कान्ति देवगुण है। जब मन में श्रद्धा का भाव फूटने लगता है, तो कान्ति भी फूट पड़ती है। व्यक्ति में दिव्य गुण प्रकट हो उठते हैं, उसमें ईश्वरीय भाव जाग्रत हो उठता है। श्रद्धा आत्मा से उठकर बाहर आती है। आत्मा व्यक्ति का कारण शरीर है। इसमें जब श्रद्धा के स्पन्दन होने लगते हैं, तब सूक्ष्म शरीर के प्राणों का स्वरूप बदलने लगता है। प्रबल सकारात्मक भाव का उदय होने लगता है। तमोगुण सतोगुण में बदलने लगता है। सत्त्वगुण के कारण व्यक्ति का आभामण्डल प्रकाशमय होने लगता है। ऐसे व्यक्ति के समीप बैठने से मन शान्त हो उठता है। माया का ज्ञान स्वरूप फैलने लगता है। यह सत्य है कि श्रद्धा के बिना कान्ति सम्भव नहीं है।
शिशु के अन्न ग्रहण से ही कामना जाग्रत हो उठती है और त्रिागुण के अधीन हो जाती है। रज व तम भाव की प्रधानता के कारण जीव दुःखों से घिर जाता है। सत्त्वगुण की प्रधानता होने पर शुद्ध भाव उत्पन्न होता है। स्पष्ट है तभी तो कहा गया है कि जैसा खावे अन्न, वैसा होवे मन। अन्न व शरीर स्थूल है। प्राणों की क्रिया से स्थूल से सूक्ष्म रूप ग्रहण होता है। अन्न से ही उत्पन्न रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य रूपी सप्त धातु स्थूल रूप हैं और फिर ओज बनता है। वीर्य से ऊर्जा भाव जोकि ओज, पुष्ट मन व बुद्धि का पोषक तत्त्व है। तभी तो ब्रह्मचर्य की महत्ता है। वीर्य ओज का बीज है। आज शान्ति से भोजन करने का समय नहीं है तो कान्ति की उम्मीद कहां की जा सकती है।
कान्ति निकलती है श्रद्धा, समर्पण, त्याग, मिठास, आधद, भक्ति, निःस्वार्थ भाव, अपेक्षाओं से रहित, अहंकार मर्दन से। यह है तो सबके प्रति सम्मान की जीवनशैली से कान्ति पोषित होती है। दैविक गुण तप बिना नहीं मिलता है। ईश्वर को भी प्रसन्न करना पड़ता है जो उक्त शैली से आ जाता है। तभी वह अपनी प्रिय वस्तु आपको दे देता है।
bade dino baad kuch dikhai diya
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