यह जान लें कि कुण्डली का छठा भाव रोग का होता है तथा छठे भाव का कारक ग्रह मंगल होता है। द्वितीय (मारकेश), तृतीय भाव, सप्तम भाव एवं अष्टम भाव(मृत्यु) का है। हृदय स्थान की राशि कर्क है और उसका स्वामी ग्रह चन्द्रमा जलीय है। हृदय का प्रतिनिधित्व सूर्य के पास है जिसका सीधा सम्बन्ध आत्मा से है। यह अग्नि तत्त्च है। जब अग्नि तत्त्व का संबंध जल से होता है तभी विकार उत्पन्न होता है। अग्नि जल का शोषक है। जल ही अग्नि का मारक है।
मंगल जब चन्द्र राशि में चतुर्थ भाव में नीच राशि में बैठता है तब वह अपने सत्त्व को खो देता है। सूर्य, चन्द्र, मंगल, राहु, शनि जब एक दूसरे से विरोधात्मक सम्बन्ध बनाते हैं तो विकार उत्पन्न होता है।
हृदय रोग में सूर्य(आत्मा व आत्मबल) अशुद्ध रक्त को फेफड़ों द्वारा शुद्ध करके शरीर को पहुंचाता है, चन्द्रमा रक्त, मन व मानवीय भावना, मंगल रक्त की शक्ति, बुध श्वसन संस्थान, मज्जा, रज एवं प्राण वायु, गुरु फेफड़े व शुद्ध रक्त, शुक्र मूत्र, चैतन्य, शनि अशुद्ध रक्त, आकुंचन का कारक है।
हृदय रोग के अनेक ज्योतिष योग हैं जोकि इस प्रकार हैं-
पंचमेश द्वादश भाव में हो या पंचमेश-द्वादशेश दोनों ६,८,१२वें बैठे हों, पंचमेश का नवांशेश पापग्रह युत या दृष्ट हो।
पंचमेश या पंचम भाव सिंह राशि पापयुत या दृष्ट हो।
पंचमेश व षष्ठेश की छठे भाव में युति हो तथा पंचम या सप्तम भाव में पापग्रह हों।
चतुर्थ भाव में गुरु-सूर्य-शनि की युति हो या मंगल, गुरु, शनि चतुर्थ भाव में हों या चतुर्थ या पंचम भाव में पापग्रह हों।
पंचमेश पापग्रह से युत या दृष्ट हो या षष्ठेश सूर्य पापग्रह से युत होकर चतुर्थ भाव में हो।
वृष, कर्क राशि का चन्द्र पापग्रह से युत या पापग्रहों के मध्य में हो।
षष्ठेश सूर्य के नवांश में हो।
चतुर्थेश द्वादश भाव में व्ययेश के साथ हो या नीच, शत्रुक्षेत्री या अस्त हो या जन्म राशि में शनि, मंगल, राहु या केतु हो तो जातक को हृदय रोग होता है।
शुक्र नीच राशि में हो तो उसकी महादशा में हृदय में शूल होता है। द्वितीयस्थ शुक्र हो तो भी उसकी दशा में हृदय शूल होता है।
पंचम भाव, पंचमेश, सूर्यग्रह एवं सिंह राशि पापग्रहों के प्रभाव में हों तो जातक को दो बार दिल का दौरा पड़ता है।
पंचम भाव में नीच का बुध राहु के साथ अष्टमेश होकर बैठा हो, चतुर्थ भाव में शत्रुक्षेत्रीय सूर्य शनि के साथ पीड़ित हो, षष्ठेश मंगल भाग्येश चन्द्र के साथ बैठकर चन्द्रमा को पीड़ित कर रहा हो, व्ययेश छठे भाव में बैठा हो तो जातक को हृदय रोग अवश्य होता है।
राहु चौथे भाव में हो और लग्नेश पापग्रह से दृष्ट हो तो हृदय रोग जातक को अवश्य होता है।
चतुर्थ भाव में राहु हो तथा लग्नेश निर्बल और पापग्रहों से युत या दृष्ट हो।
चतुर्थेश का नवांश स्वामी पापग्रहों से दृष्ट या युत हो तो हृदय रोग होता है।
लग्नेश शत्रुक्षेत्री या नीच राशि में हो, मंगल चौथे भाव में हो तथा शनि पर पापग्रहों की दृष्टि हो या सूर्य-चन्द्र-मंगल शत्रुक्षेत्री हों या चन्द्र व मंगल अस्त हों यापापयुत या चन्द्र व मंगल की सप्तम भाव में युति हो तो जातक को हृदय रोग होता है।
शनि तथा गुरु पापगहों से पीड़ित या दृष्ट हों तो जातक को हृदय रोग एवं शरीर में कम्पन होता है।
शनि या गुरु षष्ठेश होकर चतुर्थ भाव में पापग्रह से युत या दृष्ट हो तो जातक को हृदय व कम्पन रोग होता है।
