चिन्ता चिता से बढ़कर है। चिंता चिता से बढ़कर इसलिए भी है क्योंकि चिन्तित व्यक्ति अपना मानसिक सन्तुलन खो बैठता है। ऐसे में वह सही निर्णय नहीं ले पाता है। चिन्ताएं व्यक्ति के जीवन में बाधाएं लाने के साथ-साथ उसे थकाकर समय से पहले ही बूढ़ा बना देती हैं। व्यक्ति कार्य करने से इतना नहीं थकता है जितना मानसिक स्थिति उसको थकाने के साथ-साथ दु:ख देती है। काम की अधिकता व्यक्ति को कदापि नहीं मारती है अपितु चिन्ता उसे नष्ट करके ही दम लेती है। चिंता व्यक्ति को धीरे-धीरे मारती है जबकि तलवार या बन्दूक की गोली तुरन्त मार देती है। चिन्ता व्यक्ति को दीमक की तरह अन्दर ही अन्दर खा जाती है और पता तब चलता है जब सब कुछ खतम हो जाता है। चिता तो मृतक के शव को जलाती है पर चिन्ता जीवित व्यक्ति को ही जला देती है। हम चिन्ता मुक्त तभी हो सकते हैं जब हमें इस बात का बोध हो जाए कि सुख-दु:ख मन की स्थितियां हैं। आप कुछ न पाकर भी सुख का अनुभव कर सकते हैं और कुछ पाकर भी दु:ख का अनुभव कर सकते हैं। मान लो कोई आपको दस लाख रुपए का लाभ कराने का आश्वासन देता है तो आप कल्पना के रथ पर सवार होकर सुख की अनुभूति कर बैठते हैं और बाद में वही व्यक्ति लाभ न करा पाने के लिए क्षमा मांग ले तो आपने कल्पना में जो सुख की अनुभूति की थी वह सबकुछ धूमिल हो जाता है और आप पुन: दु:ख के भंवर में घूमने लगते हैं। यहां आपको न कुछ मिला और न कुछ आपसे लिया गया, पर आपने सुख-दु:ख दोनों को अनुभूत कर लिया। जिस स्थिति में हमें सुख मिलता है उसी स्थिति में दु:ख का भी अनुभव कर लिया। बस की भीड़ में खड़े-खड़े थकने पर जब सीट मिल जाती है तो आप सुख का अनुभव करते हैं। समस्या है तो उसका समाधान खोजिए।
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