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शनिवार, जनवरी 09, 2010

सुख की खोज-सत्यज्ञ

मन इन्द्रियों का राजा है। मन की चंचलता के कारण भी ये इन्द्रियां हैं। देशकाल और समय के साथ-साथ अर्थ और सन्दर्भ बदल जाते हैं। सही अर्थ में तो व्यक्ति आत्मा है। मन, बुद्धि और शरीर उसके उपकरण हैं। आज शिक्षा बुद्धि प्रधान होने के कारण जीवन में भी बुद्धि-प्रधान होता जा रहा है। बुद्धि खराब वस्तु नहीं है, लेकिन यह जान लें की इसका उपयोग सही या गलत हो सकता है।
बुद्धि सदैव मन का अनुसरण करती है। मन की इच्छाओं को पूर्ण करने का मार्ग तय करती है। बुद्धि सामान्य जीवन से लेकर वैज्ञानिक शोध तक पहुंच सकती है। जब मन प्रधान हो तो वहां प्राण अनुसरण करता है और जहां प्राण प्रधान हो तो वहां मन सिमट जाता है। मूलतः जीवन कर्म और ज्ञान का सन्तुलन है। कर्म शरीर का और ज्ञान बुद्धि का। इन दोनों का लक्ष्य सुख और शान्ति है। सुख का अनुभव दोनों को ही नहीं होता है। मन ही सुखी या दुःखी हो सकता है। मन ही मूल है जोकि भीतर है। मन को समझने के लिए व्यक्ति को भी भीतर जाना होगा अर्थात्‌ अन्तः में झांकना होगा। आज की शिक्षा में समस्त व्यापार बाह्य जीवन पर आकर ठहर गया है। व्यक्ति बुद्धिमान कहलाने पर गर्व महसूस करता है। बुद्धिमान व्यक्ति यदि भीतर जाता है तो वह दूजों से अधिक जल्दी आगे निकल सकता है। हृदय के योग से वह प्रज्ञा जगाकर प्रज्ञावान्‌ बन सकता है और सूक्ष्म को समझने की क्षमता प्राप्त कर सकता है। आत्मा का धरातल ढूंढ सकता है।
बुद्धिमान को ईश्वर पर तो विश्वास हो ही नहीं सकता। इसके लिए तो भक्तिभाव युक्त हृदय चाहिए। बुद्धि की प्रखरता बुद्धिमान को हृदय से दूर करती है। आज के बुद्धिजीवी इसके उदाहरण हैं। वे इस प्रकार जीवनयापन कर रहे हैं मानों मन के सम्बन्ध भी दिमाग से निभाए जा रहे हैं। वे प्रेम भी दिमाग से करते हैं जबकि प्रेम भक्ति है। प्रेम कभी भी सोच-समझकर या नाप-तौलकर नहीं किया जाता है। बुद्धि ने प्रेम को भी व्यापार बना दिया है। आजकल देने के साथ-साथ लेना भी अनिवार्य हो गया है। इस लेनदेन का नाम ही व्यापार है। जहां लेनदेन है, वहां प्रेम नहीं, हिसाब हो सकता है। जब अहंकार के कारण प्रेम में भी दो व्यक्ति एक न होकर दो ही रहते हैं। फिर सुख की खोज मिठास रूप में कैसे मिल सकती है। सुख की खोज में व्यक्ति मन को बार-बार टटोलता है। तब उसे दिखता है कि बुद्धि मन को ढके हुए है। वह अन्तिम क्षण तक अपने बारे में चिन्तन कर ही नहीं पाता है। बाहर के ज्ञान से बाह्य जीवन पूर्ण करके परलोक चला जाता है। अधिकतर इसी तरह चले जाते हैं। हम सब अपने जीवन का उपयोग ही नहीं कर पाते हैं। यदि सुख चाहिए तो भावनात्मक धरातल चाहिए, प्रेम चाहिए, सम्मान चाहिए, माधुर्य चाहिए, हृदय खुला चाहिए। व्यक्ति जिस ज्ञान के सहारे सेवा निवृत्त होता है वह उसके काम नहीं आता है। बुद्धि का अवरोध तभी रुकता है जब उसे सारा ज्ञान भुलाना पड़ता है। हृदय तक दिमाग को बन्द करके और विचार शान्त करके ही पहुंच सकते हैं।
पुरुषों का कोई अनुभव हृदय तक पहुंचता ही नहीं है। बुद्धि रूपी द्वारपाल उन्हें रोक देता है। स्त्रियां अधिक हृदयजीवी होती हैं। वहां भावों की प्रधानता होती है। वे भक्ति में सरलता से प्रवेश कर लेती हैं। वे प्रेम करना भी चाहती हैं और यह भी चाहती हैं कि कोई उनसे भी प्रेम करे। पुरुष जब नाप-तौल कर बुद्धि के माध्यम से प्रेम करता है तो उसमें प्राकृतिक सहजता नहीं रह पाती है और स्त्रियां सहजता से सन्तुष्ट नहीं हो पाती हैं। इसी अन्तर के कारण स्त्रियां हर स्थिति में प्रसन्नता संग जीती हैं जबकि पुरुष चेहरे पर प्रसन्नता का भाव दिखाते हैं। अब तो शिक्षा ने स्त्रियों को भी बुद्धिजीवी बना दिया है। ऐसे में उनके जीवन का सुख भी समाप्त हो गया है क्योंकि वे भी पुरुष की भांति हो गयी हैं, भावना शून्य। स्त्री व पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं पर दोनों ही भावना शून्य हो जाएंगे तो सुख व प्रसन्नता कहां से आएगी। सुख व प्रसन्नता की खोज करना चाहते हैं तो दोनों को एक धरातल पर आना होगा। यह तभी होगा जब दोनों हृदयजीवी हों नाकि एक बुद्धिजीवी हो और दूसरा हृदयजीवी।
जीवन में सुख की खोज है तो बुद्धि के कपाट बन्द कर लें। बुद्धि संग रखेंगे तो सुख पास नहीं फटकेगा। बुद्धि को कार्य बनाने या व्यापार हेतु ही रखें। यदि घर में सुख चाहते हैं तो घर में प्रवेश करने पूर्व स्वयं को हृदयजीवी बना लें। हृदयजीवी बनना सरल नहीं है। यह तभी होता है जब मन से इस ओर प्रयास किया जाए। सुख के लिए हृदयजीवी बनेंगे तो सुख को खोजना नहीं पड़ेगा।(मेरे द्वारा सम्पादित ज्योतिष निकेतन सन्देश अंक 63,64,65 से साभार। सदस्य बनने या नमूना प्रति प्राप्त करने के लिए अपना पता मेरे ईमेल पर भेजें ताजा अंक प्रेषित कर दिया जाएगा।)


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