तृतीयेश राहु या केतु के साथ हो तो जातक को हृदय रोग के कारण मूर्च्छा रोग होता है।
चतुर्थ भाव में मंगल, शनि और गुरु पापग्रहों से दृष्ट हों तो जातक को हृदय रोग के कारण कष्ट होता है।
स्थिर राशियों में सूर्य पीड़ित हो तो भी हृदय रोग होता है।
अधिकांश सिंह लग्न वालों को हृदय रोग होता है।
षष्ठेश की की बुध के साथ लग्न या अष्टम भाव में युति हो तो जातक को हृदय रोग का कैंसर तक हो सकता है।
षष्ठ भाव में सिंह राशि में मंगल या बुध या गुरु हो तो हृदय रोग होता है।
छठे भाव में कुम्भ राशि में मंगल हो तो हृदय रोग होता है। छठे भाव में सिंह राशि हो तो भी हृदय रोग होता है।
चतुर्थेश किसी शत्राु राशि में स्थित हो और चौथे भाव में शनि व राहु या मंगल व शनि या राहु व मंगल या मंगल हो एवं शनि या पापग्रह से दृष्ट हो तो हृदय रोग होता है।
सूर्य पापप्रभाव से पीड़ित हो तभी हृदय रोग होता है।
हार्टअटैक के लिए राहु-केतु क पाप प्रभाव होना आवश्यक है। हार्ट अटैक आकसिम्क होता है।
हृदय रोग होगा या नहीं यह जानने के लिए कुछ ज्योतिष योगों की चर्चा करेंगे। इन योगों के आधार पर आप किसी की कुण्डली देखकर यह जान सकेंगे कि जातक को यह रोग होगा या नहीं। प्रमुख हृदय रोग संबंधी ज्योतिष योग इस प्रकार हैं-
१. सूर्य-शनि की युति त्रिक भाव में हो या बारहवें भाव में हो तो यह रोग होता है।
२. अशुभ चन्द्र चौथे भाव में हो एवं एक से अधिक पापग्रहों की युति एक भाव में हो।
३. केतु-मंगल की युति चौथे भाव में हो।
४. अशुभ चन्द्रमा शत्रु राशि में या दो पापग्रहों के साथ चतुर्थ भाव में स्थित हो तो हृदय रोग होता है।
५. सिंह लग्न में सूर्य पापग्रह से पीड़ित हो।
६. मंगल-शनि-गुरु की युति चौथे भाव में हो।
७. सूर्य की राहु या केतु के साथ युति हो या उस पर इनकी दृष्टि पड़ती हो।
८. शनि व गुरु त्रिक भाव अर्थात् ६, ८, १२ के स्वामी होकर चौथे भाव में स्थित हों।
९. राहु-मंगल की युति १, ४, ७ या दसवें भाव में हो।
१०. निर्बल गुरु षष्ठेश या मंगल से दृष्ट हो।
११. बुध पहले भाव में एवं सूर्य व शनि षष्ठेश या पापग्रहों से दृष्ट हों।
१२. यदि सूर्य, चन्द्र व मंगल शत्रुक्षेत्री हों तो हृदय रोग होता है।
१३. चौथे भाव में राहु या केतु स्थित हो तथा लग्नेश पापग्रहों से युत या दृष्ट हो तो हृदय पीड़ा होती है।
१४. शनि या गुरु छठे भाव के स्वामी होकर चौथे भाव में स्थित हों व पापग्रहों से युत या दृष्ट हो तो हृदय कम्पन का रोग होता है।
१५. लग्नेश चौथे हो या नीच राशि में हो या मंगल चौथे भाव में पापग्रह से दृष्ट हो या शनि चौथे भाव में पापग्रहों से दृष्ट हो तो हृदय रोग होता है।
१६. चतुर्थ भाव में मंगल हो और उस पर पापग्रहों की दृष्टि पड़ती हो तो रक्त के थक्कों के कारण हृदय की गति प्रभावित होती है जिस कारण हृदय रोग होता है।
१७. पंचमेश षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश से युत हो अथवा पंचमेश छठे, आठवें या बारहवें में स्थित हो तो हृदय रोग होता है।
१८. पंचमेश नीच का होकर शत्रुक्षेत्री हो या अस्त हो तो हृदय रोग होता है।
१९. पंचमेश छठे भाव में, आठवें भाव में या बारहवें भाव में हो और पापग्रहों से दृष्ट हो तो हृदय रोग होता है।
२०. सूर्य पाप प्रभाव में हो तथा कर्क व सिंह राशि, चौथा भाव, पंचम भाव एवं उसका स्वामी पाप प्रभाव में हो अथवा एकादश, नवम एवं दशम भाव व इनके स्वामी पाप प्रभाव में हों तो हृदय रोग होता है।
