जप करने का विधान है। मणिमाल के रूप में मैंने जीवन-अनुभवों से १०८ जीवन मणियां चुनकर एक स्थान पर पद्य रूप में सर्जित करी हैं। मैं विश्वास सहित कह सकता हूँ कि मेरी इस मणिमाल का कोई भी नित्य एक बार मनन करते हुए जप करेगा तो वह जीवन में सदैव सफलता को प्राप्त होगा।
अन्ततः अपने काव्य के विषय में कहते हुए मुझे संकोच हो रहा है जो केवल शिष्टाचार जनित न होकर अपनी अपात्रता के कारण है।
यदि मेरी यह काव्य-साधना जन-जन को जीवन में सफलता दिला सकी तो मेरा यह श्रम सार्थक होगा, अन्यथा तो मैं क्षमायाचक होऊंगा।
इस संकलन को पूर्ण करने में सहधर्मिणी डॉ. कंचन पुरी का हृदय से आभारी हूँ जिसने निरन्तर प्रेरणा और सहयोग देकर इस कार्य को शीघ्रता से पूर्ण कराया।
मेरी इच्छा है कि आप मणिमाल की मणियों का पढ़िए, गाइए और आत्मसात्‌ करके व्यवहार में लाइये, जीवन में सबकुछ आपका होगा। आपकी प्रतिक्रियाओं का स्वागत्‌ है।

आपका
उमेश पुरी 'ज्ञानेश्वर'

