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बुधवार, मई 19, 2010

गण्डमूल इतने अशुभ क्यों ? (भाग-दो )लेखक : पं. ज्ञानेश्वर



पूर्व लेख में गण्डमूल इतने अशुभ क्यों के अन्तर्गत सन्धि की चर्चा के साथ-साथ यह बता चुके हैं कि सन्धि कैसी भी हो अशुभ होती है। बड़े व छोटे मूल क्या हैं। गण्डान्त मूल और उसका फल क्या है। अब इसी ज्ञान में और वृद्धि करते हैं।
अभुक्त मूल
ज्येष्ठा नक्षत्र के अन्त की 1घटी(24मिनट) तथा मूल नक्षत्र की प्रथम 1घटी अभुक्त मूल कहलाती है। इस प्रकार 2घटी का कोणात्मक मान 26कला40विकला होता है। इसके अनुसार अभुक्त मूल का कोणात्मक विस्तार इस प्रकार होता है-
वृश्चिक ज्येष्ठा नक्षत्र के चतुर्थ चरण में और मूला नक्षत्र के प्रथम चरण में यह विस्तार इस प्रकार है-
7राशि29अशं46कला40विकला से 8राशि 0 अंश 0 कला 0विकला तक और 8 राशि 0अंश 0कला 0विकला से 8राशि 0अंश 13कला 20विकला तक।
अभुक्त मूल में जन्मे बालक का मुंह पिता द्वारा तीन वर्ष तक देखना वर्जित है। इसीलिए प्राचीन काल में ऐसे बालकों का त्याग कर दिया जाता था। दो जातक तुलसीदास और कबीर के नाम से अमर हो चुके हैं।
सन्धि स्थल अशुभ होते हैं!
सन्धि के निकट सर्वाधिक अशुभ फल हाता है। ज्येष्ठा का चतुर्थ चरण ओर मूल का प्रथम चरण सर्वाधिक हानिकारक होता है। प्रायः तृतीयांशों के अन्तिम नक्षत्रों  रेवती, आश्लेषा व ज्येष्ठा के प्रथम चरणों से ज्यों-ज्यों चतुर्थ चरणों की ओर सन्धि के निकट बढ़ते हैं तो अशुभता बढ़ती जाती है। इसके विपरीत तृतीयांशों के प्रारम्भिक  नक्षत्रों  अश्विनी, मघा व मूला के प्रथम चरणों से चतुर्थ चरणों की ओर सन्धि से दूर बढ़ने पर अशुभता कम होती जाती है। गण्डमूल  नक्षत्रों  के फल पूर्व अंक में बता चुके हैं।?
जन्म नक्षत्र से तारा
भचक्र में  नक्षत्रों  का वितरण इस प्रकार से किया गया है कि एक ही स्वामी के तीन नक्षत्रों की आवृत्ति में एकरूपता है अर्थात्‌ जन्म नक्षत्र से नौ नक्षत्र पश्चात उसी स्वामी का नक्षत्र आता है, इसी प्रकार 18 नक्षत्र के उपरान्त भी उसी स्वामी का नक्षत्र आता है।
इस प्रकार जन्म नक्षत्र और जन्म नक्षत्र से दसवां तथा उन्नीसवां नक्षत्र भी जन्म नक्षत्र की श्रेणी में आता है।
उदाहरण के लिए किसी का जन्म अश्विनी नक्षत्र में हुआ तो उसका जन्म नक्षत्र अश्विनी होगा, उससे दसवां नक्षत्र मघा अनुजन्म और इससे दसवां जन्म नक्षत्र से 19वां नक्षत्रा मूल नक्षत्र या त्रिजन्म नक्षत्र कहलाएगा। 
फलित की दृष्टि से तीनों ही जन्म नक्षत्र की दृष्टि में माने जाते हैं क्योंकि तीनों ही नक्षत्रों का स्वामी एक ही ग्रह है। तीनों नक्षत्रों में स्थित ग्रह पर नक्षत्र स्वामी का समान प्रभाव पड़ेगा।
जन्म नक्षत्र से गिनने पर किसी भी नक्षत्र तक की संख्या तारा कहलाती है। 
नौ नक्षत्र की तीन आवृत्ति के कारण तारा संख्या भी 1से9 ही आती है। यदि गिनने पर संख्या नौ से अधिक आ जाए तो संख्या में 9 का भाग लगाने से जो शेष बचता है वही तारा संख्या होती है। 
नौ तारा के नाम इस प्रकार हैं-
1.जन्म, 2.सम्पत, 3.विपत, 4. क्षेम, 5.प्रत्यरि, 6.साधक, 7.वध, 8. मैत्र एवं 9. अतिमैत्र।
यदि उपरोक्त तारों को आवृत्तियों के अनुसार लिखें तो क्रम इस प्रकार होगा-
1,10,9 जन्म, 2,11,20 सम्पत, 3,12,21 विपत, 4,13,22 क्षेम, 5,14,23 प्रत्यरि, 6,15,24 साधक, 7,16,25 वध, 8,17,26 मैत्रा, 9,18,27 अतिमैत्रा।
उपरोक्त क्रम से स्पष्ट होता है कि जातक के जन्म नक्षत्र से 3, 5, 7, 12, 14, 16, 21, 23, 25वें नक्षत्र अशुभ होते हैं। शेष 1, 2, 4, 6, 8, 9, 10, 11, 13, 15, 17, 18, 19, 20, 22, 24, 26, 27वे नक्षत्र शुभ हाते हैं।
किसी जातक के जन्म नक्षत्रा के अनुसार विपत, प्रत्यरि तथा वध तारों में स्थित ग्रह अशुभ फल प्रदान करते हैं। यदि इन  नक्षत्रों  के स्वामी त्रिक भावों के स्वामी भी हैं तो अत्यन्त अशुभ फल करेंगे क्योंकि करेला और उस पर नीम चढ़ा।
किसी भी जातक के जन्म नक्षत्र से उसके अशुभ नक्षत्र सरलता से जानकर शुभाशुभ स्थिति ज्ञात कर सकते हैं। वर व वधू के चयन में तारा का विचार होता है। अधिकतम गुण तीन मिलते हैं। वर के जन्म नक्षत्र से वधू का जन्म नक्षत्र अथवा वधू के जन्म नक्षत्र से वर का जन्म नक्षत्र विपत, प्रत्यरि या वध की श्रेणी में आता हो तो यह तारा अशुभ माना जाता है। ऐसे पति-पत्नी जीवन भर एक दूसरे के प्रति विरोधी, शत्रुवत्‌, अशुभ एवं हानिकारक रहेंगे। फलस्वरूप दाम्पत्य जीवन अशान्त, कष्टमय तथा नरक तुल्य सिद्ध हो सकता है।
वर व वधू का तारा जानकर यह जाना जा सकता है कि विवाह शुभ रहेगा या नहीं। अनुकूल तारा में पारिवारिक जीवन सुखमय बीतता है और प्रतिकूल तारा हो तो जीवन तनाव व कष्टमयी व्यतीत होता है।


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