२१. मेष या वृष राशि का लग्न हो, दशम भाव में शनि स्थित हो या दशम व लग्न भाव पर शनि की दृष्टि हो तो जातक हृदय रोग से पीड़ित होता है।
२२. लग्न में शनि स्थित हो एवं दशम भाव का कारक सूर्य शनि से दृष्ट हो तो जातक हृदय रोग से पीड़ित होता है।
२३. नीच बुध के साथ निर्बल सूर्य चतुर्थ भाव में युति करे, धनेश शनि लग्न में हो और सातवें भाव में मंगल स्थित हो, अष्टमेश तीसरे भाव में हो तथा लग्नेश गुरु-शुक्र के साथ होकर राहु से पीड़ित हो एवं षष्ठेश राहु के साथ युत हो तो जातक को हृदय रोग होता है।
२४. चतुर्थेश एकादश भाव में शत्राुक्षेत्राी हो, अष्टमेश तृतीय भाव में शत्रुक्षेत्री हो, नवमेश शत्रुक्षेत्री हो, षष्ठेश नवम में हो, चतुर्थ में मंगल एवं सप्तम में शनि हो तो जातक को हृदय रोग होता है।
२५. लग्नेश निर्बल और पाप ग्रहों से दृष्ट हो तथा चतुर्थ भाव में राहु स्थित हो तो जातक को हृदय पीड़ा होती है।
२६. लग्नेश शत्रुक्षेत्री या नीच का हो, मंगल चौथे भाव में शनि से दृष्ट हो तो हृदय शूल होता है।
२७. सूर्य-मंगल-चन्द्र की युति छठे भाव में हो और पापग्रहों से पीड़ित हो तो हृदय शूल होता है।
२८. मंगल सातवें भाव में निर्बल एवं पापग्रहों से पीड़ित हो तो रक्तचाप का विकार होता है।
२९. सूर्य चौथे भाव में शयनावस्था में हो तो हृदय में तीव्र पीड़ा होती है।
३०. लग्नेश चौथे भाव में निर्बल हो, भाग्येश, पंचमेश निर्बल हो, षष्ठेश तृतीय भाव में हो, चतुर्थ भाव पर केतु का प्रभाव हो तो जातक हृदय रोग से पीड़ित होता है।
अगले अंक में हृदय रोग संबंधी अन्य योगों की चर्चा करेंगे और यह बताएंगे कि इस रोग से बचने के निदान क्या हैं अथवा उपाय क्या है?
सूर्य हृदय का प्रतिनिधित्व करता है, जिसका भाव पंचम है। जब पंचम भाव, पंचमेश तथा सिंह राशि पाप प्रभाव में हो तो हार्ट अटैक की सम्भावना बढ़ जाती है। सूर्य पर राहु या केतु में से किसी एक ग्रह का पाप प्रभाव होना भी आवश्यक है। जीवन में घटने वाली घटनाएं अचानक ही घटती हैं जोकि राहु या केतु के प्रभाव से ही घटती हैं। हार्ट अटैक भी अचानक बिना किसी पूर्व सूचना के आता है, इसीलिए राहु या केतु का प्रभाव आवश्यक है।
यदि षष्ठेश केतु के साथ हो तथा गुरु, सूर्य, बुध, शुक्र अष्टम भाव में हों, चतुर्थ भाव में केतु हो तो हृदय रोग होता है।
चतुर्थेश लग्नेश, दशमेश व व्ययेश के साथ आठवें हो और अष्टमेश वक्री होकर तृतीयेश बनकर तृतीय भाव में हो व एकादश भाव का स्वामी लग्न में हो तो जातक को हृदय रोग होता है।
षष्ठेश की अष्टम भाव में स्थित गुरु, सूर्य, बुध, शुक्र पर दृष्टि हो तो जातक हृदय रोग से पीड़ित होता है।
शनि दसवीं दृष्टि से मंगल को पीड़ित करे, बारहवें भाव में राहु तथा छठे भाव में केतु हो, चतुर्थेश व लग्नेश अष्टम भाव में व्ययेश के साथ युत हो तो भी हृदय रोग होता है।
सर्वविदित है की चौथा भाव और दसवां भाव हृदय कारक अंगों के प्रतीक हैं। चतुर्थ भाव का कारक चन्द्र भी आरोग्यकारक है। दशम भाव के कारक ग्रह सूर्य, बुध, गुरु व शनि हैं। पाचंवा भाव छाती, पेट, लीवर, किडनी व आंतों का है, ये अंग दूषित हों तो भी हृदय हो हानि होती है। यह भाव बुद्धि अर्थात् विचार का भी है। गलत विचारों से भी रोग वृद्धि होती है।
