संसार में अधिकांश लोग निज स्वार्थ की बात करते हैं। यह सब कलयुग का प्रभाव है। अपनी-अपनी बात कहना दूसरे की न सुनना एक सामान्य सी बात बनती जा रही है। अच्छे से अच्छा भी स्वार्थी हो गया है। दूजे के लिए कितने दुःख झेले हैं, यह लोग भूल जाते हैं। व्यक्ति पूर्णतः स्वार्थी हो गया है। जब व्यक्ति कोई सम्बन्ध बनाता है तो बड़ी-बड़ी बातें करता है। जब सम्बन्ध पक्का हो जाता है तो थोड़ा अन्तर आ जाता है। जब सम्बन्ध विवाह में परिवर्तित हो जाता है तो कुछ और बात होती है।
एक लड़के का विवाह हुआ। उसके घर में तंगी थी। घर वाले बोले-÷तेरे ससुराल वाले अधिक धनी हैं, तू उनसे ले ले या पत्नी को कह दे।'
लड़का बोला-'मैंने आपको विवाह के लिए नहीं कहा था। यदि कुछ लेना था तो विवाह से पूर्व ले लेते।'
लड़के के पिता बोले-÷हमको उन्होंने कहा था। जब भी धन की आवश्यकता होगी हम देंगे।'
लड़का बोला-'आप स्वयं ही मांग लो, मैं नहीं मांगूंगा।'
तंगी का समय था कुछ लिख-पढ़ी हुई मगर कुछ हुआ नहीं। अब उनकी लड़की का विवाह हो चुका था। विवाह से पूर्व उन्होंने कहा होगा, लोग कहते हैं पर करते नहीं क्योंकि उनकी कथनी और करनी में अन्तर जो होता है। कई लोग कहते हैं हमें कुछ नहीं चाहिए। बाद में वे भी चाहते हैं हमें सब कुछ मिले। आज अधिकांश लोगों में परस्पर दूरी बढ़ती जा रही है।
यह कहना तो बहुत सरल है कि मार्ग सहज है मगर चलने के बाद पता लगता है कि उस (मार्ग) पर क्या-क्या कठिनाईयां आती हैं?
व्यक्ति मिलने पर अच्छा लगता है। अच्छा लगने से क्या होता है, उससे व्यवहार रखो तो ज्ञात होता है कि यह तो खोखला है और किसी भी काम का नहीं है। अनेक लोग की तो यह प्रवृत्ति होती है कि गलत मार्ग दिखा देते हैं। अब आप कितने परेशान होंगे उन्हें इससे कोई मतलब नहीं है। उनकी आदत तो आपको गलत मार्ग दिखाने की थी। आजकल एक से अधिक व्यक्ति कहीं भी होते हैं तो उनमें परस्पर क्लेश होता ही है। इससे मुक्त तो व्यक्ति हो ही नहीं सकता है। यह तभी हो सकता है जब सम्बन्ध से पूर्व उसके साथ व्यवहार रखो। व्यवहार से ही अच्छे-बुरे या खरे-खोटे की पहचान होती है।
यह सत्य है कलयुग चल रहा है। भागदौड़ से परिपूर्ण जीवन में सभी के पास समयाभाव है। वैसे भी शोपीस या दिखावे का जमाना है। सभी दोहरा व्यवहार रखते हैं। दिखाने के दांत कुछ और खाने के दांत कुछ होते हैं। संसार में विचरित व्यक्ति अन्दर से कुछ ओर और बाहर से कुछ और हैं। कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। कलयुगी संसार का विचित्र जीव व्यक्ति पहले प्यार करता है, सब्ज बाग दिखाता है और स्वार्थ सिद्ध हो जाने के बाद पहचानता भी नहीं है। पहले लोग चापलूसी करते हैं और जब कुछ बन जाते हैं तो फिर पहचानते ही नहीं हैं और भूले से यदि पहचान लिया तो अधिक भाव नहीं देते हैं जिससे आप स्वयं किनारा कर जाओ। शकुंतला की कथा सभी जानते हैं। उन्होंने शकुन्तला से विवाह कर लिया। जब राजा वापस महल में गए तो यह भूल गए की मेरा शकुन्तला से विवाह भी हुआ था।