१.प्रभु
प्रभु फिर क्या करेगा भाई,
सुख में याद करे ना कोई,
प्रभुता को भज लो ना भाई,
हरि को भज के हरि को होई।
२.नारी
नारी संसार का सार है,
नर-मन में बसा प्यार है,
सुख-चैन देने को तत्पर है,
घर भर में लाती बहार है।
३.सौन्दर्य
ज्ञान है सत्य की अभिलाषा,
लाज सौन्दर्य की परिभाषा,
भाव-सुधा संग बहता रहे,
हर एक मन को मोहता रहे।
४.हंसी
सबके मन में हर्ष है लाती,
हर एक मन को खूब लुभाती,
पल-पल यौवन को मदमाती,
खुशियां बहुत है संग लाती।
५.लाज
लाज सौन्दर्य का गहना है,
मानव ने जब भी पहना है,
शालीन सदा कहलाया है,
यह तो उसका सरमाया है।
६.नर
जिसने अपने बल-वैभव से,
जीवन-पथ को संवारा है,
पुरुष वही बना है नरोत्तम,
जिससे सृष्टा भी हारा है।
७.प्रेम
प्रेम-प्रेम रटते जाते हैं,
दूजों को ठगते जाते हैं,
निःस्वार्थ प्रेम जो करते हैं,
जीवन में खुशियां भरते हैं।
८.माँ
माँ पुत्र से करती अनुराग,
उसी के लिये करती त्याग,
ममता में हो जाती कुर्बान,
बढ़ा देती जीवन की शान।
९.काया
यह पंचभूत की है माया,
सब इसको कहते हैं काया,
होती इसकी महिमा अपार,
जीवन करता इससे प्यार।
१०.सपना
जीवन जी लेने को अपना,
हर कोई बुन लेता सपना,
जो देखे ना कोई सपना,
जी ना पाये जीवन अपना।
११.आत्मा
जब-जब काया को रथ जानो,
तब-तब मन को लगाम जानो,
बुद्धि को सारथी बना लोगे,
आत्मा को योद्धा पाओगे।
१२.जीवन
बिना संघर्ष जीवन न होता,
निष्क्रिय होकर सबकुछ खोता,
जीवन का यही सार जानो,
जीते रहो और जीने दो।
१३.कलाकार
भावना में रूप भर लाता,
सुंदरता सबको दिखलाता,
जीवन को चित्रमय कर पाता,
सत्यं-शिवं-सुन्दरं बनाता।
१४.कवि
जो है सोते भाव जगाता,
मनमोहक शब्दों से लुभाता,
हर सपना मुस्काता जाता,
सबके दिलों में छा जाता।
१५.मन
सोचते मन में जैसा रोज,
बनती हमारी वैसी सोच,
होते हम जब मन से एकाग्र,
पा जाते एक सच्चा मार्ग।
१६.इच्छा
इच्छाएं बढ़ लाएं तनाव,
मिलता नहीं फिर कोई भाव,
जब भी होंगी इच्छाएं कम,
तब बढ़ जाये जीवन-कदम।
१७.सुख
मृग बनके क्यों तू भटके,
कस्तुरी तो अन्तः में महके,
यह आत्म रश्मि से जान लो,
सुख जीवन में आए मान लो।
१८.काम
कामाग्नि मन में जब जागी,
अपयश के बन गए हैं भागी,
संयम जब तक मन में जागे,
काम भाव दूर-दूर भागे।
१९.क्रोध
क्रोध पागलपन बन जाये,
दुर्घटना कोई घट जाये,
धीरज-धन है जिसका गहना,
क्रोध उसने कभी न पहना।
२०.अहंकार
जब मन हंकारी हो जाता,
मनुज प्रपंची ही कहलाता,
खुदी को जो है भूल जाता,
खुद खुशनसीब है बन जाता।
२१.लोभ
कलयुग में परताप तुम्हारा,
है प्रसिद्ध लोभ उजियारा,
कच्चा लोभी कभी न बनना,
लाभ-पाश में तू न बंधना।
२२.मोह
देह-नेह आकुल चित रोको,
तभी छोड़ेगा मोह तोको,
मोह न दे जब मन में धरना,
सब सुख रहे तुम्हारी सरना।
२३. ईर्ष्या
ईर्ष्या दुःखों की है जननी,
संग इसके नाव ना चलनी,
जब तुम दोगे इसको त्याग,
तभी जायेगा यह तो भाग।
२४.कामी
उलूक रात में सदा देखे,
काक कभी न रात में देखे,
कामी है अंधा, कुछ न बूझे,
उसे न दिन न रात में सूझे,
२५.पापी
अज्ञान बनाए सबको पापी,
लोभ बन जाए उसका साथी,
घृणा पाप से होए जब सदा,
पुण्य करेगा फिर साथ अदा।
२६.अत्याचारी
खुद पे भरोसा जिसका खोता,
और सदा के लिए है सोता,
बन जाता फिर अत्याचारी,
विनाश की करता तैयारी।
२७.युद्ध
क्रोध जब सारी सूझ छले,
युद्ध संग सारा सुख जले,
आत्म-युद्ध जो भी है करे,
जंग बिना सब दुःख है हरे।
२८.विनाश
बलवान बनने को कर रहा,
मनुज विनाश का सर्जन महा,
जबहिं आता है विनाश काल,
बुद्धिजन का होए बुरा हाल।
२९.संघ
हिलमिल के रहना सच्चा,
दूजों के दुःख हरना अच्छा,
बिगड़ी बातें बनाये एकता,
रहे न कोई फिर अनेकता।
३०.नेता
तोते जैसी आंख बनाये,
गिरगिट जैसे रंग दिखाये,
नित-नित नये स्वांग रचाये,
वादे याद नहीं रख पाये।
३१.उपदेश
उपदेश तो हर कोई देता,
पर विरला ही कोई लेता,
पर उपदेश कुशल बहुतेरे,
उपदेश नहीं जीवन फेरे।
३२.बुद्धि
बुद्धि होती सदा सुखदाई,
सारे काम बना ले भाई,
बुद्धि ही करे सदा भलाई,
औ खाना फिर सदा मलाई।
३३.प्रभुता
जब-जब प्रभुता को भजते हम,
तब-तब खुद को डस लेते हम,
प्रभु को भजकर बन जा हमदम,
संग न रहता फिर कोई गम।
३४.पतन
आलस मारता जब भी डंक,
बना देता सबको वो रंक,
जब भी होगी भयंकर भूल,
पतन का चुभता तुझको शूल।
३५.अपयश
दुष्कर्म करे जिसने भी अदा,