रोग के प्रकार के लिए पहले, छठे और बारहवें भाव को भी अच्छी तरह देखना चाहिए।
छठे भाव का कारक मंगल व शनि हैं। मंगल रक्त का कारक और शनि वायु का कारक है। ये भी रोग कारक हैं। आठवां भाव रोग और रोगी की आयु का सूचक है। आठवें का कारक शनि है। विचार करते समय भाव व उनके कारकों का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
सूर्य, चन्द्र, मंगल, शनि, राहु व केतु ग्रह का विशेष ध्यान रखना चाहिए क्योंकि ये सभी रोग हो प्रभावित करते हैं या बढ़ाते हैं।
जन्म नक्षत्र मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी हों तो हृदय रोग अत्यन्त पीड़ादायक होता है।
मेष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, कुम्भ, मीन राशियां जिन जातकों की हैं, उनका यदि मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, कुम्भ या मीन लग्न हो तो उनको हृदय रोग अधिक होता है।
भरणी, कृत्तिका, ज्येष्ठा, विशाखा, आर्द्रा, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रा हृदय रोग कारक हैं।
एकादशी, द्वादशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा एवं अमावस्या दोनों पक्षों की हृदय रोग कारक हैं। जिन जातकों का जन्म शुक्ल में हो तो उन्हें कृष्ण पक्ष की उक्त तिथियां एवं जिनका जन्म कृष्ण में हो तो उन्हें शुक्ल पक्ष की उक्त तिथियों में यह रोग होता है।
आंग्ल तिथियों में १,१०,१९,२८,१३,२२,४,९,१८ व २७ में ये रोग होता है।
रोग का निदान कैसे करें?
हृदय रोग संबंधी समस्त योगों को समझ लें और उसका सार तत्त्व ग्रहण कर किसी भी कुण्डली में विचार कर विश्लेषण कर यह निर्णय कर लें कि हृदय रोग होगा या नहीं।
तदोपरान्त रोग कारक ग्रहों के कुप्रभाव को दूर करने के उपाय करें। कुण्डली के बली व शुभ ग्रहों को स्थापित करें।
रोग जटिल अवस्था में है तो अधोलिखित उपाय कराए-
१. पका हुआ पीला काशीफल लेकर उसके बीच निकाल करके किसी भी मन्दिर के प्रांगण में रखकर ईश्वर से स्वस्थ होने की कामना करते हुए रख दें। उपाय सूर्योदय के उपरान्त एवं सूर्यास्त से पूर्व करें। किसी के लिए वही कर सकता है जिसका रोगी से रक्त का संबंध हो। यह अनुसार अल्पतम तीन दिन करें और अधिक कष्ट है तो अधिक दिन भी कर सकते हैं। यहां आस्था एवं निरन्तरता महत्वपूर्ण है।
२. गुड़ की चासनी में आटा गूंथकर अधपकी रोटी तन्दूर में लगवा लें। रोटी की संख्या निर्धारित करने के लिए जिस दिन उपाय करना हो उस दिन रोगी के आसपास जितने लोग हों उन्हें गिनकर चार की संख्या अतिरिक्त जोड़ लें तदोपरान्त उतनी रोटी बनवा लें। इन रोटियों को बराबर मात्राा में दो भाग में करके एक भाग कुत्तों को और दूसरा भाग गायों को खिला दें यह सोचकर कि रोगी स्वस्थ हो जाए।
३. रोगी के सिरहाने एक सिक्का रखकर या श्रद्धानुसार रखकर उसे अगले दिन सूर्योदय के उपरान्त भंगी को दें। यह नित्य करें और ४३ दिन तक बिना नागा करें। मन में भाव रोगी के ठीक होने का रखें।
उक्त उपायों से रोग के निदान में सहायता मिलेगी एवं चिकित्सक से ली गई सलाह एवं उसकी बतायी औषधि या निदान को भी कराते रहना चाहिए।(मेरे द्वारा सम्पादित ज्योतिष निकेतन सन्देश अंक ६२, ६३, ६४ से साभार। सदस्य बनने या नमूना प्रति प्राप्त करने के लिए अपना पता मेरे ईमेल पर भेजें ताजा अंक प्रेषित कर दिया जाएगा।)
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