संसार के रंग निराले हैं यहां तो लोग पल-पल में रंग बदलते हैं। किसी ने किसी को कहा-'अरे! तेरे घर में आग लग गई है।'
यह सुनकर वह तुरन्त भागने लगता है। थोड़ा भागने पर कोई परिचित मिल जाता है और उसे पता चल जाता है कि आग उसके घर में नहीं उसके पिछले घर में लगी है।
यह सुनकर वह दौड़ना भी बन्द कर देता है और फिर धीरे चलने लगता है। अब उसे कोई जल्दी नहीं है क्योंकि आग उसके नहीं किसी ओर के लगी है।
संसार स्वार्थ का है, स्वार्थ हो तो गधे को भी बाप बना लेता है। जब स्वार्थ नहीं हो तो बाप को बाप और भाई को भाई भी नहीं कहेंगे। दूजों से अधिक सम्बन्ध नहीं रखना चाहिए। सम्बन्ध बनाना बहुत सरल होता है पर निभाना कठिन। सम्बन्ध बनाएं तो निभाएं वरना बनाएं ही नहीं।
जीवन सरल ढंग से जीना चाहिए। बनावट से दूर भागना चाहिए। बनावट के कारण लोग कर्जदार बन जाते हैं क्योंकि बनावट को बनाए रखने के लिए आवश्यक धन का इन्तजाम कर्ज लेकर करते हैं। इसकी टोपी उसके सर और उसकी टोपी अगले के सर करके जीवन नहीं जिया जा सकता है। यह जान लें सरल और किफायती जीवन सुखाधार है। इच्छा बढ़ानी बहुत सरल हैं पर उनको पूरा करना अत्यन्त कठिन। इच्छाएं जितनी चाहे बढ़ा लो बढ़ जाएंगी पर उनकी पूर्ति करना सरल नहीं है।
जीवन स्तर उठा लेना अत्यन्त सरल है क्योंकि सभी बैंक ऋण उपलब्ध करा देते हैं और किस्त बांध देते हैं और जब किश्त चुका नहीं पाते हैं तो सभी कुछ उठाकर वे ले जाते हैं। तब अपमान का घूंट पीकर रहना पड़ता है। स्तर उठाकर उसे बनाए रखना अत्यन्त कठिन है। दिखावे में पड़कर लालसा के चक्कर में पांव उतने नहीं पसारने चाहिएं जो चादर से बाहर निकल जाएं। पावं बाहर निकल जाएं तो जग हंसाई होती है। बहुत लोग शर्म के कारण आत्महत्या करके मृत्यु को चुन लेते हैं और बहुत लोग जीवट वाले होते हैं जो स्थान बदलते रहते हैं और पुराने परिचितों से मिलते तक नहीं हैं।
जीवन सरल और मोहहीन होकर जीएं। यह मान लें कि ना काहू से दोस्ती और न काहु से बैर। सम दृष्टि से अपनी चादर के अनुरूप सरल ढंग से जीवन जीने में ही भलाई है। सम्बन्ध बनाएं उतने जो निभाए जा सकें। मिठास के चक्कर में अधिक मीठा डालना अहितकर हो जाता है। स्तर उठाएं उतना जितनी हैसियत हो या आय हो। यह कदापि न करें कि आय कम है और व्यय अधिक कर लें। जो आवश्यक है उसे करें लेकिन उस स्तर तक करें जो आप सरलता से कर सकते हैं। अधिक करने के चक्कर में या दिखावे में यह मत भूल जाएं कि कहीं खुद ही शोपीस न बन जाएं और जग हंसाई हो।
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