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गुरुवार, जुलाई 08, 2010

योग परमात्मा से एकीकृत होना है!-राजीव शंकर माथुर



प्रत्येक की इच्छा दीर्घायु तक जीवित रहने की होती है जोकि मनुष्य में सर्वोपरि है। जीवन संघर्ष प्राणि मात्र में पाया जाता है। वैज्ञानिक एवं दार्शनिक डार्विन का सिद्धान्त  Fittest for servival  अर्थात्‌ जो प्राणी पूर्ण रूप से योग्य होते हैं वही जीवित रहते हैं। शेर, चीते, बिल्ली कुत्ते और अन्य जाति के पशुओं, पक्षियों यहां तक कि कीट पतंगों को भी नख, पंजे, दांत और सींग आदि रक्षा और आक्रमण के साधन प्राप्त हैं जिनके द्वारा वे आत्मतत्त्व और जीवन रक्षा कर सकते हैं। 
एक रोगी जो किसी भयानक यंत्रणा से पीड़ित होकर आत्महत्या कर लेता है, वह अपने आपको सर्वथा नष्ट करने की बुद्धि से नहीं अपितु इस भौतिक जीवन की नारकीय यंत्रणाओं तथा क्लेशों से मुक्त होने को ऐसा करता है। 
योगियों का कहना है कि यह अमर जीवन स्थूल शरीर की क्रियाओं तथा चित्त की वृत्तियों के निरोध से ही प्राप्त होता है। 
योगियों का कहना है कि मन के द्वारा ही वे सत्य का साक्षात्कार कर सकते हैं। इसीलिए वे अन्तः व बाह्य प्रकृति पर जप करके सत्य के साक्षात्कार की चेष्टा कर सकते हैं। स्वामी असंगानन्द जी के अनुसार तो धर्म वास्तव में अपरोक्षानुभव का ही फल है और नित्य व अनित्य सभी पदार्थों में है, किन्तु उसका स्वरूप कतिपय आदेशात्मक सिद्धान्तों एवं मतवादों का मानना ही नहीं है।
तर्क और अनुभव के सम्बन्ध में बहुत भ्रम फैला हुआ है और देखने में विरोध भी मालूम होता है। 
दार्शनिक योगी के समीप आकर प्रश्न करता है-÷मैं किसी वस्तु में किसी खास प्रकार से विश्वास या उसका अनुभव कर सकता हूँ? परन्तु मेरा अनुभव सत्य ही होगा इसमें क्या प्रभाव है?' 
इसका उत्तर योगी इस प्रकार देता है-सहज ज्ञान, तर्क, अन्तर्दृष्टि या अतीन्द्रिय ज्ञान के चित्त की भिन्न-भिन्न अनुपूर्विक अवस्थति है। इनमें से एक-एक उत्तरोत्तर का साधन है। सहज ज्ञान आगे बढ़कर तर्क या विवेचनात्मक बुद्धि के रूप में परिणत हो जाता है।
योग के अनेक दार्शनिक एवं योगी ने अनेक लक्षण दिए हैं। 
सुश्री ऐवेलिन अंडरहिल नामक महिला ने अपने मिस्टिज्म(योग) नामक ग्रन्थ में योग की व्याख्या दी है-÷योग सत्यरूप परमात्मा के साथ एकत्व संपादन करने की विद्या है।' योगी इस सम्बन्ध में कहते हैं कि जिसने न्यूनाधिक रूप से परमात्मा के साथ एकीभाव प्राप्त कर लिया है अथवा जिसका लक्ष्य है परमात्मा के साथ एकात्मभाव को प्राप्त करना और जो इस प्रकार के एकात्मभाव में विश्वास करता है।
योग के पितामह आचार्य पातांजलि ने अपने योग दर्शन में कहा है-÷योगश्चित्त वृत्तिः निरोधः अर्थात्‌ चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम ही योग है।' 
महायोगी भगवान शिव का कहना है कि सूर्य और चन्द्र का मिलन  ही योग है। उन्होंने अपने ग्रन्थ शिवस्वरोदय में जोकि नासा विज्ञान से सम्बन्धित है में एक स्थान पर कहा है कि इड़ा-पिंगला का संयोग ही योग है।