उसने पाया अपयश सदा,
जिसने करे सुकर्म हैं अदा,
उसके भाग में सुख है बदा,
३६.ज्ञान
ज्ञान संग रहती सदा बुद्धि,
संशय दूर, हो जाती शुद्धि,
इसकी यारी सबको प्यारी,
फैल जाती रोशनी न्यारी।
३७.विद्या
विद्या से श्रेष्ठ न कोई दान,
बिन इसके रहती कहां शान,
मन को कर देती है चैतन्य,
धन-यश पाकर होते हैं धन्य।
३८.पुस्तक
पुस्तकें हैं जीवन का सार,
जीवन में लाती हैं बहार,
देतीं रहती ज्ञान का दान,
बढ़ातीं सदैव सबका मान।
३९.स्वाध्याय
एक जीवन पढ़ना सिखलाता,
दूजा जीवन को लिख जाता,
स्वाध्याय देता है चिन्तन,
मन कर लेता फिर सत्य मनन।
४०.समय
समय से होता जब भी काम,
पाए सबने मनचाहे दाम,
समय का मूल्य है तू जान,
फिर पाएगा तू पूरी शान।
४१.वर्तमान
कायर अतीत मे है खोता,
तू क्यों व्यर्थ में है रोता,
कल वर्तमान में है सोता,
भावी सपने है संजोता।
४२.यत्न
शान यत्न में ईनाम में नहीं,
यत्न का कौशल यत्न में सही,
सफलता यत्नों से मिल पाती,
झोली रत्नों से भर जाती।
४३.कर्म
फल की चिंता जिसे न होगी,
वही बन पाये कर्मयोगी,
कर्मपथ पर जो भी चलेगा,
जीवन-सागर पार करेगा।
४४.अभ्यास
ज्ञान से दूर होता है तम,
अभ्यास का कैसा महातम,
सब कुछ तो साध्य बन जाये,
मूढ़मति सुजान बन पाये।
४५. योग्यता
योग्यता करे ना अभिमान,
बढ़ाये सदा वह सत्य शान,
शूल सभी पथ के है हरती,
जीवन में है खुशियां भरती।
४६.सफलता
जीवन से मुख ना मोड़ना,
सुअवसर कभी ना छोड़ना,
जब हो कार्य संग तत्परता,
तब मिलेगी तुमको सफलता।
४७.खुशी
खुशी को जितना लुटाओगे,
उतना उसे पास पाओगे,
खुश रहने में खुशी है सदा,
तुलना करो तो दुःख है बदा।
४८.आनन्द
क्रियाशील जो भी हो जाता,
अनुशीलन वो ही कर पाता,
हरपल जीकर आनंद आता,
जीवन बगिया को महकाता।
४९.गुणी
फूल सदा सबका मन हरता,
निज सुगंध से सबको भरता,
गुणी सदा आभ छिटकाता,
निज गुणता को खूब लुटाता।
५०.आत्म-ज्ञान
अन्तः में जब भी झांकोगे,
निज को तब पहचान पाओगे,
आत्म-ज्ञान फिर पा सकोगे,
ईश संग खुद को पाओगे।
५१.दर्शन
निज आंखो से जीवन देखा,
तब पाया दर्शन का लेखा,
अनुभत ज्ञान ही सत्य माना,
जीवन से खुद को है जाना।
५२.नियम
नियमों से चलता जग-काज,
बिना इसके बजता कब साज,
नियमबद्ध जो हुआ है आज,
उसी ने पाया है फिर ताज।
५३.अनुशासन
नियमों का जो करे अनुपालन,
उसी ने किया है जग-पालन,
अनुशासन का करे जो संग,
सफल हो कर देता वो दंग।
५४.सिद्धान्त
सिद्धान्त रहित जीवन व्यर्थ,
जिसका न होता कोई अर्थ,
बनाया जिसने भी सिद्धान्त,
बन गया अपने आप प्रशांत।
५५.स्वास्थ्य
अति भोगी बन जाता रोगी,
कैसे बने फिर वो योगी?
जो करता हर दिन व्यायाम,
वो पा जाता स्वस्थ तन-मन।
५६.आलस्य
आलस संग गरीबी सोती,
सुख सारा जीवन का खोती,
रहे ना जब कोई आलसी,
तब पढ़ जाते सभी फारसी।
५७.बोली
बोलो सबसे मीठी बोलो,
छिन में सब कड़ुवाहट धोलो,
बिगड़ी बात खूब बना लो,
आपसी भेदभाव मिटा लो।
५८.आचरण
तेरे आचरण की शुद्धता,
तेरी हर इच्छा की पूर्णता,
कर तू ऐसा आचरण अदा,
लगे जो सबको प्रिय सदा।
५९.गलती
गलती करो तो मान जाओ,
सबक सीखकर बात बनाओ,
क्षमा मांग मतभेद मिटाओ,
जीवन में प्रभेद को लाओ।
६०.धन
जो भी परिश्रम किया करेगा,
संग बुद्धि वो जिया करेगा,
आलस, भय, क्रोध ना होगा,
धन चाकरी करता रहेगा।
६१.विचार
न होगा विचार बिना चिंतन,
कभी ना करोगे निज मंथन,
कह ना पाओगे कोई कथन,
करो भी कुछ पाने का यतन।
६२.उद्योग
उद्योग है सफलता का द्वार,
ले आये जीवन में बहार,
जो भी करता इससे प्यार,
लक्ष्मी फिर आए उसके द्वार।
६३.आशा
आशा लाए करने की चाह,
श्रम करे पर निकले ना आह,
धन सदा रहता उसके पास,
जागे फिर नित नूतन आस।
(क्रमशः)

3 टिप्‍पणियां:

  1. मणिमाल की मणियां प्रेरक हैं और व्यवहारिक भी हैं। सभी को पढ़नी चाहिए।-चैतन्य

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  2. मणिमाल की मणियां प्रेरक हैं और व्यवहारिक भी हैं। सभी को पढ़नी चाहिए।-चैतन्य

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  3. मणिमाल की मणियां प्रेरक हैं और व्यवहारिक भी हैं। सभी को पढ़नी चाहिए।-चैतन्य

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(गूढ़ विद्याओं का गूढ़ार्थ बताने वाला हिन्दी मासिक)
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