योग का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण अंग है प्राणायाम। प्राणायाम का अर्थ है प्राणों को वश में करना। प्राण वह शक्ति है जिसने आकाश को अधिष्ठित कर विश्व की रचना की है। ठीक जिस प्रकार आकाश सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापक है उसी प्रकार प्राण भी विश्व की सर्व समर्थ एवं सर्वव्यापिनी अभित्यंजिका शक्ति है। जगत्‌ में गुरुत्व शक्ति, आर्कषण शक्ति, विद्युत शक्ति, विचार शक्ति और नाड़ी प्रवाह शक्तियां विद्यमान हैं। ये सभी प्राण नामक एक ही शक्ति की भिन्न-भिन्न अभिव्यक्तियां हैं। अतः प्राण विश्व की मानसिक एवं शारीरिक सभी प्रकार की शक्तियों की समष्टि है। इसी प्राण के ज्ञान व निग्रह को प्राणायाम कहते हैं।
योग परमात्मा से एकीकृत होना है!
योग का शाब्दिक अर्थ है जुड़ना। यह जुड़ाव किससे हो यह चिन्तन का विषय है। आप यह भी कह सकते हैं कि हमारा जुड़ाव शरीर से हो क्योंकि शरीर ही जीवन जीने का साधन है। आप सोचकर देखें कि शरीर तो जड़ है और इसमें चेतनता जो व्याप्त है वो आत्मा के कारण है। आत्मा ही इसमें चेतन तत्व है। शरीर में यह न हो तो उसमें चेतनता हो ही नहीं। शरीर की जड़ता से जुड़ना योग नहीं है। आत्मा शरीर को चेतन करके जीवन जीने योग्य बनाती है। आत्मा का निवास परमात्मा के पास है। परमपिता परमात्मा से जुड़ाव अर्थात्‌ उससे एकीकृत होना ही मूल रूप से योग है। आत्मा का परमात्मा से मिलन ही योग का लक्ष्य है।
योग के अन्य साधनों से शरीर स्वास्थ्य को प्राप्त होता है। शरीर स्वस्थ हो तो प्रथम सुख नीरोगी काया प्राप्त होती है। यह शरीर साधन है आत्मा के द्वारा परमात्मा से मिलन करने का। ध्यान-साधना योग आदि सभी मार्ग मनुष्य को अन्ततः परमात्मा से मिलन ही कराते हैं।
योग में नियम और निरन्तरता आवश्यक है और यह तभी प्राप्त होती है जब मनुष्य पूर्ण विश्वास के साथ, नियत समय तक, नियमित रूप से इसका अभ्यास करता है।
योग से तन और मन की शुद्धि हो जाती है। बाह्य और अन्तः शुद्धि हो जाने के बाद ध्यान और साधना द्वारा परमात्मा से मिलन की ओर तत्पर होना पड़ता है।
योग साधना किसी योग्य शिक्षक या गुरु से सीखनी चाहिए।
बाद में नियत समय पर निरन्तर अभ्यास द्वारा उसमें प्रवीणता लानी चाहिए। योग जीवन को जीने की कला है, इसे सभी को सीखना चाहिए।
योग आपको जीवन को स्वस्थ एवं व्यवस्थित जीने की कला सिखाता है। योग आज के भागदौड़ से परिपूर्ण जीवन में तनाव और रोगों से लड़ने का अनुपम साधन है। इसको छोटे-बड़े सभी को अपनाना चाहिए। योग तन-मन और परमात्मा से एकीकृत होने का साधन है जो आपको एक सम्यक जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है।
योग को अपनाना ही जीवन को सम्यक ढंग से जीना है। आप इसे अपनाएं और अपने मिलने वालों को भी प्रेरित करें जिससे हमारा राष्ट्र स्वस्थ हो और सभी परमतत्व से एकीकृत होने के लिए तत्पर हों।

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